शिवा नंदवंशी
भारतवासियों ने इस एक सदी में बहुत कुछ बदलते देखा। कभी ब्रिटिश शासन में होटलों के बाहर कुत्ता और हिंदुस्तानी अंदर न आ सकेंगे, यह भी हमारे पूर्वजों ने देखा, सुना, सहा। कभी गांधीजी को रेलवे का फर्स्ट क्लास का टिकट होने के बाद भी अश्वेत होने के कारण गाड़ी से गोरों ने उतार दिया। वर्ष 1917 से 1919 के मध्य मेरे शहर के मुख्य बाजार में उन लोगों पर कोड़े पड़ते रहे जो पांवों के बल सीधे चलते थे, घुटनों से रेंगते नहीं थे, क्योंकि उस समय कोई अंग्रेज अधिकारी बाजार में आ रहा था। स्वतंत्रता के बाद भी अमेरिका और रूस के गेहूं से भारतवासियों ने गुजारा किया। आज नई पीढ़ी यह गीत गाती है—सुनो गौर से दुनिया वालाें, बुरी नजर न हमपे डालो, चाहे जितना जोर लगा लो, सबसे आगे होंगे हिंदुस्तानी।
आज कोरोना महामारी के संकट में जिस हिम्मत, संयम, अनुशासन और वैज्ञानिकों एवं डाॅक्टरों के बल पर कोरोना से भारत ने संघर्ष किया, उसने यह सिद्ध कर दिया कि अब हम हिंदुस्तानी सबसे आगे हो गए हैं। संकटकाल में ही व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की परीक्षा होती है। भारत जिस सूझबूझ और गति से एक होकर कोरोना महामारी का सामना कर रहा है पूरी दुनिया ने उसका लोहा माना। प्रधानमंत्री ने प्रारंभ में ही देश में लाॅकडाउन घोषित कर सुरक्षित दूरी का संदेश दिया। यद्यपि इससे आर्थिक और भूख का संकट पैदा हो गया। प्रधानमंत्री ने स्वयं यह घोषणा की कि हिंदुस्तान की सरकार अस्सी करोड़ लोगों को राशन देगी, जिससे जिन दिनों मजदूरी नहीं कर सकते, घरों से बाहर नहीं निकल सकते उन दिनों वे भूखे न रहें। जनधन योजना में भी महिलाओं के खातों में रुपये भेजे गए। सबसे बड़ा कमाल तो सामाजिक, धार्मिक संस्थाओं ने कर दिया, जो दुनिया के किसी अन्य देश में देखने को नहीं मिलेगा। मंदिरों, गुरुद्वारों से गलियों से, बाजारों से, सामाजिक संगठनों का भोजन पकाने, बांटने और जरूरतमंद लोगों के दरवाजे तक पका अनाज भेजा गया। यह ठीक है कि करोड़ों लोगों को खिलाने में कहीं न कहीं कमी रह गई। लंबी लाइनें भी लगीं। करोड़ों लोगों को सामाजिक संगठनों द्वारा भोजन परोसना, स्वयं बनाना, आर्थिक साधन जुटाना यह केवल हमारे देश की विशेषता है। अन्न-धन चाहे सरकारी हो या गैर-सरकारी, बांटते समय किसी की जाति-धर्म, संप्रदाय, प्रांत या भाषा को नहीं देखा गया। दूर क्या जाना है हमारे पड़ोस पाकिस्तान से अमानवीय समाचार आ रहे हैं। जहां राशन बंटता है, उस पंक्ति से उन लोगों को धक्के मारकर निकाल दिया जाता है जो ईसाई और हिंदू हैं।
कोरोना के मरीज भारत में जिस संख्या में उपचार के बाद स्वस्थ हो रहे हैं उससे भी दुनिया के कान खड़े हो गए। आज की स्थिति यह है कि अब हम दुनिया से कुछ नहीं मांग रहे, अमेरिका जैसा विश्व शक्ति होने का दावा करने वाला देश भी भारत से कोरोना की दवाई मांगता है। भारतीयों ने अपने आत्मबल, ज्ञान विज्ञान के बल से सम्मान करवा लिया। रूस और ईरान को भी भारत ने दवाई भेजी। संभवतः और भी बहुत से देशों को। लगता है कि अब भारत उस मैकाॅले के भूत से मुक्त होगा जो भारतीय जीवन मूल्यों को खत्म करना चाहता था। हाल ही की बात है न चीन से रैपिड टेस्ट किट आई। कितनी घटिया निकली। हमारे देश के वैज्ञानिकों और डाॅक्टरों ने उसका प्रयोग करने से मना कर दिया। क्या इससे यह सबक नहीं लिया जाएगा कि हम हिंदुस्तानी सबसे आगे हैं। अब तो भारतीय चिकित्सा पद्धति, भारतीय डाॅक्टर, भारतीय आयुर्वेद, भारतीय सामाजिक जीवन का अनुकरण विश्व कर रहा है। मेरे जैसे लोग बहुत दिनों से यह कह रहे थे कि हाथ मिलाने से रोग फैलते हैं, तब कुछ लोगों को यह मजाक व्यर्थ लगता था। अब जब ट्रंप के मुंह से सुन लिया कि भारत का नमस्कार अच्छा है तो हम सब नमस्कार करने लगे। भोजन से पहले और भोजन के बाद भी, घरों में मार्केट से वापस आने के बाद हाथ-पांव धोना, हमारे यहां का दैनिक जीवन का कार्य था। हम भूल गए। रसोई की शुद्धता के लिए जूता उतारकर जाते थे। अब तो घरों में रसोई और शौचालय पड़ोसी हैं।
कोरोना महामारी के संकट की परीक्षा में हिंदुस्तान यह समझ ले कि अब हिंदुस्तानी आगे होंगे नहीं, हो गए हैं। अपने पर गर्व करो। अपने रीति-रिवाज अपनाओ। कुछ वर्षांे में दुनिया के बहुत से लोग अंतिम संस्कार भी हिंदू रीति से ही करेंगे। न कीटाणु शेष रहेंगे, न बीमारी। अपने पर गर्व करने का अच्छा अवसर ईश्वर ने दिया, पर उनसे जरूर बचो जो देश के संकट को बढ़ाने का काम करते हैं, बचाने का नहीं। सरकार अब ऐसे कदम उठाए कि देश के योग्य शिक्षित डाॅक्टर देश में रहें और जो बाहर गए हैं उन्हें ससम्मान वापस लाया जाए और डाॅक्टरों तथा पैरा मेडिकल स्टाफ को अच्छा वेतन, भ्रष्टाचार मुक्त जीवन और ड्यूटी पर सम्मान मिलना चाहिए।