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स्वर्णिम इतिहास

तैमूर लंग के सारे अत्याचारों का हिसाब पाक साफ कर दिया था हमारे वीर और वीरांगनाओं ने

गुर्जर प्रतिहार वंश के शासकों ने भारतवर्ष में उन हिंदुओं को फिर से शुद्ध कर स्वधर्म में दीक्षित किया था जो किन्ही कारणों से मुसलमान बन गए थे । इसी वंश के शासकों ने आज के सिंध से लेकर ईरान तक का सारा क्षेत्र शुद्धि अभियान के माध्यम से विदेशी मजहब अर्थात मुस्लिमों से खाली कर दिया था । तब इन विदेशी हमलावरों को अपने लिए एक ‘शहरे महफूज’ नाम का नगर भारत की सीमा से दूर बसाना पड़ा था । जिसमें उन्होंने अपने आपको सुरक्षित कर लिया था । निरंतर 300 वर्ष तक प्रतिहार वंश के शासकों ने भारत को विदेशी आक्रमणकारियों से सुरक्षित रखा था । इसके पश्चात गुजरात के सोलंकी वंश के राजा भीमदेव प्रथम ने महमूद गजनवी को सोमनाथ मंदिर की लूट के माल को स्वदेश ले जाने से रोकते हुए लौटते हुए गजनवी को हराने का साहसिक कार्य किया था । जिसमें उन्हें अनेकों राजाओं ने भी सहयोग किया था । भारतीय देश , धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए ऐसे ही अनेकों वीर योद्धाओं ने भारतीय इतिहास में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखवाने का कार्य किया है । इस क्षेत्र में अनेकों वीरांगनाएं भी ऐसी रही हैं जिन्होंने समय आने पर देश ,धर्म व संस्कृति के लिए अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान देने में संकोच नहीं किया । ऐसी ही वीरांगनाओं में से एक वीरांगना रामप्यारी गुर्जर थीं । जो कि उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में जन्मी थीं ।

जब गुर्जर प्रतिहार राजवंश का पतन हो गया तो उसके पश्चात भी पंजाब की ओर से आने वाले मोहम्मद गौरी , तैमूर लंग और बाबर जैसे विदेशी हमलावरों को रोकने और उनका डटकर सामना करने में गुर्जर योद्धाओं ने विशेष भूमिका निभाई । अब उनके पास राज्य नहीं रहा था , इसलिए आधुनिकतम अस्त्र-शस्त्र और सैन्य संगठन भी नहीं था , परंतु इसके उपरांत भी उन्होंने छापामार युद्ध के माध्यम से विदेशी हमलावरों की चुनौती स्वीकार करने की अपनी परम्परा जारी रखी ।
रामप्यारी गुर्जरी के भीतर बचपन से ही ऐसे संस्कार दिखाई देने लगे थे जो उसे देश सेवा की ओर ले जाने का संकेत दे रहे थे । वह बचपन में ही व्यायाम करके पहलवान बनने के सपने देखती थी । उसका लक्ष्य था कि बड़ी होकर देश , धर्म व संस्कृति की रक्षा के लिए कोई बड़ा काम करूंगी। इसके लिए वह अपनी मां से विशेष मार्गदर्शन लेती रहती थी। अपने इस सपने को साकार करने में उसे अपने भाई व पिता का भी भरपूर सहयोग में मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। उस समय अखाड़ा में दंगल करने की परंपरा बड़े जोरों पर थी । रामप्यारी अपने पिता व भाई के साथ ऐसे अखाड़ों में जाती और वहां पर मल्लयुद्ध आदि को देखती। उसने स्वयं भी व्यायाम आदि के माध्यम से कठोर साधना कर अपने शरीर को वज्र जैसा बना लिया था । अब जो भी कोई उसे देखता था वही उसके बारे में यही कहता था कि यह निश्चय ही बड़ी होकर कोई महान कार्य करेगी।
