देश की बेटी ने जगा दिया देश
जिन लोगों ने अपनी कलम बेची उन्होंने ही ईमान बेचा और जिन्होंने ईमान (धर्म परिवर्तन किया) बेचा उन्होंने ही हिंदुस्तान बेचा। बाहर से आने वाले विदेशी लोगों से देश को कभी खतरा नही रहा-बल्कि देश के भीतर रहकर विदेशियों के मित्र बनकर रहने वालों से देश को खतरा रहा है। अमरीका सहित विश्व के सभी ईसाई देशों में अपने यहां ईसाई व्यक्ति को ही राष्ट्र प्रमुख की जिम्मेदारी दी जाती है, यही स्थिति मुस्लिम देशों की है। लेकिन भारत में वही देश और वही लोग सैक्यूलरिज्म को किसी भी कीमत पर लागू नही करते। भारत में सेक्यूलरिज्म की गलत परिभाषा और गलत व्याख्या की गयी है। यहां धर्म जैसी पवित्र और उच्च व्यवस्था को विकृत करके प्रस्तुत किया गया है। बाहरी चिन्हों को (जैसे चोटी रखना या खतना करना या टाई लगाना आदि) यहां धर्म के रूप में स्थापित किया गया। परिणाम स्वरूप धर्म का वास्तविक और आंतरिक स्वरूप धीरे धीरे ओझल हो गया। संप्रदाय को धर्म के स्थान पर महिमामंडित करके पूजा जाने लगा। देश की लोकसभा सहित कुछ अन्य संस्थानों के ध्येय वाक्य यद्यपि हमें बता रहे हैं कि स्वतंत्रता की प्रभात में हमारे देश के तत्कालीन नेताओं ने धर्म को कितनी पवित्रता से स्वीकार किया था। तनिक चिंतन करें :-
धर्मचक्र प्रवत्र्तनाय :-लोकसभा का ध्येय वाक्य है यह। धर्मचक्र पूरी न्याय व्यवस्था और कर्मफल व्यवस्था का प्रतीक है। बड़े व्यापक और गूढ़ अर्थ हैं इसके। न्यायचक्र के अधीन कर्मफल है और कर्मफल से ही सृष्टिï का न्यायचक्र चल रहा है। श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि-अवश्यमेव भोक्तव्यं कत्र्तु कर्म शुभाशुभम् अर्थात कर्म का फल तो अवश्य ही भोगना पड़ता है। इसे कोई बदल नही सकता। यह अटल है और शाश्वत सत्य है। श्रीकृष्ण जी ही नही बल्कि भारत की संस्कृति ही इस सत्य पर आधारित है कि कर्म के वशीभूत ही सब कुछ हो रहा है। इसीलिए सारी व्यवस्था में कर्म की शुचिता पर ध्यान दिया गया है। कर्म की इस शुचिता को व्यवस्थित करता है-धर्म, और करती है-समाज की मर्यादा और समाज की नैतिक व्यवस्था। मर्यादाएं और नैतिक व्यवस्थाएं जहां समाज को सही दिशा और दशा देती हैं, वही राजनीतिक व्यवस्था को एक सही स्वरूप प्रदान करती हैं। एक प्रकार से समाज की मर्यादाएं और नैतिक व्यवस्थाएं राजकीय नीतियों की पूरक होती हैं।
स्वतंत्रता के पश्चात भारत की लोकसभा ने धर्मचक्र प्रवर्तनाय को अपना ध्येय वाक्य बनाया तो इसके पीछे उद्देश्य यही था कि भारत की राजकीय व्यवस्था को धर्म की भांति पवित्र बनाया जाएगा। पूरी तरह समाज और राष्ट्र के प्रति ईमानदार और जवाबदेह लोगों को लोकतांत्रिक ढंग से चुना जाएगा। जिनके चुनाव में समाज की मर्यादा अर्थात योग्य लोगों को अपना प्रतिनिधि बनाना और नैतिक व्यवस्था अर्थात अयोग्यों को सत्ता सोपानों से दूर रखने की सोच इन ईमानदार और जवाब देह लोगों को देश का शासन सौंपने में सहायक होती है। देश का दुर्भाग्य रहा है कि लोकसभा का ध्येय वाक्य दीवार वाक्य बनकर रह गया। क्योकि धर्म को धर्मनिरपेक्षता की नेताओं की परिभाषा गटक गयी और हम समझ ही नही पाए कि धर्मचक्र प्रवत्र्तनाय का अर्थ क्या है, और इसे अपना ध्येय वाक्य बनाने का कारण क्या है? परिणाम स्वरूप संसद में 250 से अधिक ऐसे