चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद ईश्वर द्वारा सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को दिया गया वह ज्ञान है जिससे मनुष्य अपना समस्त जीवन ईश्वर की सच्ची उपासना एवं सत्कर्मों को करता हुआ व्यतीत कर सकता है। जीवन में सुखी, निरोग, दीर्घायु रहकर अपने परजन्म को भी सुधार कर सकता है। ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है और जन्म व मरण के बन्धनों से मुक्त होकर 31 नील 10 खरब से अधिक वर्षों की अवधि तक बिना जन्म लिये ईश्वर के सान्निध्य में रहता हुआ असीम आनन्द का भोग कर सकता है। यही कारण था कि हमारे देश के ऋषि, मुनि, योगी, महात्मा व विद्वान अपना सारा जीवन भौतिक सुखों का त्याग कर वेदाध्ययन सहित योगाभ्यास एवं समाज के हितकारी कार्यों में लगाते थे। वह सत्य की रक्षा व पालन के लिये ही जीवित रहते थे और इसके लिये ही अपने प्राणों तक को समर्पित कर देते थे। जब से मनुष्यों ने वेद व ऋषियों के मार्ग का त्याग किया है, उसका जीवन अशान्त व दुःखों सहित रोग व अल्पायु आदि से युक्त हो गया है। ऋषि दयानन्द द्वारा सावधान करने पर भी देश विदेश के लोगों ने उनकी बातें नहीं मानी और अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों के मार्ग पर चलते आ रहे हैं जिससे न केवल मनुष्य के निजी जीवन अपितु समाज, देश व विश्व में अशान्ति का वातावरण बना हुआ है। वेद वा वेद की शिक्षाओं को अपनाकर, वेदाज्ञा के अनुसार अपने-अपने दुर्गुणों को दूर कर तथा विश्व में शान्ति व सुख की भावना को रखकर ही हम विश्व में सुख व शान्ति को स्थापित कर सकते हैं। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये ही ऋषि दयानन्द ने संसार के मनुष्यों को वेदों की ओर लौटने का उपदेश दिया था। जो लोग वेदों की महत्ता को स्वीकार कर उसे जानने व उसके अनुसार आचरण करने का प्रयत्न नहीं करते, वह ईश्वर की अवज्ञा के दोषी भी होते हैं जिसका परिणाम उनके जीवन व जन्म-जन्मान्तर में दुःख ही होता है।
चारों वेदों ईश्वर के सत्यस्वरूप को प्रस्तुत करने वाले हैं। वेदों में ईश्वर से उच्च कोटि की प्रार्थना सहित मनुष्य का मार्गदर्शन एवं ज्ञानवर्धन करने वाले सहस्रों मन्त्र हैं। ऋषि दयानन्द ने स्तुति-प्रार्थना-उपासना के प्रकरण में वेदों के आठ उत्तम मन्त्रों का चयन किया है। वेदों का स्वाध्याय करते हुए अध्येता को अनेक उत्तम मन्त्र प्राप्त होते हैं जिन पर मनन करने व उनका प्रचार करने की प्रेरणा मिलती है। ऐसा ही एक मन्त्र हम इस चर्चा में प्रस्तुत कर रहे हैं। यह यजुर्वेद के अध्याय 36 का दूसरा मन्त्र है। मन्त्र है ‘यन्मे छिद्रं चक्षुषो हृदयस्य मनसो वातितृण्णं बृहस्पतिर्मे तद्दधातु। शं नो भवतु भुवनस्य यस्पतिः।’ यह मन्त्र हमें ईश्वर से प्रार्थना करते हुए संकेत करता व बताता है कि हमारे जो नेत्र हैं व हृदय है, उनमें अनेक न्यूनतायें होती हैं। इन न्यूनताओं के कारण हमारी उन्नति बाधक होती है। अपनी इन न्यूनतायें को हम पूर्णतः जानते भी नहीं हैं। हमें तो इतना ही ज्ञान है कि हृदय में हमारे कुछ विकार होते हैं जो हमें स्वास्थ्य की दृष्टि सहित भावनात्मक रूप से हानि पहुंचा सकते हैं। हम कैसे उन्हें दूर करें? हमें तो उनके विषय में पूरा पूरा ज्ञान ही नहीं है। इनका पूरा ज्ञान तो इनके बनाने वाले परम पिता परमात्मा को ही है। उसी से प्रार्थना करते हैं कि परमेश्वर हमारे नेत्रों व हृदय की न्यूनताओं को दूर करें और उनको