उस समय तैमूर लंग नाम का एक विदेशी हमलावर भारत पर चढ़ाई कर आया । तैमूर लंग के अत्याचारों और उसकी क्रूरता को सुनकर हृदय कांप उठता है । जब उसने भारत की ओर प्रस्थान किया तो कई लोगों को उसके आने मात्र से ही बहुत अधिक भय लग रहा था , क्योंकि उसकी क्रूरता व अत्याचारों की कहानियां उस समय भी बहुत प्रचलित थीं । पंजाब के लोगों को जब यह जानकारी हुई कि तैमूर लंग भारत में चढ़ाई करने के लिए प्रवेश कर चुका है तो उनका चिंतित होना भी स्वाभाविक था। यह 1398 ई0 की घटना है। उस समय भारत में तुगलक वंश शासन कर रहा था । जिसकी सत्ता उस समय दुर्बल होती जा रही थी । दूसरी बात यह भी थी कि देश की बहुसंख्यक हिंदू जनता का तुगलक वंश के शासकों को किसी प्रकार का कोई सहयोग नहीं था। क्योंकि तुगलक वंश के शासक देश के बहुसंख्यक हिंदुओं के साथ दमन और अत्याचार का व्यवहार करते थे । तैमूरलंग ने भारत में प्रवेश करते ही ऐसे क्रूर अत्याचारों की कहानी लिखनी आरंभ कर दी थी ,जिनका वर्णन करते हुए लेखनी भी लहू के आंसू बहाने लगती है। उसने नसीरुद्दीन तुगलक नाम के मुस्लिम सुल्तान को पराजित किया और उसके पश्चात दिल्ली में मनचाहे अत्याचार किए।

तैमूर लंग का भारत पर किया गया आक्रमण भारत के धर्म व संस्कृति को मिटाकर विदेशी संस्कृति की बयार बहा देना था । अतः उसकी तलवार को यदि इस्लाम की नंगी तलवार भी कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी । इस बात की पुष्टि ब्रिटिश इतिहासकार विन्सेंट ए स्मिथ द्वारा रचित पुस्तक ‘द ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इंडिया : फ्रोम द अर्लीएस्ट टाइम्स टू द एण्ड ऑफ 1911’ में की गयी है । यही कारण था कि वह भारत में जहां जहां भी गया वहां उसने अपनी खून की प्यासी तलवार को चलाते समय यह नहीं देखा कि मरने कटने वाला निरपराध कोई बालक है , महिला है या वृद्ध है ? उसने सबको थोक के भाव काटा । जो इस्लाम में दीक्षित हो गए , या अपने घर बार छोड़कर दूर जंगलों में जाकर छुप गए थे, केवल उनको छोड़ा ।
भारत की यह अद्भुत और अनोखी परंपरा रही है कि यहां पर समाज के संभ्रांत और योद्धा लोगों ने भी राजा से कोई निर्देश प्राप्त न होने पर भी देश सेवा के लिए अपने आपको और अपने अवैतनिक देशभक्त युवाओं को साथ लेकर अपनी एक सेना बनाकर विदेशी हमलावरों का समय-समय पर सामना किया है। इस समय समाज का एक ऐसा ही वीर योद्धा देवपाल जाट निकल कर सामने आया । जिसने हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सभी जाति बिरादरियों के लोगों को एकत्र कर एक महापंचायत की । जिसमें विदेशी हमलावर तैमूर लंग का सामना करने का प्रस्ताव उसने रखा।

सभी जाति बिरादरी के लोगों ने सर्वसम्मति से देवपाल जाट की बात का समर्थन किया और विदेशी हमलावर तैमूर लंग के अत्याचारों से मुक्ति पाने के लिए प्राणपण से कार्य करने का संकल्प लिया। सभी का एक ही लक्ष्य था कि मां भारती की रक्षा होनी चाहिए और इसके लिए वह अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तत्पर हैं।
बिना राजा के लोगों ने अपने आप 80000 लोगों की एक विशाल सेना तैयार की । सभी ने यह प्रतिज्ञा ली कि कोई भी व्यक्ति इस सेना में सम्मिलित होने के बदले में किसी प्रकार का वेतन या पुरस्कार नहीं लेगा। जिसको भी कुछ करना है वह नि:स्वार्थ भाव से आकर देश सेवा के लिए अपने आपको समर्पित करे।
