क्या है तीर्थ की वैदिक और वैज्ञानिक परिभाषा ?
जितने विद्या अभ्यास सुविचार ईश्वर उपासना धर्म अनुष्ठान सत्य का संग ब्रह्मचर्य जितेंद्रतादि उत्तम कर्म है वह सब तीर्थ कहाते हैं। क्योंकि इन करके जीव दुख सागर से तर सकते हैं
नमः पार्याय चावार्याय च नमःप्रतरणाय चोत्तरणाय च। नमः तीर्थ्याय च कुलयाय च नमः शष्प्याय च फेन्याय च।।यजु•16/42
यजुर्वेद के इस मंत्र का भाष्य लिखते हुए महर्षि दयानंद सरस्वती ने नमः तीर्थर्थ्याय च अर्थात् तीर्थेषु वेद विद्या अध्यापकेषु सत्य भाषण आदिषु च साध्वे( नमः )अन्नं देयम्। अर्थात् वेद विद्या के पढ़ाने वालों और सत्य भाषण आदि कामों में प्रवीण विद्वानों को अन्न देवें,धन देवे।
पौराणिक लोगों ने जल और स्थल दो प्रकार के तीर्थ माने हैं। किसी ने स्नान को किसी ने दर्शन को किसी ने स्पर्शन को तीर्थ माना। सात पुरियों के दर्शन, स्पर्शन,और स्मरण को तीर्थ माना।
तीर्थ का अर्थ है तराने वाला पार कराने वाला पुल आदि अर्थात जो हमें सत्य ज्ञान द्वारा इस भवसागर से पार करावे उन महान पुरुषों को विद्वानों को भी तीर्थ कहा जाता है महर्षि दयानंद सरस्वती ने भारत देश के नागरिकों की नब्ज देखी तो उन्हें सात की संख्या में मुख्य पाया सात नदिया तो साथ ही पूरियां अतः ऋषि ने सात ही तीर्थ गिनाए जैसे पौराणिको सात स्थान तीर्थ के रूप में माने हैं और सात नदियां तीर्थ के रूप में मानी है ।
१•विद्या अभ्यास– महर्षि दयानंद जी ने विद्या का पढ़ना पढ़ाना बड़ा भारी तीर्थ माना है यदि किसी व्यक्ति ने इस विद्या तीर्थ में स्नान नहीं किया तो वह दुनिया में कुछ भी नहीं कर सकता क्योंकि वेद कहता है। सा विद्या या विमुक्तये– विद्या वही है जो मानव को बंधनों से मुक्त करा देवे।
और भी कहा है उत्तम विद्या लीजिए, यद्यपि नीच पै होय ।
परो अपावन ठौर मे, कंचन तजत न कोय।।
२•सुविचार- महर्षि दयानंद जी ने दूसरा तीर्थ सुविचार को लिखा है विचार का जीवन में बहुत महत्व होता है ।परंतु सुविचार का और भी अत्यधिक महत्व होता है इसीलिए कहा भी है कि –
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम उदार चरितानामं तु वसुधैव कुटुंबकम्।।
उदार क्
उदारचेता सुविचारक वसुधा मात्र को अपना कुटुंब बना लेता है। लोग दुनिया मैं घर बनाते हैं और कहते हैं यह मेरा
घर है यह अमूक का घर है ,किन्तु सुविचारक तो इन सभी घरों का एक बड़ा घर बनाता है।
३•ईश्वरोपासना- तीसरा तीर्थ है ईश्वर उपासना ईश्वर की उपासना करना ईश्वर के पास बैठना ईश्वर के पास वही बैठ सकता है जो अधिकारी को आन अधिकारी ईश्वर के पास कैसे बैठ जाएगा हम कैसे ईश्वर की उपासना करें इसके लिए योग दर्शन का महर्षि पतंजलि कहते हैं क्लेश कर्म विपाक आसाराम पुरुष विशेष ईश्वर विद्या आदि क्लेश कुशल अकुशल इष्ट अनिष्ट और मिश्र कर्मों की वासना से रहित है वह सब जीवो से विशेष फर्क आता है वही उपासना की योग्य है दुनिया वालों ने कमाल किया हुआ है कि जो ईश्वर सकल जगत का रचीयता है उस सकल चराचर जगत का कर्ता धरता सुंदरता और जीवो को यथा योग्य फल प्रदाता है उस ईश्वर का लोगों ने निर्माण कर डाला और ईश्वर का निर्माण करके भी शांति ने प्राप्त कर सके सर्वप्रथम ईश्वर का स्वरूप जानना चाहिए फिर स्वभाव तथा गुण पश्चात कर्म जानने चाहिए ।किन्तु जाने बिना उपासना नहीं हो सकती ,अतःभव सागर से पार जाने के लिए ईश्वर की उपासना आवश्यक है।
४•धर्मानुष्ठान– धर्म का अनुष्ठान चौथा तीर्थ है धर्म का अनुष्ठान वही मानव कर पाता है जो ईश्वर उपासक हो धर्म जो ईश्वर की सार्वभौमिक सर्वतन्त्र मौलिक व्यवस्थाएं शाश्वत एवं सनातन सत्य है ,उन सभी का पालन करना मन ,वचन, कर्म से धर्मानुष्ठान कहाता है। धर्म के बारे में कहा भी है –
