सनातनी संस्कृति में परम महत्ता को प्राप्त 12 ज्योतिर्लिंगों में प्रथम ज्योतिर्लिंग का नाम है- सोमनाथ। यह मंदिर भारतवर्ष के पश्चिमी छोर पर गुजरात राज्य में स्थित है ।यह मंदिर अपने ऐतिहासिक, आध्यात्मिक और धार्मिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण और दर्शनीय है ।यह गुजरात के वेरावल बंदरगाह में अवस्थित है। अत्यंत प्राचीन यह मंदिर अपने आप में विभिन्न कहानियों को समेटे हुए हैं। ये कहानियां कहीं आश्चर्यचकित करती हैं तो कहीं सोचने और विचारने पर विवश करती हैं । इस मंदिर के विषय में कहा जाता है कि इसे नक्षत्रों के राजा और औषधियों के अधिपति चंद्र देव ने बनाया था ।
इस तथ्य का उल्लेख ऋग्वेद में भी किया गया है।
कहा जाता है कि राजा दक्ष प्रजापति ने चंद्र देव के प्रभाव और सौंदर्य पर मुग्ध होकर अपनी 27 कन्याओं का विवाह चंद्रमा से कर दिया था ।इन कन्याओं में से रोहिणी नामक कन्या को चंद्र देव ने सर्वाधिक सम्मान दिया। इससे दुखी होकर अन्य कन्याओं ने अपने पिता से शिकायत की। पिता इस अन्याय को सहन नहीं कर सके और उन्होंने क्रोध में आकर चंद्रदेव को क्षयी होने का शाप दे दिया। इससे चंद्र की कांति घटने लगी। वे कांतिहीन हो गए। दुखी होकर चंद्र ने इस स्थान पर आकर भगवान शिव की आराधना प्रारंभ की। चंद्र की कठिन और अविराम तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने शाप का मोचन किया और कहा कि प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष में तुम निरंतर क्षीण होगे और शुक्ल पक्ष में निरंतर तुम्हारी कला बढ़ती हुई कांति को प्राप्त कर, पूर्णमासी को तुम्हारा संपूर्ण कांति युक्त और शोभायुक्त स्वरुप सृष्टि को प्रसन्नता प्रदान करेगा। वरदान प्राप्त कर चंद्र ने कृतज्ञता स्वरुप इस स्थान पर समुद्र किनारे भगवान शिव का भव्य मंदिर बनवाया और मंदिर का नाम रखा- सोमनाथ। सोम यानि चंद्र के नाथ, स्वामी, रक्षक अर्थात शिव।
इस स्थान को भालुका तीर्थ भी कहा जाता है। इसी तीर्थ में महाभारत के महाविनाश और यादवों के विनाश के पश्चात चिन्तित भगवान श्री कृष्ण एक पैर के ऊपर दूसरा पैर रखकर जब विश्राम की मुद्रा में लेटे हुए थे ,तो इसी समय उनके तलवे पर हिरण के पदचिह्न को हिरण की आंख समझकर जरा नाम एक ब्याध ने धोखे से तीर मार दिया। इसी बाण के बहाने भगवान ने यहां पर अपनी लीला को संवरण कर दिया ।
सोमनाथ मंदिर का इतिहास , इतिहास के उत्थान -पतन का साक्षी रहा है ।कुछ लोग इसे हिंदू धर्म का उत्थान पतन भी कहते हैं, लेकिन ऐसा कहना गलत है ।धर्म का उत्थान- पतन नहीं होता है। धर्म तो अपने स्थान पर स्थिर होता है ।आस्था अपने स्थान पर अडिग खड़ी रहती है। उत्थान- पतन परिस्थितियों के अनुसार किसी स्थान विशेष का हो सकता है, धर्म का नहीं ।समय अनुकूल रहता है तो आक्रमणकारी स उस स्थान को नष्ट करने में सफल नहीं होते हैं, काल विपरीत होता है तो आक्रमणकारी सफल हो जाते हैं ।
