मंदिर के कपाट बंद होने से भगवान बंद नहीं होते

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आजकल एक वाक्य अधिक सुनने को मिल रहा है – “इस समय भगवान् के भी दरवाजे बन्द हैं।”
भारतीय संस्कृति की समझ रखने वाला व्यक्ति ऐसा नहीं कह सकता। सूर्य, चन्द्रमा आदि ब्रह्माण्ड के अन्य पिण्डों की तो बात छोड़ दीजिए, भारत में वृक्ष, लता,वनस्पति एवं जन्तुओं की भी पूजा होती है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि हम कण-कण में परमात्मा का दर्शन करते हैं।इस जीवन-दर्शन को निम्नलिखित कहानी से समझा जा सकता है –
“एक महात्मा ने अपने एक शिष्य को उपदेश दिया – ‘हममें तुममें खड्ग खंभ में घट-घट व्यापे राम’।भगवान् कण-कण में व्याप्त हैं।’
शिष्य अपने गुरु का ऐसा उपदेश सुनने के पश्चात् भिक्षा हेतु समीप स्थित गाँव के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में आगे से एक पागल हाथी आ रहा था। हाथी के पीछे से महावत जोर-जोर से चिल्ला रहा था – ‘महात्मा जी! हट जाइए। हाथी पागल हो गया है। आपको मार डालेगा।’
शिष्य को अपने गुरु का उपदेश याद आया। उसने महावत से कहा – ‘सृष्टि के कण-कण में भगवान् हैं। अतः हाथी में भी भगवान् हैं और मुझमें भी भगवान् हैं। भगवान् भगवान् को कहीं मारता है भला?’
शिष्य के उत्तरवाक्य की पूर्णता के साथ ही हाथी भी शिष्य के समीप पहुँच चुका था। उसने शिष्य को शुण्ड में लपेटकर एक चट्टान पर फेंक दिया। शिष्य के प्राण तो बच गये, लेकिन चोट बहुत लगी। शिष्य वहीं से अपने गुरुदेव को बुरा-भला कहते हुए अपने गुरुदेव के पास पहुंचा। शिष्य ने गुरुदेव से कहा – ‘आपके उपदेश को जीवन में उतारने के कारण आज मै घायल हो गया। प्राण बच गए वही बहुत है।’
महात्मा ने अपने शिष्य से पूछा – ‘तुम्हारी यह दशा कैसे हुई?’
शिष्य ने कहा – ‘एक महावत हाथी के पीछे से चिल्ला रहा था कि हट जाइए महात्मन् ! हाथी पागल है, मार डालेगा। मैने कहा कि हाथी में भी भगवान् हैं और मुझमें भी भगवान् हैं। भगवान् भगवान् को क्यों मारेगा? तभी हाथी समीप आकर शुण्ड में लपेटकर मुझे एक चट्टान पर फेंक दिया।’
गुरुदेव ने शिष्य को समझाया – ‘महावत में भी तो भगवान् थे, जो तुम्हें रास्ते से हटने के लिए कह रहे थे। तुमने एक भगवान् की बात नहीं मानी तो दूसरे भगवान् ने तुम्हें उठाकर पटक दिया।”
(मैने अपने पूज्य गुरुदेव के मुखारविन्द से इस कथा का श्रवण किया था)
मन्दिर का कपाट बन्द होने से मूढ़ व्यक्ति परमात्मा को कपाट के अन्दर बन्द समझता है। हस्तामलकाचार्य का कथन है –
“घनच्छन्नदृष्टिर्घनच्छन्नमर्कं
यथा मन्यते निष्प्रभं चातिमूढः।
तथा बद्धवद्भाति यो मूढदृष्टेः
स नित्योपलब्धिस्वरूपोsहमात्मा।।”
मूढ़ व्यक्ति की दृष्टि मेघाच्छन्न हो जाने पर, उसे अनेक योजन विस्तृत सूर्यमण्डल मेघाच्छादित प्रतीत होता है।मूढ़ व्यक्ति को अपने दृष्टिपथ के मेघाच्छन्न होने का भान नहीं होता, लेकिन सदैव देदीप्यमान रहने वाले सूर्य को वह प्रभाहीन अवश्य मान लेता है।
यदि दृष्टि सही हो तो पूरी सृष्टि में परमात्मा का दर्शन होगा। प्रह्लाद की दृष्टि सही थी तो भगवान् खंभा से प्रकट हो गये। दृष्टि सही करने का एकमात्र उपाय है – ब्रह्मनिष्ठ गुरु का सान्निध्य।दिन में नेत्र बन्द कर लेने से रात्रि नहीं हो जाती।अतः जिज्ञासा होने पर योग्य गुरु के शरण में जाना चाहिए। चक्षुरुन्मिलन का कार्य गुरु ही करता है।
मुण्डकोपनिषद् का निम्नलिखित वचन सदैव याद रखना चाहिए –
“तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्। ” (मुण्डकोपनिषद्, १/२/१२)
।। इति।।
©बबुआ नारायण मिश्र

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