धर्म स्तमनुगच्छति । धर्म ही जीवात्मा के साथ जाता है अन्य कुछ भी नहीं यतः- मृतंशरीरमुत्सृज्य, काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ। विमुखा: बांधवा: यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति।।
सभी बंधु बांधव संबंधी मित्र प्रियजन आदि मृतक शरीर को काष्ट और मिट्टी के समान भूमि पर छोड़ अपनी प्रथाओं के अनुसार दाह क्रिया आदि अंतिम कर्म करके वापस चले आते हैं केवल जीवन भर किया गया धर्म अनुष्ठान ही साथ जाता है।
५•सत्य का संग- ममहर्षि ने पांचवा तीर्थ रखा है। धर्म अनुष्ठान करने से हृदय ,मन ,मस्तिष्क और शरीर भी सत्य से संबंधित हो जाता है । मानव स्वयं कह उठता है –इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि। मै आज अनृत-असत्य, मिथ्या ,अविद्यादि अंधविश्वासों से ऊपर उठकर तत्व को प्राप्त करता हूं ,क्योंकि सत्य ही सर्वाधार है ।अतः मेरा आधार है ।मैं सत्य से आधारित है और मैं ही सत्य को धारण करता हूं यह पांचवा सत्य का संग नामक तीर्थ मानव को –सत्यं वै देवा: के आधार पर देवता बना देता है देव कोटि में पहुंचा देता है ऋषि कोटि मे पहुंचा देता है
सत्यमेव जयते नाऽनृतम्।
६•ब्रह्मचर्य– ब्रह्मचारी अपने आश्रम में रहकर जिन व्रतों का पालन करके उपलब्धि कर पाता है ब्रह्मचर्य कहाता है ।ब्रह्मचारी शब्द के तीन अर्थ है ब्रह्म- परमात्मा ,ब्रह्म -वेद ज्ञान ,ब्रह्म- ब्रह्मांड तीनों का संगति करण इस प्रकार है जो परमात्मा प्रदत वेद ज्ञान के द्वारा अखिल ब्रह्मांड अथवा लोक- लोकान्तरो की अथवा चराचर जगत् की जानकारी करता है ,वह ब्रह्मचारी और उसका यह समस्त कर्तव्य कर्म ब्रह्मचर्य कहाता है। वेद ने इस समस्त सार को यू लिखा है –ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं विरक्षति ।
ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम् ।
ब्रह्मचर्येण तपसा देवामृत्युपाघ्नत।अथर्व•११/५/१७-१९
ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़ कर के और सत्य धर्मानुष्ठान से राजा राज करने को समर्थ होता है।
कन्या जब ब्रह्मचर्य आश्रम से पूर्ण विद्या पढ़ चुके तब अपनी युवावस्था में पूर्ण जवान पुरुष को अपना पति करें ।
ब्रह्मचर्य और धर्मानुष्ठान से ही विद्वान लोग जन्म मरण को जीतकर मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।
७•जितेन्द्रियता– यह सातवां तीर्थ है। इंद्रियों पर विजय प्राप्त करना दो प्रकार का वर्ग है । प्रथम तो वह जो इंद्रियों को जीत लेता है दूसरा वह जिसे इंद्रियां जीत लेती हैं। एक तो जितेंद्र और दूसरा इंद्रजीत् अर्थात इंद्रियों पर विजय प्राप्त करना यह सातवां तीर्थ है ।उपनिषद् मे इंद्रियों को घोड़े कहकर पुकारा है- इंद्रायाणि हयानाहु: विषयान् तेषु गोचरान्। इंडिया घोड़े हैं और इंद्रियों के विषय में इंद्रियों के गोचर अर्थात उनके मुख्य पदार्थ हैं। घोड़ों को काबू करने का कार्य बहुत संभव नहीं है।
जना: यैस्तरन्ति तानि तीर्थानि।
मनुष्य जिन करके दुखों से तरे उनका नाम तीर्थ है जलस्थल तराने वाले नहीं किंतु डुबोकर मारने वाले हैं प्रत्यूत नौका आदि का नाम तीर्थ हो सकता है क्योंकि उससे समुद्र आदि को तरते हैं। महर्षि दयानंद जी कहते हैं कि काशी ,मथुरा ,अवंतिका, गंगा, आदि तीर्थों पर जाकर के मनुष्य तरे या ना तरे परंतु विद्यादि तीर्थों में स्नान करने वाला मनुष्यअवश्य ही तरता है।
आचार्य करणसिह नोएडा
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