यह मंदिर अत्यंत वैभवशाली और समृद्ध था। हिंदू वास्तुकला का अनुपम उदाहरण यह मंदिर अपने श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र था। जन श्रुति है कि इसके शिवलिंग के भीतर हीरे जवाहरात भरे थे
संभवत भगवान शंकर का श्रंगार बहुत सुंदर ढंग से किया जाता रहा होगा ,उनमें हीरे जवाहरातों का भी प्रयोग होता था। संभवत इसी कारण यह जलन जन श्रुति चल पड़ी ,लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि इन जनश्रुतियों को सुनने के कारण आक्रमणकारियों को प्रलोभन मिला और वे इधर की ओर बढ़े । इतिहास बताता है कि यह मंदिर अनेक बार तोड़ा गया और बनाया गया ।मंदिर को लूटे जाने की कहानी अत्यंत लोमहर्षक है।
मंदिर का इतिहास अपनी आध्यात्मिक कथा के रूप में तो स्वयं सिद्ध है कि इसे नक्षत्रों के अधिपति चंद्र ने शिव के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए बनाया था। ईसा पूर्व भी इस मंदिर के अस्तित्व में रहने का जिक्र आता है ।इसका पुनर्निर्माण सातवीं सदी में बल्लभी के मैत्रिक राजाओं ने किया था। इसकी प्रसिद्धि सुनकर आठवीं शताब्दी में सिंध के अरबी गवर्नर जुनायेद ने इसे नष्ट करने के लिए अपनी सेना भेजी ।इतिहास का यह सर्वविदित तथ्य है कि कोई भी साम्राज्यवादी बर्बर जाति दूसरी जाति पर जब आक्रमण करती है तो सर्वप्रथम उस देश की कला और संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास करती है। मंदिर सनातनी संस्कृति के प्रथम केंद्र हैं। कलाएं संस्कृति की मूर्त धरोहर और मंदिर इन धरोहरों के जीवंत प्रतीक। मंदिर को बहुत हानि पहुंची और उसे लूटा गया ।815 ईसवी में गुर्जर प्रतिहार राजा नागभट्ट ने इसका निर्माण किया ।इस मन्दिर की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। अरब यात्री अलबरूनी ने भी इस मंदिर का बहुत वर्णन किया है ।कहते हैं कि जब भगवान सोमनाथ की पूजा होती थी तो समुद्र स्वयं आकर शिवलिंग को स्नान कराता था। निश्चित रूप से समुद्र की लहरें गर्भ ग्रह तक पहुंचकर भगवान का अभिषेक करती होंगी।वास्तुकला के हिसाब से यह बहुत ही विचित्र आश्चर्यजनक बात है कि समुद्र गर्भगृह तक पहुंचता ,भगवान का अभिषेक करता और फिर वापस लौटता था।भगवान शिव की आरती के समय 10000 देवदासियाँ नृत्य करती थीं। हम यहां पर देवदासी प्रथा पर कोई टिप्पणी नहीं करेंगे। कल्पना कीजिए कि कितना अभिराम दृष्य रहता रहा होगा ,जब भगवान की आरती की मधुर ध्वनि के साथ10000 देवियों के पायलों की झंकार से समुद्र भी आंदोलित हो नृत्य करता रहा होगा। देवदासियों के हाथों के दीपक प्रकाश के झिलमिलाहट चारों ओर बिखेर देते होंगे ।न जाने वे आक्रमणकारी कैसे होंगे,जो ऐसे सौन्दर्य को नष्ट करने का दुस्साहस करते होंगे। यह इस प्रकार का वर्णन मेरे पिता स्वर्गीय बृजमोहन चंदोला जी ने मुझे बताया था। वे इतिहास और सनातनी धर्म के मर्मज्ञ थे।
