हिंदी की मिट्टी पीटते ये लोग
हिंदी को पंडित नेहरू ने हिंदुस्तानी कहकर संबोधित किया था। उन्होंने राष्ट्रभाषा को उपहास की दृष्टि से देखा और उपहास के रूप में ही इसे स्थापित करने का प्रयास किया। हिंदुस्तानी से अभिप्राय नेहरू एण्ड कंपनी का एक ऐसी भाषा से था जिसमें सभी भाषाओं के शब्द सम्मिलित कर लिए जाऐं और एक खिचड़ी भाषा को सारा देश बोलने लगे। निश्चय ही यह एक ऐसी भाषा थी जिसकी कोई व्याकरण नही होनी थी और ना ही कोई लिपि होनी थी। नेहरू जन्मना अंग्रेजी मानसिकता के व्यक्ति थे। मुस्लिम संस्कृति से उन्हें गहरा लगाव था। अपनी इसी मानसिकता के कारण वह स्वयं को ‘दुर्भाग्य से हिंदू’ मानते थे। यही कारण था कि हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान के संस्कृति मूलक और राष्ट्रमूलक भारतीय तत्व चिंतन से नेहरू जी का कोई संबंध नही बन पाया और ना उन्होंने इनसे कोई संबंध बनाने का प्रयास किया। उन्होंने अपने दृष्टिकोण को अंग्रेजी दृष्टिकोण का अनुगामी बनाया और उसी से भारतीयता पर और भारतीय राष्ट्र संबंधी तत्व चिंतन पर अपना मत व्यक्त किया। यही कारण रहा कि हिंदुस्तानी जैसी काल्पनिक अवैज्ञानिक और अतार्किक भाषा का विचार उनके मानस में आया।
1947 से 1977 तक तीस वर्ष तक कांग्रेस ने निरंतर नेहरू की मानसिकता से भारत निर्माण किया। उसके बाद भी भारत पर अधिकांश समय में कांग्रेस का ही शासन रहा है। बीते 65 वर्ष के इस काल में दुर्भाग्य से ‘हिंदुस्तानी’ ने देश में पैर जमा लिये। उसी का परिणाम रहा कि हिंदी राष्ट्रभाषा तो बनी लेकिन बोलचाल में और वह भी विशेषत: इंडिया में वह हिंदुस्तानी खिचड़ी भाषा के रूप में स्थापित कर दी गयी है। उसे हम हिंग्लिश के रूप में जानते हैं, हालांकि वह हिंदी अंग्रेजी ना होकर हिंदुस्तानी उर्दू और इंग्लिश के रूप में अधिक स्थापित हुई है। सिनेमा जगत ने, आकाशवाणी ने और दूरदर्शन ने इस भाषा को भारत में फैलाने में विशेष योगदान दिया। इन तीनों से अलग पत्रकारिता के क्षेत्र में कांग्रेस प्रभावित लोगों ने अपनी मानसिकता को ‘कांग्रेस की जय बोल’ की तर्ज पर लेखनी से स्थापित करने का प्रयास किया। फलस्वरूप आजकल हिंदी को यदि थोड़ा भी सही रूप में लिखने या बोलने का प्रयास किया जाता है तो उसे देश में ही गलत माना जाता है। ऐसे व्यक्ति को हेयभाव से देखा जाता है और उसे हीन भावना से कुंठित होने के लिए छोड़ा जाता है। हिंग्लिश को प्रगतिशीलता की भाषा माना जाने लगा है। हिंदी लेखन में व्याकरण की त्रुटियों पर तनिक भी ध्यान नही दिया जाता है। यदि उसकी शुद्घि का प्रयास भी किया जाता है तो पाठकों के विषय में कहा जाता है कि अधिक शुद्घ हिंदी को पाठक ही पसंद नही करेंगे। आकाशवाणी, दूरदर्शन सिनेमा जगत और प्रैस ने स्वतंत्रता के बीते 65 वर्षों में राष्ट्रभाषा की यही सेवा की है कि उसे यदि शुद्घ करने का या शुद्घ बोलने का प्रयास किया गया तो मानो आसमान टूट पड़ेगा। उल्टी दिशा में (हिंदुस्तानी खिचड़ी भाषा पकाने में) जोर लगाओगे तो पुरस्कार मिलेगा और यदि सही दिशा में जोर लगाओगे तो तिरस्कार और बहिष्कार झेलना पड़ेगा। सबको पता है कि उल्टी दिशा में जोर लग रहा है लेकिन पुरस्कार पाने के लिए सब उसी दिशा में जोर लगाए जा रहे हैं। राष्ट्र सेवा का इससे घटिया स्तर संभवत: और कोई नही है। हमने राष्ट्रसेवा