सरस्वती रमेश
कोरोना से आज दुनिया त्रस्त है। जिधर देखिए उधर ही बस कोरोना का रोना। यह रोना भले ही आज जितना भी तेज हो लेकिन आने वाले दिनों में कम होगा और अंततः खत्म होने की हम उम्मीद भी करते हैं। कोरोना को लेकर विज्ञान की जो असहायता दिख रही है वह दूर होगी। कई बार नई-नई तरह की आपदाएं आईं, मानवता को कीमत भी चुकानी पड़ी। लेकिन अंततः वे काबू में आईं। समय जो भी लगा हो, कीमत जो भी चुकानी पड़ी हो। इसलिए कोरोना को लेकर विलाप करने या हताश होने की जरूरत नहीं। बल्कि जरूरत आगे के बारे में सोचने की है।
अभी कोरोना की मार के कारण दैनिक जीवन में आए बदलावों को देखकर ऐसा नहीं सोचा जा सकता कि कोरोना के बाद दुनिया खुद ब खुद बदल जाएगी। या वैश्विक अर्थव्यवस्था के पर कतर जायेंगे। आगे के दिनों में केंद्रीकृत वैश्विक अर्थव्यवस्था अपने पुराने ढर्रे पर ही चलेगी। आखिर उसकी फिक्र की जद में दुनिया के बीस प्रतिशत लोग ही तो आते हैं। बाकी अस्सी प्रतिशत को तो यह अर्थव्यवस्था खैरात के सहारे चलाती है। उनकी जिंदगी में बदलाव को अपना उत्तरदायित्व नहीं मानती।
इस महामारी के खत्म होने के बाद जिस महामारी से सामना होगा वह है भुखमरी और बेरोजगारी। यही वह समस्या है, जिसका सामना करीब अस्सी प्रतिशत आबादी को करना है। भारत मे लॉकडाउन की घोषणा के बाद पलायन की तस्वीरें आपने देखी होंगी। वे तस्वीरें इसी अस्सी प्रतिशत आबादी की झांकी भर है। अपने गांव-जवार से उखड़कर गए और अब उजड़ कर हजारों किलोमीटर पैदल चल वापस लौट रहे लोगों की ये तस्वीरें सिर्फ कोरोना के असर को ही नहीं दर्शाती बल्कि उदारीकरण और वैश्विक अर्थव्यवस्था के नाम पर अस्सी के दशक में शुरू किये गए खेल को भी बेपर्दा करती है। आर्थिक उदारवाद ने जिस तरह स्वावलंबन की अवधारणा को चिथड़े-चिथड़े कर उपभोक्तावाद को बढ़ावा दिया है उसकी नजीर भी सामने रखती हैं। आने वाले दिनों में यदि यह बड़ी आबादी भूख और गरीबी से मरती है या अवसाद के चंगुल में फंसती है तो उसके लिए यह अवधारणा ही सबसे अधिक जिम्मेदार होगी।
दरअसल, उदारवाद की बयार बहते ही पूरी अर्थव्यवस्था संकेंद्रित हो गयी। अमीर-गरीब के बीच की खाई पटने के बजाय और चौड़ी हो गई। गांधी का स्वावलंबन ताकों पर धूल चाटने लगा। गांव की श्रमशक्ति का महानगरों में पलायन बढ़ गया। और फिर उदारवाद के चोर दरवाजे घर-घर में उपभोक्तावादी संस्कृति की घुसपैठ बनी। चीन से आये तरह-तरह के सामानों ने आम आदमी तक को अपनी जद में ले लिया। आदमी उपभोक्ता बनकर रह गया। आर्थिक खुलापन एक भ्रामक शब्द साबित हुआ। खुलेपन के नाम पर इसने हमारी अर्थव्यवस्था को कैद कर लिया और आज एक सुई जितनी चीज के लिए भी हम चीन की ओर देखते हैं।
उपभोक्तावाद ने इंसानी चरित्र को भी बदला। इसने इंसान के अंदर आत्मसुख की एक अतृप्त भूख को जगाया और उसे आत्मकेंद्रित बना दिया। प्रकृति को उसने विलासिता का साधन मान लिया और लापरवाह रवैया अपनाने लगा। इंसान के अंदर मानवीय मूल्यों का क्षरण हुआ। उसी के नतीजों का ताजा उदाहरण है कि आज अमेरिका में राशन की दुकानों के साथ बंदूक को भी जरूरी सामानों की सूची में रखा गया है।
अब कोरोना की त्रासदी के बाद ये स्थितियां बदल जाएंगी, ऐसी उम्मीद तुरन्त नहीं की जा सकती। लेकिन इतना तो है चुनौती बनकर आये कोरोना ने हमें एक अवसर भी दिया है सुधरने के बारे में सोचने का। विकास का सही अर्थ समझने और उसके अनुकूल मॉडल अपनाने का। विकेन्द्रित एवं स्वावलंबी अर्थव्यवस्था की ओर लौटने का। आपदा प्रबंधन और चिकित्सा सुविधाओं पर गौर करने का और सबसे बढ़कर प्रकृति के अंधाधुंध दोहन को रोकने का। प्रकृति के साथ रहना सीखने का।
यह सच है कि संकट मनुष्य की बुद्धि को हर लेता है। लेकिन यह भी सच है कि संकटकाल ही मनुष्य की बुद्धि की असल परीक्षा की घड़ी होता है। आज अहम सवाल है कि इस संकट के खत्म होने के बाद शासक और मनुष्यता इससे क्या सबक सीखेगी। जो अपनी गलतियों से नहीं सीखता उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। यह हमें तय करना होगा, हम करना क्या चाहते हैं। कोरोना बाद की हमारी दुनिया के सामने यक्ष-प्रश्न यही है कि क्या हम अभिशाप बनकर आये कोरोना को वरदान में बदलने के लिए तैयार हैं?