अलबरूनी का यात्रा वृतांत जब महमूद गजनवी ने सुना तो वह 1024 ईसवी में सोमनाथ को लूटने चल पड़ा। इस आक्रमण से दो प्रकार के लाभ लेना चाहता था- 1- हीरे जवाहरातोंकी लूट और दूसरा संसार में अपना आतंक फैलाना और मंदिर तथा शिवलिंग को तोड़कर गाजी की उपाधि प्राप्त करना। 1024 ईसवी में वह अपने लुटेरे साथियों की सेना लेकर सोमनाथ की ओर चल पड़ा। इतिहासकारों ने इस लूट का वर्णन इस प्रकार किया है कि जैसे वह मैदानों में बिना किसी प्रतिरोध के आया और सोमनाथ को लूट कर चलता हुआ था । नहीं , ऐसा संभव नहीं था,वरन गजनी से चलकर जब वह सोमनाथ के मंदिर की ओर जा रहा था ,तो स्थान- स्थान पर उसे हिंदुओं के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा । भारत पर 17 बार आक्रमण करने वाला महमूद गजनवी मंदिर की ओर बढ़ रहा था ,तो उसे इतने जबरदस्त प्रतिरोध का सामना स्थानीय राजा और प्रजा की ओर से करना पड़ा कि वह दो ढाई महीने के दीर्घ समय के पश्चात सोमनाथ के निकट पहुंच पाया। जिसने भी सुना वह मंदिर की रक्षा के लिए दौड़ पड़ा। चाहे उसके पास हथियार थे अथवा नहीं। अपनी सभ्यता और अपनी संस्कृति को बचाने के लिए प्रत्येक हिंदू आगे बढ़ा ।समुद्र के किनारे की बालू के मैदान पर यह युद्ध लड़ा गया। एक और महमूद जैसा लुटेरा जिसके लिए धन ही सब कुछ था और दूसरी और निहत्थे एवं कुछ सशस्त्र हिंदू जिनकी संख्या लगभग 50,000 बताई जाती है। आपस में भिड़ पड़े। एक लूटना चाहता था और एक अपनी संस्कृति को पीढ़ियों के लिए बचाना चाहता था। यह भी कहा जाता है कि महमूद ने सैकड़ों गायों को अपने आगे कर दिया था ,जिसके कारण सैनिकों और निहत्थे हिंदुओं के हाथ प्रहार नहीं कर सके। अपनी माँ समान गौवों पर वे हाथ नहीं चला सकते थे ।बस फिर क्या था , गौ की आड़ में हिंदुओं को काटता हुआ वह मंदिर के निकट पहुंच गया। आने वाली आपदा से भयभीत निहत्थे श्रद्धालुओं ने मंदिर के प्रांगण ,गर्भ गृह में सेना से लड़ कर अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया ।महमूद जब शिवलिंग पर प्रहार करना चाहता था तो सैकड़ों श्रद्धालु उस पर लिपट गए खून की नदियां बह उठी। महाकाल लिंग यह दृश्य देख रहा था और हंस रहा था -महमूद ! मैं सदा से रहा हूं और सदा ही रहूंगा। तेरी हस्ती एक दिन मिटेगी और मैं सदा ऐसा ही गर्व से सिर उठाए इसी स्थान पर रहूंगा। मेरे श्रद्धालु आते रहेंगे, लेकिन तू इतिहास में एक लुटेरे के नाम से सदा कलंकित रहेगा । महमूद कहाँ सुनने वाला था यह अट्टहास?वह तो उस सम्पदा को ढूंढने में लगा था जो न कभी किसी की हुई है और न कभी होगी ।धन्जिय हैं वे बलिदानी पुरूष जिन्होंने अपनी संस्कृति की रक्षा में प्राण दे दिए। इतिहास उन्हें सैव स्मरण रखेगा।उन्हीं के बलिदानों का परिणाम है यह मंदिर जो आज भी अपना सिर ऊंचा उठाए हुए है। मंदिर की ध्वजा आज भी उनकी याद दिलाती है। इस बालुका पर खडे होकर जब मैंने चतुर्दिक देखा तो मेरे नेत्रों के सम्मुख वह दृश्य प्रत्यक्ष हो उठा।निहत्थे हिंदुओं की टूटती सांसे और महमूद का आतंक।जो आज भी इतिहास के पन्नों में एक लुटेरे शासक के नाम से जाना जाता है और इतना लालची है कि अपने दरबारी कवि द्वारा लिखे शाहनामा पुस्तक पर दिए गए वचनानुसार धनराशि को कवि को नहीं दे सका ।कवि ने हीं जब महमूद के विषय में कुछ ऐसी शर्मनाक बातें लिखी तो दरबारियों ने महमूद से जाकर शिकायत की और कहा कि आप कवि की धनराशि दे दीजिए जो कुछ उसने लिखा है ,उससे हमें भी शर्मिंदा होना पड़ता है। महमूद ने तब पूरी धनराशि पहुंचाई, किंतु जब धनराशि घर में पहुंची तो फिरदोशी