का यह ढंग नेहरू से सीखा और इसी ढंग पर हम काम करते जा रहे हैं। नई पीढ़ी हिंदी के विषय में अधिक नही जानती। बच्चे अपनी राष्ट्रभाषा और मातृभाषा हिंदी में अनुत्तीर्ण होते हैं या कम अंक प्राप्त करते हैं। उसका कारण है कि राष्ट्रभाषा बनी अंग्रेजी भाषा में ‘आई’ के साथ अपने की इंग्लिश ‘माई’ है, ‘वी’ के साथ ‘अवर’ है, ‘दे’ के ‘देयर’ है। इन्हें अंग्रेजी में जैसे पढ़ाया जाता है वैसे ही हिंदी में प्रयोग किया जाने लगा है। माई का अर्थ अंग्रेजी पढ़ाते समय मेरा, अवर का हमारा और देयर का अर्थ उनका बताया जाता है, तो इंग्लिश मीडियम का छात्र ऐसी ही हिंदी बोलता है जब वह कहता है-हम हमारे गांव गये थे। (हिंदी में इसे हम अपने गांव गये थे, कहा जाता है) इसी प्रकार मैं मेरे गांव गया था, या वे उनके गांव गये थे, इस प्रकार कहा जाता है। ऐसे ही बहुत से अन्य वाक्य हैं जिनकी मिट्टी पीटी जा रही है, और जिन्हें देखकर पता चल जाता है कि ये वाक्य किसी इंग्लिश मीडियम के छात्र या छात्रा के हैं। अब तनिक शब्दों के लेखन पर ध्यान दें। हिंदी वर्णमाला को कंठस्थ करने के लिए क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, और प वर्ग के रूप में सुविधानुसार विभाजित किया गया है। क वर्ग में क, ख, ग, घ, अ:, चवर्ग में च, छ, ज, झ, ण, टवर्ग में ट, ठ, ड, ढ, ण, तवर्ग में त, ध, द, ध, न तथा पवर्ग में प, फ, ब, भ, म अक्षर आते हैं। हिंदी व्याकरण का नियम है कि जिस वर्ग का अक्षर किसी शब्द में किसी पहले अक्षर पर अ की बिंदी के बाद आ रहा है उसी के अनुसार ही अं की बिंदी रखी जाती है या उच्चारी जाती है। जैसे शब्द है कंचन इसे शुद्घ रूप में इस प्रकार लिखा जाएगा-कञ्चन। क्योंकि च वर्ग में ञ न के लिए आता है, इसलिए यहां आधी न का उच्चारण ञ् के रूप में लिखा जाएगा। झंडा को हम ‘झण्डा’ सही रूप में इसलिए लिखेंगे क्योंकि ट वर्ग में ण न के लिए प्रयुक्त होता है, तो ड अक्षर से पूर्व के अक्षर झ के ऊपर अं की बिंदी न रखकर झ और डा के बीच ण् अक्षर लिखेंगे। इसी प्रकार तवर्ग में हिन्दी, बिन्दी, धन्धा, कन्धा, गन्दा आदि शब्द इसी प्रकार लिखे जाएंगे और पवर्ग में पम्प, खम्भा, आदि इस प्रकार लिखे जाएंगे।
व्यवहार में हिंदुस्तानी में झण्डा को झंडा, हिन्दी को हिंदी, बिन्दी को बिंदी, गन्दा को गंदा, कञ्चन को कंचन, धनञ्जय को धनंजय, मृत्युञ्जय को मृत्युंजय, पम्प को पंप, खम्भा को खंभा लिखा जा रहा है। हिंदी व्याकरण की धज्जियां हिंदुस्तानी के नाम पर उड़ रही हैं। कारण इसका एक ही है कि अपनी ही भाषा से किसी को लगाव नही है। उसे समझने की किसी में रूचि नही है। स्थिति बड़ी भयावह है। आप हिंदी टाइप राइटर के पास भी बैठ जाएं उनमें से नब्बे प्रतिशत को पता नही होता कि कहां पूर्ण विराम लगना है, कहां अर्ध विराम लगना है और कहां (,) लगना है। प्रश्नवाचक चिन्ह या विस्मयादिबोधक चिन्हों की भी उन्हें सामान्यतया जानकारी नही होती। प्रवक्ता, अध्यापक, अधिवक्ता, चिकित्सक, पत्रकार जैसे सम्मानित और बुद्घिजीवी व्यवसाय से जुड़े लोग भी ऐसी गलतियां कर रहे हैं। सारे देश के बुद्घिजीवियों की यही स्थिति है। टीवी पर चर्चा करते बुद्घिजीवियों का परिचय किसी विशेष क्षेत्र में उनके प्रतिभा संपन्न होने या कोई विशेष उपलब्धि उनके पास होने के रूप में कराया जाता है। लेकिन जब वो तथाकथित बुद्घिजीवी बोलने लगते हैं तो बोलने का सामान्य ढंग बड़ा ही अटपटा लगता है, ऐसे लगता है जैसे ये किसी बाहरी देश के व्यक्ति हैं और यहां आकर हिंदी के शब्दों को जैसे तैसे पकड़कर ला रहे हों। बोलते हैं मान्यवर-आई थिंक दैट, हमारे पीएम ने जो कुछ कहा है दैट मींस….उन्होंने गवर्नमेंट पॉलिसी को अपनी ओर से क्लीयर कर दिया है। इससे एक ही मैसेज जाता है कि इंडियन गवर्नमेंट अपनी पॉलिसी पर वर्क कर रही है।