लोग जनप्रतिनिधि के रूप में आज बैठे हैं जिनकी पृष्ठभूमि आपराधिक है। ये अधर्मी लोग धर्म की व्यवस्था के अंतर्गत तो कभी भी संसद में नही जा सकते थे इन्हें धर्म निरपेक्षता की अधार्मिक व्यवस्था ने ही संसद में बैठने का अवसर दिया है। इनसे धर्म की नैतिक मर्यादाओं की रक्षा की उम्मीद कैसे की जा सकती है? इन लोगों के कारण कितनी ही दामिनी पिछले 65 वर्ष में दरिंदों की भेंट चढ़ चुकी हैं। लेकिन इनके कलेजे पर दामिनी (बिजली) नही पड़ी। संवेदनशून्य लोगों ने संवेदना शून्य समाज बनाना आरंभ कर दिया। धर्मनिरपेक्षता की इससे बुरी परिणति और हो भी नही सकती थी कि देश की राजधानी में ही ‘द्रोपदी का चीरहरण’ हो जाए। लेकिन हमें नेताओं पर ही गुस्सा व्यक्त नही करना चाहिए। समाज भी अपने दायित्व बोध से पीछे हटा है। उसकी भी कुछ जिम्मेदारियां हैं-मर्यादाएं हैं, उन्हें यह बचा नही पाया। जैसे महिलाओं की स्वतंत्रता की बात है तो स्वतंत्रता से किसी को परहेज नही होना चाहिए-लेकिन उच्छ्रंखलता और स्वच्छंदता उचित नही। उच्छं्रखलता और स्वच्छन्दता पर समाज की नजरें रहनी चाहिए। देश के कर्णधारों ने और समाज के कुछ कथित दिशा नायकों ने कहा कि उच्छ्रंखलता और स्वच्छन्दता पर भी नजर रखने की आवश्यकता नही है। आखिर एक बालिग लड़का या लड़की अपने बारे में स्वयं निर्णय ले सकती है कि उसे क्या करना है? समाज अपने दायित्व बोध से पीछे हटा और इसके लिए लड़ाई नही लड़ी गयी कि शासन और समाज में कैसे सामंजस्य स्थापित किये रखना है? अक्सर लोग कहते हैं कि पुरूष समाज महिलाओं पर ही पहरा क्यों लगाता है-जैसे वह स्वयं घूमते फिरते हैं वैसे ही महिलाओं को भी अधिकार होना चाहिए। यह तर्क दीखने में तो अच्छा लगता है लेकिन इसके सही अर्थ और संदर्भों पर विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि पुरूष समाज की इस व्यवस्था में ही उसकी अपनी कमजोरी छिपी है। महिलाओं को या बेटियों को समाज ने सदा ही पूरे समाज की बेटी माना है। गांव में अभी भी हर जाति बिरादरी की बेटी को गांव की बेटी माने जाने की परंपरा है। सारे समाज की किसी भी बेटी के साथ कोई अशोभनीय घटना हो तो इसे पुरूष समाज अपने पौरूष के और अपनी व्यवस्था के विरूद्घ मानता है। इसलिए समाज बेटियों पर उनके हित में रोक लगाता है कि वे देर सवेर अकेली ना निकलें। दूसरे अर्थों में पुरूष समाज ये जानता है कि हमारे बीच में ही कोई दरिंदा हो सकता है। इसलिए वह अपनी कमजोरी को जानकर ही बेटी बहुओं को बाहर निकलने से रोकता है। वैसे भी हर व्यक्ति की चेतना का स्तर अलग अलग होता है। शास्त्रों के रचयिता और ज्ञाता लोगों की चेतना भी हर क्षण एक जैसी नही रहती। उसमें विचारों के प्रवाह के साथ साथ उतार चढ़ाव आता चलता रहता है। मनुष्य की इस स्वभावगत दुर्बलता को हमारे समाज के मनीषी जानते थे इसलिए उन्होंने राज्य की कानून व्यवस्था में सहायता करने के लिए अपनी नैतिक व्यवस्था और मर्यादाएं खोजीं और समाजहित में उन्हें लागू किया। धर्मचक्र को गतिशील बनाए रखने के लिए व्यवस्था का यह अन्योन्याश्रित भाव ही समाज और शासन के बीच अप्रतिम और उच्चतम पवित्रता का संबंध स्थापित करता था। इसी को धर्मोधारयते प्रजा: कहा जाता है। प्रजा को धर्म ही धारता है-धारण करता है साधता है-मर्यादित करता है, संतुलित करता