देश के लोगों ने राष्ट्रीय सेना का गठन किया और यह राष्ट्रीय सेना भी बिना किसी राजकीय संरक्षण के तैयार की गई । सचमुच ऐसे उदाहरण विश्व इतिहास में अन्यत्र ढूंढने मुश्किल हैं कि जब राजकीय संरक्षण के बिना भी लोगों ने अपनी सेना तैयार की और विदेशी हमलावरों को खदेड़ने के लिए अपने बलिदान दिए । परंतु हमारे देश में ऐसा एक बार नहीं , अनेकों बार हुआ । जो लोग यह कहते हैं कि यहां पर जाति बिरादरी के कारण लोगों में वैमनस्यता रही है , वह इस आदर्श उदाहरण को देख सकते हैं कि उस समय सभी जाति व बिरादरी के लोगों ने अपनी उपस्थिति दर्ज की और देश सेवा के लिए जो भी कुछ बन पड़ा सबने देने का प्रयास किया । राजनीतिक नेतृत्व यदि दुर्बल भी पड़ गया तो भी देश के लोगों को इस बात की चिंता नहीं थी , क्योंकि उनके स्वयं के अंदर भी देशभक्ति का लावा सदा धधकता रहा । 80000 की उपरोक्त सेना की सहायता के लिए 40000 की अतिरिक्त सेना अलग रखी गई , जो किसी भी आपत्ति के समय बुलाई जा सकती थी। यह 40000 अतिरिक्त सैन्य दल महिलाओं का था । जिसकी नेता रामप्यारी गुर्जर थी। जबकि मुख्य सेना के प्रमुख महाबली जोगराज सिंह गुर्जर और उनके सेनापति वीर योद्धा हरवीर सिंह गुलिया थे ।
सेना ने तैमूर लंग से युद्ध के लिए तैयारी पूर्ण रणनीतिक कौशल के साथ की । रामप्यारी गुर्जर ने देश सेवा करते-करते अपना बलिदान देने का मन बनाया। उसने यह सार्वजनिक घोषणा ही कर दी कि वह युद्ध के मैदान में लड़ते-लड़ते अपने प्राण न्योछावर करना ही उचित समझेगी , किसी भी स्थिति में पीछे नहीं हटेगी।
40000 ग्रामीण महिलाओं की सेना को युद्ध विद्या के प्रशिक्षण का दायित्व भी रामप्यारी चौहान गुर्जर को ही प्रदान किया गया। रामप्यारी को उसके इस महान कार्य में सहायता देने के लिए चार ऐसी ही वीरांगनाएं और की नियुक्त की गई थीं । जिनके नाम थे – हरदाई जाट, देवी कौर राजपूत, चंद्रों ब्राह्मण और रामदाई त्यागी । सभी जाति बिरादरी की महिलाओं से बनी इस विशाल सेना का अनुशासन और परस्पर एक दूसरे के प्रति आत्मीयता का भाव बहुत कुछ बयां करता था । कुछ लोग यह समझ लिया करते हैं कि भारत में जौहर की परंपरा नारी जाति की दुर्बलता का प्रतीक है , क्योंकि वह लड़ना नहीं जानती। वास्तव में ऐसा सोचने वाले लोग भारत के इतिहास को और इतिहास के मर्म को नहीं जानते । यहाँ पर ऐसे अनेकों अवसर आए हैं जब वीरांगनाओं ने केसरिया साफा बांधकर शत्रु के छक्के छुड़ाए हैं । इस समय भी ये वीरांगनाएं केसरिया साफा बांधकर ग्रामीण अंचल से निकलकर देश सेवा के लिए एक स्थान पर आकर एकत्र हो गई थीं।

वास्तव में हमारे देश में अखाड़ों का आयोजन करने की परंपरा भी इसीलिए लागू की गई थी कि अखाड़ों में मल्ल युद्ध करने वाले वीर योद्धाओं को देश सेवा के लिए वहीं से ले लिया जाता था । एक प्रकार से यह “केंपस सलेक्शन” था जिस पर समाज के बड़े बुजुर्ग नजर रखा करते थे कि अमुक का लड़का बहुत हट्टा कट्टा नौजवान और देशभक्त है। यदि उस लड़के के माता-पिता की आर्थिक स्थिति दुर्बल होती थी तो ऐसे बड़े बुजुर्ग समाज की ओर से स्वयं उसके खाने-पीने की व्यवस्था करवाते थे । सबका लक्ष्य यही होता था कि इस लड़के को देश के लिए तैयार करो और उधर उसके माता-पिता भी इस बात में अपना गर्व और गौरव अनुभव करते थे कि उनके बच्चे को समाज के लोग देश की सेवा के लिए तैयार कर रहे हैं । सचमुच ऐसी देशभक्ति बहुत ही वंदनीय और अभिनंदनीय है जिसकी उपेक्षा इतिहास के लेखन के समय नहीं करनी चाहिए।
