इस्लामोफोबिया और पश्चिमी मीडिया के कुचक्रों के बावजूद कोरोना से जीतेगा भारत
साभार |
रामचरितमानस का एक वृतांत है। राम और रावण का युद्ध चल रहा है। मेघनाद, कुंभकरण, अहिरावण सहित रावण के सभी प्रमुख योद्धा मारे जा चुके हैं। राक्षस सेना काफी कम हो चुकी है। दशानन तकरीबन अकेला है। तुलसीदास जी लिखते हैं कि रावण उस समय सोचता है कि मैं अब अकेला पड़ गया हूँ तो मुझे कुछ कोई और खेल खेलना पड़ेगा:
रावन हृदयँ बिचारा भा निसिचर संघार। मैं अकेल कपि भालु बहु माया करौं अपार॥
यानी हार नज़दीक जानकर रावण, युद्ध में उस समय माया यानि भ्रम की स्थिति पैदा करता है। अपनी सिद्धियों के जरिए वह झूठमूठ के अनेक रावण युद्ध के मैदान में पैदा कर देता है। इससे वानर-भालू सेना में दृष्टिभ्रम पैदा हो जाता है। अनेक रावण मैदान में देखकर राम की सेना ही नहीं, आकाश स्थित देवता भी परेशान हो जाते हैं। राम को सबसे पहले इस माया को खत्म करना पड़ता है। और तभी रावण का अंत हो पाता है।
यह पौराणिक गाथा एक सांकेतिक स्थिति का वर्णन करती है। जीवन के तकरीबन हर मोर्चे की यही स्थिति है। युद्ध में भ्रम की स्थिति पैदा करना शत्रु की रणनीति का हिस्सा होता है। इसका उद्देश्य होता है विपक्षियों के मन में संदेह पैदा करके बच निकलने का रास्ता ढूँढ़ना।
आज के सन्दर्भ में देखें तो इस समय दुनिया में दो युद्ध चल रहे हैं। एक महायुद्ध है मानवता और कोरोना के बीच का। इस भयानक युद्ध में अब तक दो लाख 28 हजार से ज्यादा इंसान मारे जा चुके हैं। 32 लाख से ज्यादा मनुष्य इससे संक्रमित हो चुके हैं। ये संक्रमण देश की सीमाएँ नहीं जानता और न ही ये मजहब की दीवारों को पहचानता है। मगर इस मौके का फायदा उठाकर कुछ लोग एक और युद्ध में विजय पाना चाहते हैं और वह है भारत में चल रहा नैरेटिव का युद्ध। नैरेटिव यानी कथ्य की इस लड़ाई में अब एक भ्रम पैदा करने की कोशिश हो रही है। वह है इस्लामोफोबिया का भूत।
एक तरफ देश कोरोना के साथ युद्ध में प्राणप्रण के साथ लगा हुआ है। वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग, जिसमें मीडिया का एक वर्ग भी शामिल है, इसे बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की लड़ाई में परिवर्तित करना चाहता है। ऐसा भ्रम फैलाने के पीछे उसका उद्देश्य है कि कोरोना के साथ जो युद्ध चल रहा है उससे देश का ध्यान भटक जाए। अब तक जो आंशिक सफलता देश ने कोरोना महामारी के विरुद्ध हासिल की है वह तिरोहित हो जाए।
ये विश्वव्यापी महामारी है जो तथाकथित विकसित देशों में अधिक विकराल रूप में फैली है। इससे मरने वाले की तादाद अब (30 अप्रैल) तक अमेरिका में 61670, इटली में 27682, फ्रांस में 24087, ब्रिटेन में 26097 और स्पेन में 24275 हो चुकी है। भारत में अभी तक इस बीमारी से अपेक्षाकृत कम नुकसान हुआ है। इसका श्रेय भारत की आम जनता के त्याग एवं निश्चय, सरकार की तत्परता, प्रधानमंत्री मोदी का लोगों से सीधा संवाद और हमारी गहरी सामाजिक विरासत को जाता है।
संभवत: यही बात कुछ तत्वों को पच नहीं रही। खासकर, पश्चिमी मीडिया के एक बड़े वर्ग और उनके यहाँ के प्रतिनिधियों को ये शायद असहज लग रहा है। संभवतः उन्हें अपेक्षित था कि यहाँ पश्चिमी देशों से ज़्यादा कहर मचे। इस वर्ग की नीयत पर संदेह की बात अगर हम छोड़ भी दें, तो ये वर्ग एक खास रंग के चश्मे से भारत को देखता आया है। ये भारत को एक अशिक्षित, गरीब, अविकसित, पिछडे, गंदगी से भरे, अस्वस्थ, गैर-अनुशासित और विभाजित मानसिकता वाले देश के रूप देखते आए हैं। शताब्दियों से भारत का चित्रण इसी नजरिए से होता रहा है।
भारतीय समाज की आंतरिक आध्यात्मिक शक्ति, जिजीविषा और उसकी विरासत की मजबूती आज तक ये लोग देख ही नहीं पाए हैं। इसीलिए पश्चिमी मीडिया और उस जैसी सोच रखने वाले अन्य लोग ये समझ नहीं पा रहे कि इस देश में कोरोना ने अभी तक मौत का तांडव क्यों नहीं मचाया?