ये ऐसे वाक्य हैं जो हिंग्लिश के वर्चस्व को तो दर्शाते ही हैं साथ ही नेहरू वादी हिंदुस्तानी के बढ़ते और फैलते प्रभाव को भी दर्शाते हैं। देश की संसद में हमारे जनप्रतिनिधि भी ऐसी ही भाषा का प्रयोग करते हैं। ‘नाम बड़े और दर्शन छोटे’ वाली कहावत इन लोगों पर चरितार्थ हो रही है। देश के जनप्रतिनिधि भी संसद में या राज्य विधानमंडलों में सर्वथा अवैज्ञानिक, अतार्कि क और वैयाकरणीय त्रुटियों से भरी हुई भाषा में अपना भाषण देते हैं-उन्हें पता ही नही होता कि वो जो कुछ बोल रहे हैं वो किस भाषा में है और तुम्हारे इस बोलने का प्रभाव देश की युवा पीढ़ी पर क्या पड़ रहा है? परिमार्जित हिंदी में धाराप्रवाह भाषण देने वाले अटल बिहारी वाजपेयी और प्रकाशवीर शास्त्री जैसे स्वनामधन्य वक्ताओं से संसद वंचित होती जा रही है तो इस का कारण यही है कि देश में हम नेहरूवादी भाषा नीति के शिकार होकर रह गये हैं। नेहरू की सोच ने हमारी सोच को मस्तिष्काघात की बीमारी से पीडि़त किया है। इसीलिए राष्ट्रचिंतन की दिशा में कोई ठोस कार्य नही हो पा रहा है। देश की युवा पीढ़ी देश के कर्णधारों को जब देश की संसद में हिंदुस्तानी और हिंग्लिश में बोलते देखती है तो वह उसी का अनुकरण करना चाहती है। प्रकाशवीर शास्त्री और अटल जी का चित्र हम अपनी युवा पीढ़ी में बना ही नही पाए। इसलिए यह परंपरा मद्वम पड़ गयी है। जबकि नेहरू की हिंदुस्तानी के विषय में सरकारी भोंपुओं (आकाशवाणी, दूरदर्शन और सिनेमा सहित कांग्रेस प्रभावित प्रैस) ने शोर मचा मचा कर यह झूठ सत्य के रूप में स्थापित कर दिया है कि यह भाषा हमारी प्रगतिशीलता की प्रतीक है। मामी, बुआ, चाची, ताई आदि सब हमारी आण्टी हो गयीं हैं और चाचा, ताऊ मामा फूफा सब हमारे अंकल हो गये हैं, किसी में कोई अंतर नही रहा। संबंध टूट रहे हैं, सिमट रहे हैं और हम इनके साथ कहीं यूं ही घिसट रहे हैं। सब कुछ अस्त व्यस्त हो गया है। क्या 65 वर्ष पहले जब हमने स्वतंत्रता प्राप्त की थी तो उस समय ऐसी कल्पना की थी कि हमारी उन्नति का और हमारे आत्मविश्वास का स्वरूप कुछ यूं होगा कि जिसमें हमारा आत्म स्वरूप ही हमसे ओझल हो जाएगा? भारतेन्दु हरीशचंद्र जी ने यूं ही नही कहा था कि ‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति कौ मूल-निश्चित ही उसका कोई अर्थ था हमने उस अर्थ को उपेक्षित किया तभी तो आज विदेशी हमारे विषय में ये कहकर हंस रहे हैं कि भारत में यौनाचार एक राष्ट्रीय समस्या बन गयी है। जो स्थायी रूप से बीमार थे उन्होंने हमें बताना आरंभ कर दिया है कि तुम तो अमुक व्याधि से ग्रस्त हो और तुम्हारा राष्ट्रीय चरित्र कितना दूषित है, अपने धर्म, अपनी संस्कृति, अपनी भाषा, अपनी भूषा, अपने इतिहास से जो कोई जाति मुंह मोड़ लेती है तो उसे ऐसा ही सुनना पड़ता है। क्या हम अब भी नही संभल सकते?
मुख्य संपादक, उगता भारत