जब हमारे इन देशभक्त योद्धा और वीरांगनाओं को यह जानकारी मिली कि तैमूर लंग दिल्ली से मेरठ की ओर प्रस्थान कर रहा है तो 120000 सैनिकों की यह विशाल सेना मेरठ के उस संभावित स्थान की ओर चल रही जहां इस विदेशी हमलावर से उनका सामना हो सकता था। इस सैन्य दल का नेतृत्व जोगराज सिंह कर रहे थे जिन्होंने अपने सभी सैनिकों का उसी प्रकार मार्गदर्शन किया जिस प्रकार महाभारत के युद्ध के समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश देते समय कहा था कि राष्ट्र की सेवा करते करते और राष्ट्रधर्म निर्वाह करते करते यदि प्राण जाते हैं तो ऐसे वीर योद्धाओं को स्वर्ग प्राप्त होता है। देश की राष्ट्रीय सेना के इस सेनापति के ओजस्वी वक्तव्य को सुनकर हमारे वीर क्रांतिकारियों के खून खौल उठे थे, सबके सब ‘हर हर महादेव’- का नारा लगाते हुए विदेशी हमलावर से लड़ने के लिए चल दिए।
वीरांगना रामप्यारी गुर्जर भी किसी से कम नहीं थी। उसने भी अपने ओजस्वी वक्तव्य से सभी सैनिकों के भीतर ओज और तेज का इस प्रकार संचार किया कि सभी अपने आप को आग का गोला समझने लगे। उसने भी अपने सैनिकों को यह समझा दिया कि देश के लिए मरने के क्षण जीवन में बड़े सौभाग्य से प्राप्त होते हैं । यह दिन जीवन में बार-बार नहीं आता। देश की सेवा ही सबसे बड़ी सेवा है , इसलिए आज अपने सर्वोत्कृष्ट बलिदान के लिए तैयार हो जाओ। सभी सैनिकों ने अपने नेतृत्व में आस्था व्यक्त करते हुए उन्हें यह विश्वास दिलाया कि वे अपने रक्त की अंतिम बूंद के रहने तक विदेशी हमलावर का डटकर सामना करेंगे और किसी भी स्थिति में अपनी इस राष्ट्रीय सेना का अपमान नहीं होने देंगे।
इस सेना का नेतृत्व कर रहे नेताओं की बैठक में यह निर्णय ले लिया गया था कि सभी क्रांतिकारी विदेशी हमलावर से सीधे टक्कर न लेकर छापामार युद्ध का सहारा लेंगे । जिससे कि हमारे सैनिकों की प्राणहानि कम से कम हो और हमलावर की सेना को अधिक से अधिक क्षति पहुंचाई जा सके। शत्रु पक्ष की रसद काटने और छापामार युद्ध के माध्यम से उसके अधिक से अधिक सैनिकों को समाप्त कर जंगल में छुप जाने की रणनीति बहुत अच्छे ढंग से तैयार कर ली गई थी । रामप्यारी गुर्जर ने महिलाओं की एक और टुकड़ी को शत्रु सेना के राशन पर धावा बोलने का निर्देश देकर इस प्रकार के छापामार युद्ध में उन सबकी अपनी – अपनी भूमिका निश्चित कर दीं ।
जब तैमूर लंग दिल्ली से मेरठ चलने की तैयारी कर रहा था तो रात्रि में हमारे इस सैन्य दल के 20000 सैनिकों ने अचानक उसके सैन्य दल पर हमला बोलकर उसकी सेना के लगभग 9000 सैनिकों को काट कर समाप्त कर दिया। इस सारे घटनाक्रम को जिस प्रकार त्वरित गति से अंजाम दिया गया था उसकी कल्पना तैमूर लंग ने भी नहीं की थी । वह कुछ भी नहीं समझ पाया और उसे बहुत बड़ी क्षति पहुंचाकर हमारे क्रांतिकारी योद्धा जंगलों में भाग गए।