है, पर आज की व्यवस्था में उल्टा हो गया है। शासन की नीतियां समाज विरोधी हैं, समाज को शासन अपनी नीतियों में बाधक मानता है। उदाहरण के रूप में नारी स्वतंत्रता को शासन अपने ढंग से लागू करना चाहता है-उसमें समाज का कहीं हस्तक्षेप उसे स्वीकार नही है। इस प्रकार शासन और समाज को हमने एक दूसरे का धुर विरोधी सा बना दिया है। रूढिय़ों के नाम पर समाज की प्रचलित परंपराओं को ठुकराना आधुनिकता के नाम पर प्रचलन में बढ़ता जा रहा है। नंगापन ही हमें उस ओर ले जा रहा है-जिस ओर बढ़े हुए समाज ने छह दरिंदे पैदा किये और उन्होंने एक मासूम कली को खिलने से पहले ही मसल दिया। सुबह होने से पहले ही सपनों की दुनिया मिट गयी।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपना ध्येय वाक्य ‘यतो धर्मस्ततो जय:’ माना है। लेकिन जिस देश में धर्म को राजधानी की सड़कों पर सरेआम नीलाम कर दिया जाए और उसे तार तार करके फेंक दिया जाए और जहां धर्म का नाम लेना भी पाप माना जाए उस देश में धर्म की जय कैसे होगी? यह विचारणीय है। प्रचलित व्यवस्था धर्म की व्यवस्था नही है। लेकिन जिस प्रकार सारा देश आज अपनी बेटी दामिनी के लिए सारी संकीर्णताओं से ऊपर उठकर रोया है उससे एक बात तो साफ है कि देश की चेतना में आज भी बेटी को समाज की बेटी मानने की अंतर्धारा विराजमान है। उसी अंतर्धारा ने दामिनी को एक मां बाप की बेटी से ऊपर उठकर समाज की ही नही पूरे देश की बेटी बना दिया। अब आवश्यकता इस अंतश्चेतना के आधार पर धर्म की स्थापना करने की है। समाज के व्याख्याकार चाहे जो अर्थ निकालें या जो व्यवस्थाएं दें लेकिन देश की अंतश्चेतना में उठी संवेदनाओं ने फिर अहसास कराया है कि धर्म हमें जोड़ता है, जबकि मजहब तोड़ता है। धर्म के इस मीठे अहसास ने ही सारे देश को एक साथ झकझोरा और सारा देश अपनी चादर को उठाकर एक साथ खड़ा हो गया। बिना देरी किये उसने अपनी चादर अपनी बेटी की अस्मिता पर डाल दी। यही वह संतोषजनक स्थिति है जिसे देखकर कहा जा सकताा है कि ‘यतो धर्मस्ततो जय:। कलम बेचकर दूसरों की जयकार करने वाले लोग अपना ईमान बेचने से पहले समझें कि धर्म क्या है और उसका उफान भी कितना सुखदायक होता है? ‘दामिनी जैसी बेटी के साहसी जीवन से एक ही संदेश आ रहा है कि अब सियासत हिंदुस्तान का सौदा नही कर पाएगी। क्योंकि जो बेटी खोयी है वह देश को जगा गयी है। अपने उसूलों के प्रति, अपनी व्यवस्था के प्रति, अपने अतीत के प्रति और अपने धर्म के प्रति लोगों ने गंभीरता से सोचा है। देखते हैं इसके क्या परिणाम आते हैं?
हिंदुस्तान की अंतरात्मा आज भी धर्म से शासित है, मानवता उसका धर्म है, उसका आभूषण है, नैतिकता उसकी शोभा है और पवित्रता उसके जीवन का श्रंगार है। कमी हमसे हुई है कि हमने हिंदुस्तान की अंतरात्मा को विदेशी मान्यताओं और विदेशी परिभाषाओं के सामने बेच दिया। लेकिन कलम आज जिंदा है, उसकी बुलंदियां आज पुन: हिंदुस्तान को झकझोर रही हैं। संतोष का विषय है कि इस ओर भारत का युवा वर्ग तेजी से आ रहा है, राष्ट्रपति भवन पर पिछले 65 वर्ष में पहली बार बिना नेता के और बिना राजनीति के इतनी बड़ी संख्या में युवाओं का पहुंचना कोई शुभ संकेत दे रहा है कि भारत जागेगा और अपनी अंतरात्मा के आलोक में वह अपना गंतव्य पहचानेगा। जय भारत।
मुख्य संपादक, उगता भारत