मिथिलेश कुमार
प्लाज्मा हमारे खून का पीला तरल हिस्सा होता है, जिसके जरिए सेल्स और प्रोटीन शरीर की विभिन्न कोशिकाओं तक पहुंचते हैं। आप यह समझ लें कि हमारे शरीर में जो खून मौजूद होता है उसका 55 प्रतिशत से अधिक हिस्सा प्लाज्मा का ही होता है।
कोरोना संकट के इस दौर में लोगों के बीच ‘प्लाज्मा थेरेपी’ नाम खासा चर्चित हुआ है। एक तरफ जहां समूचा विश्व कोरोना का इलाज ढूंढने में लगा है, वहीं प्लाज्मा थेरेपी एक उम्मीद के रूप में सामने आ रही है। हालांकि, इसे लेकर मेडिकल कम्युनिटी पूरी तरह आश्वस्त नहीं है, लेकिन शुरुआती दौर में इसने एक राह तो दिखलाई ही है।
प्रश्न उठता है कि वास्तव में यह है क्या?
और इसमें किस तरीके से इलाज को संपन्न किया जाता है।
आइए जानते हैं…
वर्तमान में क्यों जगी उम्मीद?
भारत में इसकी चर्चा तब शुरू हो गई, जब दिल्ली राज्य में शुरुआत में छह लोगों का प्लाज्मा थेरेपी के माध्यम से इलाज करना शुरू किया गया और आश्चर्यजनक रूप से चार पेशेंट ने पॉजिटिव रिस्पांस करना शुरू किया। फिर दिल्ली के बाद कर्नाटक राज्य में भी इसका ट्रायल शुरू हो गया और इसी तर्ज पर केरल, बिहार जैसे राज्य भी इसका ट्रायल शुरू करने की दिशा में आगे बढ़ चुके हैं।
इसका पूरा नाम कॉन्वालेसंट प्लाज्मा थेरेपी है।
सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि अमेरिका में अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने कोरोना से लड़कर ठीक हुए मरीजों से प्लाज्मा दान करने की अपील की है। इससे पहले चीन में फरवरी से ही इस मेथड के माध्यम से इलाज किया जा रहा है।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ कोरोना में ही प्लाज्मा थेरेपी का उपयोग किया गया है, बल्कि इससे पहले इबोला वायरस से मुकाबले के लिए भी प्लाज्मा थेरेपी इस्तेमाल में लाई गई थी।
जो भी हो, यह कोई नई तकनीक नहीं है, बल्कि पुरानी तकनीक ही है, जिसका इस्तेमाल काफी पहले से किया जा रहा है।
कैसे काम करती है प्लाज्मा तकनीक?
प्लाज्मा हमारे खून का पीला तरल हिस्सा होता है, जिसके जरिए सेल्स और प्रोटीन शरीर की विभिन्न कोशिकाओं तक पहुंचते हैं। आप यह समझ लें कि हमारे शरीर में जो खून मौजूद होता है उसका 55 प्रतिशत से अधिक हिस्सा प्लाज्मा का ही होता है।
प्लाज्मा के बारे में यह जान लेना उचित रहेगा कि अगर कोई व्यक्ति किसी बीमारी से ठीक हुआ रहता है और अपना प्लाज्मा डोनेट करता है, तो इससे डोनेट करने वाले व्यक्ति को किसी प्रकार का कोई नुकसान नहीं होता है। किसी प्रकार की कोई कमजोरी नहीं होती है।
इसमें जो लोग अपना प्लाज्मा डोनेट करते हैं, उनके प्लाज्मा को दूसरे मरीजों से ट्रांसफ्यूजन के माध्यम इंजेक्ट करके इलाज किया जाता है।
वस्तुतः इस तकनीक में एंटीबॉडी का इस्तेमाल होता है, जो किसी भी व्यक्ति के बॉडी में किसी वायरस या बैक्टीरिया के खिलाफ बनता है। इसी एंटीबॉडी को मरीज के शरीर में डाला जाता है। ऐसे में एक मेथड से जो व्यक्ति ठीक हुआ रहता है, ठीक वही मेथड दूसरे मरीज पर कार्य करता है और दूसरा मरीज भी ठीक होने लगता है।
हालांकि इसे लेकर यह समझ लेना चाहिए कि यह कोई जादू नहीं है, बल्कि सच्चाई तो यह है कि कोई जरूरी नहीं है कि एक व्यक्ति पर अगर कोई दवाई असर करती है तो उसका एंटीबैक्टीरियल ट्रांसफ्यूजन दूसरे पर भी असर करेगा ही। कई बार यह असर नहीं भी करता है, इसीलिए इसमें काफी सावधानी की जरूरत होती है।
विरोधाभास क्यों?
प्लाज्मा थेरेपी को लेकर विरोधाभास तब सामने आया, जब आईसीएमआर यानी इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च ने इस पर सवाल खड़ा किया और यहां तक कह दिया कि अगर इसके ट्रायल के लिए भी इस्तेमाल सावधानी से नहीं किया गया तो मरीज की जान को खतरा हो सकता है। साफ तौर पर एक्सपर्ट इस बात पर एक राय नहीं हैं, लेकिन सच्चाई यह अवश्य है कि कोविड-19 से निपटने के लिए अभी किसी इलाज को मान्यता नहीं दी गई है। प्लाज्मा थेरेपी को लेकर इसलिए भी काफी विरोधाभास सामने आ रहा है।
हालांकि इसे एक एक्सपेरिमेंटल थेरेपी अवश्य माना गया है और इसके ट्रायल विभिन्न जगहों पर चल रहे हैं। ऐसे में इसे पूरी तरह से खारिज भी नहीं किया जा सकता।
ऐसी स्थिति में जब तक कोरोना का कोई स्थाई इलाज नहीं ढूंढा जाता है, तब तक उम्मीद की जानी चाहिए कि प्लाज्मा थेरेपी का प्रयोग जारी रहेगा
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