लुटेरे और हत्यारे व्यक्ति के पास धैर्य , संयम और गंभीरता नाम की चीज नहीं होती । वह हर स्थिति परिस्थिति का सामना क्रोध और आवेश में करते हैं। उनका मानना होता है कि शायद इसी से शत्रु पक्ष उनसे भयभीत होगा और वह अपने उद्देश्य में सफल हो सकते हैं । सारी वस्तुस्थिति को देखकर तैमूर लंग भी मारे क्रोध के पागल हो गया था । उसने आवेश में निर्णय लिया कि सब मेरठ की ओर कूच करें।
मेरठ की ओर उसकी सेना जब बढ़ी तो हमारे सैन्य दल के क्रांतिकारी गुप्तचरों ने सभी क्रांतिकारी साथियों को पहले ही सूचित कर दिया कि अब सेना मेरठ की ओर आ रही है । फलस्वरूप पहले से ही निर्धारित की गई रणनीति के अंतर्गत सभी लोगों ने अपने – अपने गांव खाली कर जंगलों की ओर पलायन कर दिया । जब क्रोध में फुंकारते हुए तैमूर लंग की सेना उन गांवों की ओर बढ़ रही थी तो वह जिस गांव में भी जाती वहीं पर उसे खाली घरों के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता था । इस स्थिति में तैमूर लंग की सेना की स्थिति बड़ी दयनीय होती जा रही थी। इससे पहले कि तैमूर लंग हमारे क्रांतिकारियों के इस सैन्य दल की कुछ योजनाओं को समझ पाता उसकी सेना पर हमारी राष्ट्रीय सेना के क्रांतिकारी लोगों ने आक्रमण कर दिया। महापंचायत की इस वीर सेना ने शत्रुओं को संभलने का कोई अवसर नहीं दिया । अप्रत्याशित संकट में फंसा हुआ तैमूर कुछ भी नहीं कर सका । दिन में महाबली जोगराज सिंह गुर्जर के लड़ाके उसकी सेना पर आक्रमण करते और उसकी सेना को भरपूर क्षति पहुंचाकर जंगलों में जा छुपते थे । जबकि रात्रि में रामप्यारी गुर्जर और उनकी सदर वीरांगनाएँ उनके शिविरों पर आक्रमण कर देती।
तैमूर लंग और उसकी सेना को नानी याद आ गई थी। अभी कल परसों तक जो तैमूरलंग दिल्ली में बैठा हुआ नरसंहार कर रहा था , अब वह अपने सैनिकों का नरसंहार होता हुआ देख रहा था । उसे भारत के ऐसे शौर्य की अपेक्षा नहीं थी । उसने कल्पना में भी नहीं सोचा था कि गांव के लोग इतना बड़ा सैन्य दल बनाकर उसके इतने विशाल लुटेरे दल का सामना करने का साहस कर पाएंगे । उसने यह भी नहीं सोचा था कि यहां की महिलाएं इतनी मजबूत और साहसी होंगी जो रात्रि में सैनिकों पर हमला करेंगी और हमला भी इतना सटीक करेंगी कि मेरे ही सैनिकों को क्षति पहुंचा कर स्वयं सुरक्षित बच कर भागने में सफल हो जाएंगी।
रामप्यारी की सेना नियमित रूप से तैमूर लंग की सेना को काटती जा रही थी ।तैमूर लंग को बाहर से ना तो रसद मिल रही थी और ना ही सैनिक मिल रहे थे । प्रतिदिन सैनिकों की संख्या घटती देखकर उसका उत्साह ठंडा पड़ता जा रहा था । वह भारत के शौर्य को समझ चुका था ।अब उसे दिल्ली में किए गए अपने अत्याचारों पर पश्चाताप भी हो रहा था , परंतु वह अब कर क्या सकता था ? झुंझलाहट के अतिरिक्त उसके पास कोई उपाय नहीं था। हताश और निराश तैमूर लंग ने अपनी सेना को आदेश दिया कि हरिद्वार की ओर बढ़ा जाए , परंतु यह क्या ? हमारे क्रांतिकारियों ने वहाँ भी अपनी व्यवस्था पहले ही कर रखी थी । जैसे ही वह हरिद्वार पहुंचा तो उसके लिए यहां भी आपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा। हरिद्वार में तो उसकी सेना पर इतना भारी हमला किया गया की तैमूर लंग को मैदान छोड़कर भागना पड़ा।
