वेद, महर्षि दयानंद और भारतीय संविधान-46
जनप्रतिनिधियों का विधानमण्डलों में बोलने का अधिकार
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 105 संसद के सदस्यों को कुछ विशेष अधिकार प्रदान करता है। इन अधिकारों में सांसदों को सदन में भाषण की पूर्ण स्वतंत्रता है। सदन में दिये गये किसी भाषण या मत के लिए किसी सांसद पर किसी भी न्यायालय में कार्यवाही न चलाने, संसद के अधिवेशन के काल में दीवानी मामले चलाने, संसद के अधिवेशन के काल में दीवानी मामलों के संबंध में किसी भी सदस्य को बंदी नही बनाया जाना, संसद के दोनों सदनों की अपनी कार्यवाही का क्रम निर्धारित करने की पूर्ण स्वतंत्रता सदन की मानहानि के लिए प्रत्येक सदन किसी भी व्यक्ति को दंडित कर सकता है, बाहरी लोगों के सदन में प्रवेश करने और सदन की कार्यवाही को देखने व सुनने में प्रवेश करने और सदन की कार्यवाही को देखने व सुनने के ऊपर पाबंदी का लगाया जाना इत्यादि सम्मिलित हैं।
संविधान का यह अनुच्छेद 105 हमारे सांसदों को अपरिमित अधिकार देता हुआ सा लगता है। परंतु यह हमारी भ्रांति है। लोकतंत्र में भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनिवार्य है। क्योंकि सत्य के अनुसंधान के लिए और महिमामंडन के लिए विचारों के प्रवाह को रोकना एक अपराध होता है। इसलिए विचारों को निर्बाध रूप से प्रवाहित किया जाना चाहिए जितना कि किसी बात के समर्थन में आने वाले विचार को सुना जाता है। हमें अपने मत के प्रति आग्रही नही होना है, अपितु विचारों का स्वस्थ आदान प्रदान होना है और होने देना है। एतस्मिन पश्चात स्वस्थ चर्चा से जो राष्ट्रहित में निष्कर्ष निकले उसे बिना किसी हार जीत के भाव के स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि दलगत आधार पर चुने जाने के उपरांत भी हमारे सांसद हमारे जनप्रतिनिधि हैं और राष्ट्र का कल्याण करना ही उनका सर्वप्रथम कत्र्तव्य और दायित्व है। यदि इस दृष्टिकोण से अनुच्छेद 105 को, पढ़ा जाए तो ज्ञात होता है कि यह अनुच्छेद हमारे सांसदों को बोलने का अपरिमित अधिकार केवल इसलिए देता है कि वो राष्ट्रहित में दलगत भावना से ऊपर उठकर अपने विचार रखें। जब बोलें तो राष्ट्रहित में बोलें और स्वस्थ चर्चा में भाग लेकर राष्ट्रीय चरित्र को प्रबल बनाने में अपनी सहभागिता सुनिश्चित करें। भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उस समय दुरूपयोग होता है जब दलीय भावना के वशीभूत होकर हमारे जनप्रतिनिधि एक दूसरे को अपशब्द बोलते हैं, एक दूसरे पर व्यंग्य करते हैं, राष्ट्र और राष्ट्रवाद की भावना के विरूद्घ विषवमन करते हैं या कुछ अनुचित बोलते हैं। इस प्रकार सदन में हमारे माननीय सांसदों के बोलने की शक्ति अपरिमित न होकर परमित हैं। जब हमारे सांसद या विधायक राष्ट्रहित में अपने विचार रखते हैं, तो ऐसे पके हुए और सुलझे हुए विचारों को किसी भी न्यायालय में चुनौती नही दी जा सकती। इस विशेषाधिकार को हमारे जन प्रतिनिधियों को इसलिए दिया गया ताकि तानाशाही ढंग से शासन करने वाले क्रूर शासकों के वे दिन पुन: न लौट आयें, जब कोई शासक अपने से विपरीत मत रखने वाले लोगों को मृत्युदंड दे दिया करता था। ऐसे उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है जब शासकों ने अपने से विपरीत मत रखने वाले को मृत्युदंड दिया और कालांतर में लोगों को ज्ञात हुआ कि वह विपरीत मत ही जनापेक्षाओं के सर्वथा निकट और अनुकूल