दूर करने के साथ ही उनकी उन्नति के सभी उपाय भी हमें प्रेरणा देकर बताये जिससे हम नेत्रों व हृदय से होने वाले अशुभ कार्यों व उनका दुरुपयोग न करके इनका सदुपयोग करते हुए इनका अधिकतम विकास कर सकें। हमारे नेत्र स्वस्थ व विकारों से रहित होंगे तो हमें सभी भौतिक दृश्य दोषरहित दिखाई देंगे। नेत्र ज्ञान का जीवन में अत्यधिक महत्व है। ईश्वर से प्रार्थना करने पर हमारी आत्मा में विद्यमान परमात्मा हमें प्रेरणा देकर उन्हें स्वस्थ व निरोग रखने के उपाय बताने के साथ स्वयं भी एक चिकित्सक की तरह से उनका उपचार कर हमें स्वस्थ रख सकते हैं। इसीलिये वेद मन्त्र में प्रार्थना की गई है।
जो मनुष्य नेत्र के किसी भी रोग से पीड़ित हैं, उन्हें इस मन्त्र का पाठ करते हुए अवश्य प्रार्थना करनी चाहिये। हमारे नेत्र स्वस्थ होंगे तो हमें सुख होगा। हमें अपने नेत्रों का सदुपयोग करते हुए बुरे दृश्यों को निहारने का परित्याग करना चाहिये। भद्र दृश्यों अर्थात् ईश्वर व प्रकृति को श्रद्धा से युक्त समर्पित भावों से देखेंगे तो इससे हमारा आत्मिक विकास भी होगा। बुरे दृश्यों से मनुष्य के चारित्रिक पतन आदि की जो सम्भावनायें होती हैं वह नहीं होंगी। इसी लिये वेदों में अन्यत्र भी कहा है कि हम नेत्रों से भद्र ही देखें। अभद्र कदापि न देखें। यह बहुत उत्तम शिक्षा है। इसे जीवन में धारण करने से हमें बहुत लाभ हो सकता है। ऐसा करके हम सत्पुरुष की कोटि में आ जाते हैं। अतः वेदमन्त्र में की गई प्रार्थना सार्थक एवं हितकारी है जिससे वेदों का महत्व सिद्ध होता है। हमें नेत्रों से ईश्वर तथा उसके बनाये सूर्य, चन्द्र व सृष्टि को सात्विक भावनाओं से ही निहारना चाहिये। इससे हमारा कल्याण होगा और हमें सुख भी प्राप्त होगा। हमारा मन चलायमान रहता है और यह हमें अनावश्यक एवं हानिकारक विचारों की ओर भी हमारा ध्यान ले जाता रहता है। इसी दृष्टि से हम ईश्वर से नेत्रों की न्यूनतायें दूर करने की प्रार्थना करते हैं। इसी कारण हम शान्तिकरण तथा रात्रि शयन के मन्त्रों में अपने मन के शुभ संकल्पयुक्त होने की प्रार्थना करते हैं।
हमारा हृदय अन्तःकरण-चतुष्टय से युक्त है जिसमें मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार का वास है। मन की व्याकुलता का अर्थ होता है मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार में कुछ विकार का होना। यदि हमारा हृदय व्याकुलता व विकारों से रहित होगा तो हम मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार का अपने जीवन के निर्माण में सदुपयोग कर इच्छित उद्देश्यों को प्राप्त कर सकते हैं। यदि हमारा हृदय भौतिक दृष्टि से स्वस्थ है तथा इसमें सात्विकता है तो हमारा कल्याण होता है। हम इसके द्वारा वेदाध्ययन कर इसे सच्ची हितकारी भावनाओं से युक्त रख सकते हैं। इसका उपयोग करते हुए इसे ईश्वर के ज्ञान प्राप्ति व उसकी भक्ति में लगाकर ईश्वर का प्रत्यक्ष कर सकते हैं। हमारे ऋषि कहते हैं कि मनुष्य का मन ही उसके बन्धन व मोक्ष का कारण है। बन्धन दुःख का हेतु हैं और मुक्ति सुख व आनन्द का। अतः ईश्वर से हृदय वा मन की न्यूनताओं व व्याकुलता को दूर करने की प्रार्थना करना उचित व सार्थक है। यह प्रार्थना परमात्मा के अतिरिक्त हम अन्य किसी से नहीं कर सकते। अन्य कोई हमारे हृदय व मन आदि को स्वस्थ, निरोग, न्यूनताओं से रहित तथा बन्धनों से मुक्त कराकर मुक्ति प्रदान नहीं कर सकता। वेदों की इस उच्चतम भावों से युक्त प्रार्थना वस्तुतः संसार की श्रेष्ठ प्रार्थनाओं में से एक है। अतः हमें वेदों का स्वाध्याय करते हुए इस प्रकार की भावनाओं से युक्त होकर इनसे होने वालों लाभों को प्रदान करने के लिये ईश्वर से प्रार्थना करते रहना चाहिये।