इसी युद्ध में वीर हरवीर सिंह गुलिया ने अपने पौरुष और शौर्य का परिचय देते हुए इस बार यह निर्णय ले लिया कि तैमूर लंग को ही क्यों ना दोजख की आग में झोंक दिया जाए ? अतः उन्होंने सीधा तैमूर पर हमला बोल दिया और अपने भाले से उसकी छाती छेद दी।
अपने राक्षस दल के नेता तैमूर के साथ ऐसा होते हुए देख कर उसके अंगरक्षक तुरंत हरवीर पर टूट पड़े।
यद्यपि तैमूर लंग के सैनिकों ने हमारे उस महान योद्धा का प्राणान्त कर दिया और हमारा वह महान क्रांतिकारी मां भारती के लिए अपना बलिदान देकर वीरगति को प्राप्त भी हो गया , परंतु जाने से पहले वह उस काम को कर गया जो उसे कर देना चाहिए था अर्थात तैमूरलंग जिस छाती को गर्व से पीट रहा था कि मेरा सामना करने का साहस हिंदुस्तान भर में किसी योद्धा में नहीं है , उसको जाने से पहले हरवीर ने यह आभास करा दिया कि मां भारती की गोद और कोख वीरों से कभी खाली नहीं हो सकती। तैमूर लंग की गर्व से फूली हुई छाती में घुसे हुए हरवीर के भालों ने तैमूरलंग को इस प्रकार घायल किया कि वह जीवन में फिर कभी भारत की ओर पैर करके नहीं सोया।
तैमूर यहां से अपने प्राण बचाकर किसी प्रकार अपने देश के लिए भागने में सफल हुआ , परंतु जब वह अपने देश पहुंचा तो पता चला कि जहां आते समय उसकी सेना लाखों की थी , अब उसके साथ कुछ हजार सैनिक ही वापस अपने देश पहुंच पाए थे।
कहते हैं कि हरवीर के भालों से हुए घावों को तैमूर लंग अपने शेष जीवन में कभी भूल नहीं पाया । क्योंकि यहां से जाने के पश्चात वह इन घावों का उपचार कराता रहा और अन्त में जब 1405 ई0 में वह मरा तो पता चला कि इन भालों के कारण ही उसके शरीर में संक्रमण फैल गया था।
ईरानी इतिहासकार शरीफुद्दीन अली यजीदी द्वारा रचित ‘जफरनामा’ में इस युद्ध का उल्लेख भी किया गया है।
‘सैफ्रन स्वोर्ड्स’ (Saffron Swords: Centuries of Indic Resistance to Invaders) की लेखिका मनोशी सिंह रावल ने अपनी इस पुस्तक में भारत के ऐसे वीर और वीरांगनाओं की 51 कथाएं दी हैं , जिन्होंने विदेशी लुटेरे आक्रमणकारियों का सामना कर उन्हें भारत के शौर्य से परिचय कराया था । उसमें भी रामप्यारी गुर्जर और हरवीर सिंह की इस रोमांचकारी कहानी का उल्लेख किया गया है।
सचमुच रामप्यारी गुर्जर , जोगराज सिंह , हरवीर सिंह उनके सभी साथी, महापंचायत में सम्मिलित होने वाले सभी क्रांतिकारी योद्धा और सारे सैन्यदल के सैनिकों के प्रति यह राष्ट्र सदैव कृतज्ञ रहेगा । जिनके बलिदानों का कोई मोल नहीं था ।अनमोल बलिदानों के लिए श्रद्धांजलि के लिए भी कोई शब्द नहीं।
ऐसी कहानियों को पढ़कर पता चलता है कि हमारे देश के लोगों ने कभी भी विदेशियों के अत्याचारों को सिर नीचा करके सहन नहीं किया था , बल्कि अत्यंत विषम परिस्थितियों में अपने शौर्य और पराक्रम का परिचय देते हुए अपने सर्वोत्कृष्ट बलिदान दे देकर मां भारती की सेवा कर वैदिक धर्म की रक्षा की । जिनके कारण आज हम सब वैदिक संस्कृति के ध्वजवाहक बनकर बड़े गर्व और गौरव के साथ आगे बढ़ रहे हैं।

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