इसी नासमझी के कारण शायद तबलीगी जमात के मामले को लेकर अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में एक के बाद एक समाचार आए हैं कि भारत में मुसलमानों को प्रताड़ित किया जा रहा है। कुछ लोग तो यहाँ तक कह रहे हैं कि भारत में मुसलमान होना पाप हो गया है। वे इक्का-दुक्का घटना को लेकर यह प्रचारित कर रहे है कि भारत में मजहब के आधार पर इलाज किया जा रहा है। अक्सर लिखने वाले अपने लेखों में ना तो कोई ठोस सबूत देते हैं न ही कोई सटीक उदाहरण ही प्रस्तुत करते हैं। बल्कि कुछ एकाकी घटनाओं को बेतरतीब तरीके से आपस में जोड़कर यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि भारत में अब इस्लामोफोबिया है। इन असंगत घटनाओं का उपयोग वे सिर्फ अपने पूर्व निर्धारित वैचारिक आग्रहों को सिद्ध करने के लिए ही इस्तेमाल कर रहे हैं।
कुछ रिपोर्ट्स का उल्लेख करना यहाँ ठीक रहेगा;
भारत में मुसलमान होना तो अपराध था ही, उसपर ये कोरोना आ गया (It Was Already Dangerous to Be Muslim in India. Then Came the Coronavirus) यह प्रतिष्ठित टाइम मैगज़ीन में 3 अप्रैल को छपे लेख का शीर्षक है। इस शीर्षक को पढ़ने के बाद इसकी निष्पक्षता के बारे में क्या कहा जा सकता है?
13 अप्रैल के ‘द गार्डियन’ में लिखा गया कि “कोरोना वायरस के पीछे मुसलमानो के षड्यंत्र की कहानियाँ उन्हें निशाना बनाकर देश भर में फैलाई जा रही हैं” (Coronavirus conspiracy theories targeting Muslims spread in India)
पत्रिका ‘फॉरेन पॉलिसी‘ के 22 अप्रैल के अंक की एक रिपोर्ट कहती है- भारत कोरोना फ़ैलाने के लिए मुसलमानों को बलि का बकरा बना रहा है (India Is Scapegoating Muslims for the Spread of the Coronavirus)
टेलीग्राफ नेपाल के 22 अप्रैल के ई-अंक में “भारत में मुसलमानो का नरसंहार” शीर्षक से एक लेख छपा है।
अल जजीरा की 25 अप्रैल की खबर में तो भारत के पूरे लॉकडाउन को ही इस्लामोफोबिया का प्रतीक बता दिया गया। इस खबर का शीर्षक था ‘भारत का लॉकडाउन: असमानता और इस्लामोफोबिया की एक गाथा’ (India’s lockdown: Narratives of inequality and Islamophobia)
इस तरह के अनेकानेक समाचार, लेख, सम्पादकीय और टिप्पणियाँ दुनिया के कई बड़े प्रकाशनों में पिछले कोई एक महीने में लगातार आए हैं। इन्हें गढ़ने वाले कई ऐसे पत्रकार और लेखक हैं जिन्हें ख़बरों की दुनिया में ‘बड़ा’ माना जाता है। इनमें से अधिसंख्य अपनी ये रिपोर्ट लिखने से पहले ज़मीन पर नहीं उतरे। किंवदंतियों, अर्धसत्यों, व्हाट्सएप्प संदेशों (जिनमें कई फेक भी निकले), पूर्वाग्रह से ग्रसित आलेखों, एकतरफा विचारों और मान्यताओं के आधार पर इन्होंने खबरों की आड़ में बस एक नजरिया दुनिया को परोस दिया। निष्पक्षता का तकाज़ा था कि ये अपने विचारों और अभिमतों को इतना एकतरफा नहीं बनाते।
ये सही है कि मार्च और अप्रैल के महीनों में तबलीगी मरकज के कारण देश में कोरोना के मामलों में वृद्धि हुई। तबलीगी जमात के रहनुमाओं ने अपनी मूर्खता, ज़िद तथा अंधविश्वास के कारण सबसे पहले तो अपने अनुयायियों की जिंदगी को खतरे में डाला। आगे कई प्रदेशों में कोरोना का संक्रमण उनके कारण गया। इस कारण तबलीगी जमात लोगों के निशाने पर आ गई। ऐसा अस्वाभविक भी नहीं था। कई लोगों ने तबलीगियों और आम मुसलमानों में भी घालमेल किया।
पत्रकारीय दायित्व का तकाज़ा था कि ये प्रतिष्ठित प्रकाशन बताते कि तबलीगी जमात सारे मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करती। कट्टरता और पुरातनपंथ से ग्रसित तबलीगी जमात, इस्लाम का एक पंथ मात्र है। तबलीगियों ने सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पाकिस्तान, मलेशिया, इंडोनेशिया तथा अन्य कई देशों में भी कोरोना को फैलाने में भूमिका निभाई। ऐसा करने वाले तबलीगी अकेले मजहबी या पंथिक लोग नहीं थे। अमेरिका में यह काम बाइबल बेल्ट के अंदर रूढ़िवादी चर्च के लोगों ने किया। दक्षिण कोरिया में यह काम चिनशियोजी चर्च के लोगों ने किया। तो फिर तबलीगी मुसलमानों के एक प्रकरण को लेकर पूरे भारत में इस्लामोफोबिया का भूत खड़ा करना कितना सही है?
