मोदी के माथे पर जनता का जनादेश
सिद्धार्थ शंकर गौतम
गुजरात में नरेन्द्र मोदी की रिकॉर्ड तीसरी बार मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी ने भारतीय जनता पार्टी में भावी प्रधानमंत्री पद हेतु उनकी दावेदारी को कहीं अधिक मजबूत कर दिया है। 2009 में 117 सीटों पर परचम फहराने वाली भाजपा ने इस बार मोदी फैक्टर के दम पर 122 सीटें जीतने में कामयाबी हासिल की है। 2007 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले भाजपा का वोट प्रतिशत 3 फीसद बढ़ा है वहीं 2009 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले भाजपा के वोट प्रतिशत 5 फीसद की बढोतरी हुई है। हालांकि गुजरात में हुए रिकॉर्डतोड़ मतदान के बाद यह माना जा रहा था कि मोदी के खिलाफ एंटीइनकम्बेंसी की लहर चलेगी जिसका फायदा या तो कांग्रेस को या केशूभाई पटेल की गुजरात परिवर्तन पार्टी को मिलेगा किन्तु भारी जनादेश का फायदा सीधे-सीधे मोदी के खाते में गया है। 1985 में कांग्रेस के माधवसिंह सोलंकी के खाम फैक्टर पर चुनाव लडऩे की नीति अपनाने का भी मोदी को फायदा मिला है। गुजरात की 24 विधानसभा सीटों पर लेउआ पटेल समुदाय का बाहुल्य है जिसमें से 17 सीटें भाजपा, 05 सीटें कांग्रेस तो 2 सीटें अन्य के खाते में गई हैं। लेउआ पटेल को केशूभाई की ताकत के तौर पर देखा जाता रहा है और ऐसी उम्मीद भी जताई जा रही थी कि यह समुदाय अपने पुराने कद्दावर नेता का साथ देगा किन्तु इससे उलट लेउआ पटेलों ने भाजपा का साथ देते हुए केशूभाई को आइना दिखा दिया। इसी तरह कडवा पटेल बाहुल्य 10 सीटों पर भी भाजपा के खाते में 08 सीटें आई हैं जबकि कांग्रेस को मात्र 02 सीटों से संतोष करना पड़ा है। इन दो समुदायों के अलावा आदिवासी बाहुल्य 26 सीटों में से 12 सीटें भाजपा तो 13 सीटें कांग्रेस के खाते में आई हैं जबकि अन्य को मात्र एक सीट से संतोष करना पड़ा है। गुजरात विधानसभा चुनाव के जनादेश पर प्रतिक्रिया देते हुए तमाम नेताओं ने मोदी पर मुस्लिमों की अनदेखी का आरोप लगाया है। उनका कहना है कि गुजरात में मुस्लिम समुदाय के एक भी प्रत्याशी को इस लायक नहीं समझा गया कि वह भाजपा की टिकट पर चुनाव जीत सके। उनके अनुसार मुस्लिमों की राजनीतिक मजबूरी है मोदी का साथ देना। जबकि आंकडें इससे उलट कहानी बयान कर रहे हैं। गुजरात की 19 मुस्लिम बाहुल्य सीटों में से 12 पर भगवा कमल खिला है जबकि कांग्रेस के खाते में मात्र 07 सीटें आई हैं। फिर किसी प्रत्याशी को टिकट देना या नहीं पार्टी का अंदरूनी मामला होता है इस पर बवाल मचाने की आवश्यकता ही नहीं है। आखिर हिमाचल में कांग्रेस ने कितने मुस्लिम प्रत्याशी उतारे? 2010 में गुजरात में हुए स्थानीय चुनाव में भाजपा ने रिकॉर्ड 200 मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट दिए थे जो किसी भी राजनीतिक दल के मुस्लिम प्रत्याशियों की संख्या से अधिक हैं।
दरअसल मोदी की जीत पर मुस्लिम फैक्टर का उठना अनायास ही नहीं है। चूंकि राष्ट्रीय राजनीति में मोदी का कद बढऩा तय है और केंद्र की राजनीति में मुस्लिम समुदाय एक अहम भूमिका निभाता है लिहाजा विपक्षी राजनीतिक दलों के मध्य यह सुनहरा अवसर है कि वे अभी से मोदी-मुस्लिम विवाद को हवा दें ताकि आम चुनाव तक यह मुद्दा और भड़क सके। हालांकि जीत जीत होती है और उसपर बहस करना अपरिपक्वता ही है तथापि मोदी-मुस्लिम फैक्टर को अनावश्यक तूल देकर भाजपा में संशय के बीज बोये जा रहे हैं। दरअसल मोदी की जीत पर मुस्लिम फैक्टर का उठना अनायास ही नहीं है। चूंकि राष्ट्रीय राजनीति में मोदी का कद बढऩा तय है और केंद्र की राजनीति में मुस्लिम समुदाय एक अहम भूमिका निभाता है लिहाजा विपक्षी राजनीतिक दलों के मध्य यह सुनहरा अवसर है कि वे अभी से मोदी-मुस्लिम विवाद को हवा दें ताकि आम चुनाव तक यह मुद्दा और भड़क सके।
हालांकि जीत जीत होती है और उसपर बहस करना अपरिपक्वता ही है तथापि मोदी-मुस्लिम फैक्टर को अनावश्यक तूल देकर भाजपा में संशय के बीज बोये जा रहे हैं। चूंकि कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी की अगुवाई में 2014 का आम चुनाव लड़ा जाना लगभग तय है अत: मोदी की संभावित भूमिका को अभी से संदेहास्पद बनाने की चेष्टा की जा रही है। एक आम मुस्लिम के लिए वर्तमान में कांग्रेस या भाजपा मायने नहीं रखती। उनकी खुद की समस्याएं है और उसी अनुपात में आवश्यकताएं भी हैं। फिर मुस्लिम समुदाय भी अब यह समझ चुका है कि तमाम राजनीतिक दलों ने उनके एकमुश्त वोट बैंक को बतौर चुनावी जीत हासिल करने का माध्यम ही माना है। लिहाजा मुस्लिम समुदाय भी अब उसी को वोट देता है जो विकास को राजनीति से परे रखते हुए उनके लिए भी सोचे। और कोई माने या न माने; गुजरात के मुस्लिम समुदाय में मोदी को लेकर कोई संदेह नहीं है। यदि संदेह की स्थिति होती तो मोदी को मुस्लिम समुदाय के वोटों से महरूम रहना पड़ता। लिहाजा यह आरोप या बहस बेबुनियाद है कि मोदी-मुस्लिम वैमनस्यता के चलते मोदी की राष्ट्रीय राजनीति में स्वीकार्यता कम हो सकती है। मुस्लिम समुदाय अब राजनीतिक दलों की वोट कटवा नीति को न ढोते हुए खुद स्वविवेक से निर्णय ले रहा है और शायद इसकी झलक गुजरात में आंशिक रूप से सही मगर देखने को मिली है।