अनंत शास्त्रो बहु वेदितव्यं, अल्पश्च कालो बहवश्च विघ्ना:।
यत्सारभूतं तदुपासितव्यं, हंसो यथा क्षीरमीवाम्बुमिश्रम्।।
अर्थात संसार में अनंत शास्त्रों में जानने योग्य बहुत सा ज्ञान संचित है, परंतु समय थोड़ा है और विघ्न अधिक हैं, इसलिए उस सारभूत ज्ञान को संचित करने में शक्ति लगाओ जिससे जीवन का कल्याण हो सके, अर्थात उसी प्रकार सावधानी से ज्ञानार्जन करो जिस प्रकार एक हंस दूध और पानी को अलग करने में दिखाता है। क्योंकि संसार में आकर जीवन के यदि सौ वर्ष माने जाएं तो उसमें से एक तिहाई जीवन तो कम से कम सोने में गुजर जाता है। जबकि कम से कम 25 वर्ष बचपन के व विद्याध्ययन के गुजर जाते हैं। इसके पश्चात गृहस्थ की द्वंद्वों और दुरितों से भरी हुई जिंदगी की शुरूआत होती है, यह भी इन्हीं चीजों में गुजर जाती है, शेष को बुढ़ापा अपनी भेंट चढ़ा लेता है। ज्ञानार्जन कर जीवन को उन्नत बनाने का समय हमें कहा मिल पाता है। हर वर्ष ऐसी ही व्यस्तताओं में बीत जाता है। नववर्ष मंगलमय नही हो पाता, मंगलमय तो उसे तब कहा जाए जब जीवन के मंगल की भावना से हम स्वयं ओत-प्रोत हो जाएं।
माता के गर्भ में जिससे वायदा करके आये थे, कि इस बार मानव तन दे दो तुम्हारा हर समय नाम लूंगा, उसे भुला दिया। भीतर बैठा पंछी (जीवात्मा) कष्ट अनुभव कर रहा है, क्योंकि उसे पता है कि वायदा क्या किया था और फंस किस धंधे में गये? अनमोल हीरा पानी के भाव बेचा जा रहा है और बेचने बाले को ही पता नही है कि तू कर क्या रहा है? इससे अधिक नादानी भरी बात और क्या हो सकती है? सचमुच कितना सुंदर किसी कवि ने कहा है:-
हम फूल चुनने आए थे, बागे हयात में।
दामन को खारजार में उलझा के रह गये।
यहां झूठी प्रतिष्ठा मुझे घेरती है, मेरी सहजता, मेरी सरलता, मेरी सादगी, मेरी विनम्रता, मेरी सौम्यता, मेरी सहृदयता, मेरी मानवता संसार के किसी भयंकर विकार की आंधी की भेंट चढ़ जाती है और मैं चौड़े में अपने आपको लुटा हुआ अनुभव करता हूं। सोचता हूं मेरे मोती बिखर गये, मेरा हीरा लुट गया। पर इसमें ईश्वर का दोष नहीं, इसमें किसी व्यक्ति विशेष का दोष नहीं। जब अंतरावलोकन करता हूं तो पाता हूं कि अभी साधना कच्ची है। साधना पकी नही है, साधना ने अपनी उच्चता का और अपनी पवित्रता का रस अभी मुझ पर बखेरा नही है। मैं किसी गलत फहमी का शिकार था, साधना के स्तर को मैंने समझा नही था या उस स्तर तक स्वयं को उठाया नहीं, समाज जिस स्तर पर मुझे उठाए हुए है। शायद मैं अपने आप में और समाज की नजरों की ऊंचाई में अंतर नही कर पाया। इसीलिए विकार की एक आंधी में मेरी साधना का महल ध्वस्त हो गया। ऐसा हर व्यक्ति के जीवन में होता है। विवेकशील लोग अपनी साधना और अपने साधन में साम्य स्थापित करके चलते हैं, उससे उनके जीवन में निरंतर प्रवाहमानता बनी रहती है। जो लोग साधना और अपने साधनों में अंतर करके चलते हैं, जो अपने आपको अपनी साधना के साथ स्थापित नही कर पाते वह लुट पिट जाते हैं, उनका जीवन निरर्थक साबित होता है। तब मालूम होता है कि जीवन की अधिकांश ऊर्जा और जीवन का अधिकांश भाग बेकार के विघ्नों में समाप्त हो गया। इसलिए समय रहते चेतना होगा, आज से ही अपने प्रियतम ईश्वर के साथ नजदीकियां बढ़ाएंगे और अपने भीतर छाये विकारों के घने बादलों को चुन चुनकर दूर करने की प्रार्थना उससे करेंगे ताकि जितना समय है उसका सदुपयोग कर लिया जाए और हंस की तरह दूध और पानी को अलग अलग करके देखने की शक्ति अर्जित कर ली जाए।
तभी होगा नववर्ष मंगलमय।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।