था। इसलिए किसी भी व्यक्ति को अथवा किसी भी जनप्रतिनिधि को आज इस प्रकार की अमानवीय क्रूरता या राजनीतिक प्रतिशोध की भावना का शिकार न बनना पड़ जाए इसलिए संविधान ने अनुच्छेद 105 में हमारे माननीय सांसदों के विशेषाधिकार का उल्लेख किया है। हमें अपने स्वस्थ लोकतंत्र के चिरायुष्य के लिए ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि संसदीय लोकतंत्र में सरकारें राष्ट्रीय स्वरूप की बनायी जाऐं। संसद के बाहर दलीय राजनीति रहे। संसद के भीतर दलों का अस्तित्व समाप्त कर दिया जाए। इस व्यवस्था के कई लाभ होंगे। उदाहरणत: संसद की गरिमा बढ़ेगी, उसमें होने वाली चर्चाओं का स्तर ऊंचा उठेगा। लोग क्षेत्रीय स्तर से हटकर राष्ट्रीय स्तर पर सोचेंगे। दलों के मध्य परस्पर का विद्वेष भाव इस प्रकार की व्यवस्था से समाप्त किया जा सकेगा। राजनीतिक दलों का अपने सांसदों पर अंकुश ढीला होगा और पार्टी व्हिप से नित्य प्रति दुखी रहने वाले सांसदों को अपनी बात को खुलकर कहने का अवसर मिलेगा। वेद ने संसद उसे माना है जो राष्ट्रीय समस्याओं पर विचार करने वाले लोगों की ध्यानशाला हो। जब बात ध्यान की आती है तो ऐसा लगता है कि जैसे हम बड़े ही तेजस्वी तप पूत, तपस्वी और मनस्वी लोगों की बात कर रहे हों। जी हां, हम ऐसे लोगों की ही बात कर रहे हैं। वास्तव में ध्यान पूर्वक मननशील होकर समस्याओं का समाधान देना और सदा ही राष्ट्रहित में सोचना हमारे सांसदों का आचरण और व्यवहार इसी प्रकार का होना चाहिए। हमने अपनी संसद को व्यवहार में ध्यानशाला के स्थान पर शोरशाला बनाकर रख दिया है। हम पाप कर्म करके पुण्य रूपी फलों की मांग कर रहे हैं। बस, गलती यहीं पर हो रही है।
हमारा संविधान भी ऐसी ही संसद की अपेक्षा करता है जो कि राष्ट्र की समस्याओं के समाधान के प्रति गंभीर हो। इसलिए सांसदों को हमारा संविधान मुखर वक्ता बनने का एक मंच संसद के रूप में उपलब्ध कराता है। उसकी अपेक्षा है कि संसद हमारे देश के राष्ट्र चिंतक मनीषी, विद्वानों और राष्ट्रोपासकों की चिंतन स्थली बन जाए। यहां से निकला हुआ शुद्घ चिंतन उस बादल की भांति निकले जो गरमी से तपते जलते लोगों की और धरती की प्यास बुझाता है। इसी प्रकार का शुद्घ चिंतन देशवासियों के हृदय को सुख दिलाने वाला हो, तभी संसद की गरिमा सुरक्षित रह पाएगी। हमारे सांसदों को हमारे संविधान के द्वारा जो विशेषाधिकार प्रदान किये गये हैं, उनका औचित्य तभी सार्थक सिद्घ होगा। जो सांसद क्षेत्रीय भावनाओं को उकसाकर वाहवाही लेने और तालियां बजवाने के लिए संसद में भाषण झाड़ते हैं वो अपने बोलने के अधिकार का दुरूपयोग करते हैं। इस प्रकारके बोलने से जहां हमारे सांसद के राष्ट्रीय चरित्र के न होने का पता चलता है, वहीं जनसामान्य पर उसके इस प्रकार के बोलने का घातक प्रभाव पड़ता है। लोग राष्ट्रीय चरित्र को खोकर संकीर्णताओं में फंस जाते हैं। एक सांसद के ऐसा बोलने पर दूसरे सांसद के क्षेत्रवाले भी उससे अपेक्षा करते हैं कि हमारा प्रतिनिधि भी कुछ दमदार बोले तो मजा आए। जब दूसरा, तीसरा चौथा और इसी प्रकार की असंसदीय भाषा बोलता है तो संसद की गरिमा का तो हनन होता ही है साथ ही राष्ट्रीय चरित्र का भारी अभाव है। उसका कारण यही है कि हमारे सांसदों का संसद में व्यवहार उतना अच्छा नही रहा है जितने कि उनसे अपेक्षा की जाती है। इसलिए सांसदों के बोलने के अधिकार को अपेक्षाओं की मर्यादा से मर्यादित किया जाना समय की आवश्यकता है।