ऐसा ही नहीं हुआ, बल्कि इस्लामोफोबिया का भूत खड़ा करने के लिए भारत विरोधी निहित स्वार्थी तत्वों ने झूठ और फरेब का एक जाल भी खड़ा किया। खाड़ी के देशों से कई फेक और जाली एकाउंट से सोशल मीडिया पर एक अभियान चलाया गया। ओमान और सऊदी अरब के राजघरानों से सम्बंधित प्रतिष्ठित लोगों के नाम से भी जाली एकाउंट बनाकर भड़काऊ ट्वीट किए गए। इनमें से कई ट्विटर एकाउंट भारत के चिर-विरोधी पाकिस्तान से निकले। भारत में मजहबी फसाद फैलाना तो पाकिस्तान की नीति का अभिन्न हिस्सा है ही।
पत्रकारिता के मानदंड तो कहते हैं कि इस एकतरफा प्रचार की पड़ताल की जाती। पर ऐसा नहीं हुआ। बिना जाँच के मीडिया के इस वर्ग ने इस प्रचार को तथ्य बतलाकर दुनिया को परोस दिया। असल में दिक्कत तब होती है जब आप घटनाओं को देखने के लिए एक खास चश्मा तय कर लेते हैं। फिर आपको सत्य नजर नहीं आता। इसलिए कोरोना से संबंधित उद्धृत इन खबरों में एक खास बनावट आप देख सकते है। तकरीबन इन सबमें पहले तबलीगी जमात का उल्लेख होता है। फिर लेखक दिल्ली के दंगों को इनसे जोड़ता है।
इस तार्किक उछल-कूद में मोदी सरकार का जिक्र होना तो स्वाभाविक है ही। जब मोदी का नाम आया तो फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कैसे छूट सकता है? आरएसएस यानी हिन्दू। और हिन्दू का तात्पर्य सीधे मुस्लिम विरोधी होना। इसे तर्क़ कहें या कुतर्क- पर यही ताना-बाना हर घटनाक्रम पर फिट कर दिया जाता है। घटनाओं के तथ्यपरक, निरपेक्ष और और समग्र विश्लेषण की बजाय वे अपने पूर्वाग्रह को साबित करने के लिए बस घटनाओं का इस्तेमाल करते हैं। वे अपने नजरिए को, जो कि भारत को हिंदू-मुसलमान की दृष्टि से देखता है कोरोना के घटनाक्रम पर भी लागू करना चाहते हैं।
कोरोना के खिलाफ लड़ाई एक लम्बी लड़ाई है। ये तय है कि मानवता के साथ-साथ भारत भी इस लड़ाई को जीत ही लेगा। पर नैरेटिव और कथ्य की लड़ाई में, भारत को एक खास नजरिए से देखने वाले लोग, अपने को ठगा हुआ और परास्त महसूस कर रहे हैं। अपनी ही सोच के जाल में फँसा हुआ यह वर्ग इसे अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहता। दलदल में फँसा हुआ व्यक्ति जिस तरह ज़्यादा हाथ-पाँव मारकर अपने को और गहरा डूबा लेता है। ये लोग भी अपने वैचारिक आग्रह में उसी तरह डूबे हुए हैं।
बहुत सुविधा के साथ वे कई तथ्यों को पूरी तरह अनदेखा करते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉक्टर मोहन भागवत ने 26 अप्रैल के अपने भाषण में कहा कि देश के 130 भारतीय बिना किसी भेद के अपने ही हैं। एक घटना का इस्तेमाल करके सभी मुसलमानों को दोष देना सही नहीं है। यही बात कमोबेश पिछले अक्टूबर में सार्वजनिक भाषणों में भी उन्होंने कही थी। पर शायद यह बात इन तथाकथित निष्पक्ष पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के कथ्य में फिट नहीं बैठती इसलिए इनकी यह अनदेखी करते हैं।
जिस तरीके से राम-रावण युद्ध में माया फैलाई गई थी, ये भी संदेह पैदा करके लोगों को दिग्भ्रमित करना चाहते हैं। मगर कोरोना के साथ लड़ाई से हम लोगों का ध्यान हटना नहीं चाहिए। जैसा कि प्रधानमंत्री ने कहा था ‘सावधानी हटी तो दुर्घटना घटी’ इसलिए सभी भारत प्रेमी लोगों को इस बात का ध्यान रखना है कि कोरोना के साथ इस लड़ाई को मजहब आधारित भेदभाव में तब्दील ना होने दें।