मन्त्र में यह भी बताया गया है कि परमात्मा बृहस्पति अर्थात् बड़े आकाशादि का पालक है। वह हम सबको अभीष्ट सुख प्राप्त करा सकता है। सुख की प्राप्ति में सभी इन्द्रियों सहित अन्तःकरण का निर्दोष होना भी आवश्यक है। इसीलिये वेदों में प्रार्थना का विधान किया गया है। इस मन्त्र में यह भी कहा गया है कि परमात्मा इस भुवन वा संसार का स्वामी व रक्षक है। वह परमात्मा हमारे लिये सुखदयाक और कल्याणी हो। वेद हमें परमात्मा से मिलाने का कार्य करते हैं। यदि वेद न होते तो हम ईश्वर से वेदों के अनुरूप स्तुति, प्रार्थना व उपासना न कर पाते। वेदों के शब्दों में जो महान व गहन भाव विद्यमान हैं, वह वेद से अनभिज्ञ सांसारिक मुनष्य व विद्वान कदापि हमें प्रदान नहीं कर सकते। यही कारण है कि वेदों के समान उत्तम उत्तम स्तुति व प्रार्थना के विचार संसार के किसी मनुष्य रचित ग्रन्थों में प्राप्त नहीं होते। ऋषि दयानन्द के सभी अनुयायी भाग्यशाली हैं कि उन्हें ईश्वर का शिष्यत्व व मैत्री प्राप्त है और वह सभी ईश्वर से विशेष रूप से रक्षित व पोषित हैं। संसार के मनुष्यों की स्थिति उस प्रकार के मनुष्य की है जो अपने माता-पिता के साथ रहकर भी अपने पिता-पुत्र के सम्बन्ध से अनभिज्ञ रहते हैं। हमें पूर्ण विश्वास है कि हमारा इष्टदेव पिता व माता परमेश्वर हमारे भीतर हमारी आत्मा, मन, मस्तिष्क तथा हृदय में विद्यमान है। वह हमें हर क्षण प्रेरणा करता रहता है। वह हमारा रक्षक है। वह हमारी सभी प्रकार की उन्नतियों का आधार है। हम उसका स्मरण व ध्यान करने से पूर्ण सुरक्षित रहते हैं। हमारा धर्म ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करना, वेदों का अध्ययन करते रहना, ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना व उपासना करना तथा वेदविहित सत्य कर्मों का आचरण करना है। इससे हमारा जीवन सफल होता है। हमारे नेत्र, हृदय व मन स्वस्थ रहते हुए हमारे लक्ष्य को हमें प्राप्त करा सकते हैं। ईश्वर का हम धन्यवाद करते हैं।
मन्त्र का पदार्थ इस प्रकार है (यत्) जो (मे) मेरे (चक्षुषः) नेत्र की, (हृदयस्य) और अन्तःकरण की (छिद्रम) न्यूनता है, (वा) या (मनसः) मन की (अति-तृण्णम्) अति व्याकुलता है, (तत्) उस क्षति को (बृहस्पतिः) बड़े आकाशादि का पालक परमेश्वर (मे) मेरे लिये (दधातु) पूर्ति करे। (यः) जो (भुवनस्यः) सब संसार का (पतिः) रक्षक है, वह परमेश्वर (नः) हमारे लिये (शम्) सुखदायक और कल्याणकारी (भवतु) हो।
हमने इस लेख में वेद मन्त्र के आधार पर अपने कुछ विचार प्रस्तुत किये हैं। हमने लगभग 45 वर्ष पूर्व स्वामी विद्यानन्द विदेह जी की मासिक पत्रिका ‘सविता’ में इस मन्त्र पर एक कविता पढ़ी थी। तब हमें यह मन्त्र बहुत प्रिय लगा था और हमने इसे स्मरण कर लिया था। यदा कदा यह मन्त्र हमारे ध्यान में आता रहा और हम इसका पाठ करते रहे। कल हम वेदों के उच्च कोटि के विद्वान पं0 विश्वनाथ विद्यालंकार वेदोपाध्याय जी की पुस्तक ‘यजुर्वेद स्वाध्याय और पशुयज्ञ-समीक्षा’ का सदाचार प्रकरण पढ़ रहे थे। उसमें भी यह मन्त्र दिया गया है। हमारी इच्छा हुई कि आज हम इस मन्त्र को आपके सम्मुख प्रस्तुत करें। हम आशा करते हैं कि आप इस मन्त्र को उपयोगी पायेंगे और इससे लाभ उठायेंगे।