पुत्री की सीख
किसी शहर में एक पूंजीपति सेठ रहते थे, उनके चार पुत्र व एक पुत्री थी जब पुत्री विवाह के योग्य हुई तब उन्होंने अपने बराबरी का परिवार ,योग्य वर देख अपनी पुत्री की शादी करवा दी अपनी हैसियत से भी दहेज देकर विदा किया। सेठ की पुत्री के कुछ पूर्व जन्म के कुछ इसी जन्म के अच्छे संस्कार थे, जब वह अपने ससुराल गई, और वहां का वातावरण देखा। कुछ दिनों के पश्चात उसने अपने पिता को एक पत्र लिखा, पत्र लिखकर नौकर को दिया और उसे कहा कि पत्र को पोस्ट कर दो, जब वह नौकर पत्र को पोस्ट करने जा रहा था बाहर गार्डन में उसके ससुर ने वह पत्र ले लिया और नौकर को कहा की यह पत्र मैं स्वयं पोस्ट कर दूंगा
उस पत्र को सेठ ने खोलकर पढा तो उसमें राजी खुशी के समाचार लिखे थे अंत में यह लिखा था कि बासी खाती हूं और उपवास रखती हूं अर्थात बासी खाना खा रही हूं वह उपवास रख रही हूं तब सेठ को पत्र पढ़कर बहुत ही क्रोध आया, उसी टाइम तार घर में जाकर लड़की के पिता को टेलीग्राम किया और कहां की अभी के अभी मेरे पास आओ जब लड़की के पिता ने टेलीग्राम देखा तो उसे बहुत ही चिंता होने लगी, वह उसी टाइम अपने संबंधी के पास पहुंच गए ,तब लड़की के ससुर ने वह पत्र उसे पढ़ने को दिया और कहा कि यह पत्र तो मेरे हाथ में आ गया, अगर यह पत्र किसी दूसरे के हाथ में पहुंचता तो मेरी बदनामी होती आपकी पुत्री मेरे घर में कोई बासी भोजन नहीं करती, और दिन में तीन टाइम भोजन करती है फिर भी उसने लिखा की मैं उपवास करती हूं इस बात का आप मुझे उत्तर दो, लड़की के पिता को भी कुछ समझ में नहीं आया वह अपनी पुत्री के पास गया और कहा कि बेटी तूने ऐसा पत्र क्यों लिखा इससे तेरे ससुर क्रोधित हैं। तब लड़की ने उत्तर दिया कि मैंने सही ही तो लिखा है, मेरे ससुराल वालों के पूर्व जन्म में अच्छे कर्म किए हुए थे , यह लोग उसी पुण्य के फल से सुखी हैं। इसलिए हम लोग बांसी खा रहे हैं। और आगे के लिए मेरे परिवार में कोई भी दान पुण्य, नहीं कर रहे हैं। वह कई तरह के खोटे कर्म करके धन जमा कर रहे हैं इसलिए आगे के लिए कोई भी पुण्य नहीं कमा रहे हैं ,तो आगे उपवास रखना पड़ेगा और भूखा रहना पड़ेगा।। इस कहानी से हमें यह सीख लेनी चाहिए कि हम जो भी सुखी, दुखी है, सभी अपने अपने कर्मों से हैं।
हमें भी अच्छे कर्म करते हुए, दान पुण्य करते हुए, हर किसी असहाय की मदद करते हुए अपना जीवन यापन करना चाहिए। ना किसी का हक छिनना, सेवा तीन प्रकार की होती है धन से, तन से, वह मन से
हमें गौशाला , मंदिर, व असहायो की, तन मन धन से सेवा करनी चाहिए।।
वेद प्रचारक आर्य बाबू सिंह भाटी