की मृत्यु हो चुकी थी और उसका जनाजा बाहर निकल रहा था। उसकी पुत्री ने धन राशि लेने से इनकार कर दिया। मंदिर का शिखर आज भी चमक रहा है। श्रद्धालु आज भी आ रहे हैं, लेकिन महमूद कहीं नहीं है। हर आतताई का यही अंजाम होता है बस समझने की देर होती है। संस्कृतियों को कोई भी नष्ट नहीं कर सकता ।वे पुनः नई ऊर्जा ,उमंग और जिजीविषा से उठ खड़ी होती हैं। लौटते हुए महमूद को पुनः प्रतिरोध का सामना करना पड़ा ,अनेक कठिनाइयों को झेलता हुआ वह अपने राज्य में पहुंच भी नहीं पाया किइधर मंदिर का निर्माण कार्य प्रारंभ हो गया। इतिहास उठाकर देखें तो पाएंगे कि विनाश करने वाले एक-दो ही होते हैं जबकि निर्माण करने वाले हजारों हाथ उठ खड़े होते हैं ।
गुजरात के राजा भीम और मालवा के राजा भोज ने इस मंदिर का निर्माण कराया और मंदिर समृद्धि से युक्त हो गया ।सन 1297 में गुजरात दिल्ली सरकार के अधीन आया तो इसे अलाउद्दीन ने पुनः गिरा दिया। गिराए जाने के बाद पुनः राजाओं, सेठों और व्यापारियों के द्वारा इसका निर्माण हो गया। 1395 में गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर शाह ने इसे लूटा। 1412 में पुनः उसके पुत्र ने भी यही कार्य किया , पुनः निर्माण के पश्चात सन् 1665 ईस्वी में और 1706 ईसबी में मुगल बादशाह औरंगजेब के द्वारा इसको तोड़ दिया गया ।तोड़ दिया गया । जब 1783 में जब मराठों ने भारत के बड़े हिस्से पर अधिकार कर लिया, तो 1783 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा मूल मंदिर से कुछ दूरी पर सोमनाथ का मंदिर बनाया गया।एक बात आश्चर्य की अवश्य है कि उस टूटे हुए स्थान पर ही हिंदू लोग अपने आराध्य को पूजते रहे और प्रतीक्षा करते रहे मंदिर के मूल स्थान पर पुनर्निर्माण की। यहां पर एक बात अवश्य ध्यान देने की है कि बार-बार मंदिर के तोड़े जाने पर भी शिवलिंग वही बना रहा ।मंदिर के द्वार आज भी आगरा के किले में रखे गए हैं। सौराष्ट्र के मुख्यमंत्री राजभवन शंकर देधर ने 19 अप्रैल 1940 को यहां पर उत्खनन कराया था ।वर्तमान मंदिर प्रभास तीर्थ में स्थित है ।1948 में प्रभास तीर्थ को प्रभास पाटन नाम से जाना जाने लगा है। 1940 के बाद भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने उत्खनन से प्राप्त शिव के ज्योतिर्लिंग को ब्रह्मशिरा पर स्थापित किया । कुमारपाल द्वारा बनवाई मंदिर में पूजा नहीं होती, किंतु दीपक अवश्य जलाया जाता है। विशेष आग्रह पर यहाँ जाया जा सकता है। एक दीपक उस समय की स्मृति को संजोए जलता रहता है। न जाने इतिहास के कितने बलिदानी लोगों के बलिदानों का साक्षी यह स्थान अपने भीतर अनेक रहस्यों की पीड़ा को छुपाए भी है। सायंकाल के धुंधलके में इसे देखकर बड़ी पीड़ा हुई। इसके सामने ही वह मैदान है जो इतिहास के विभिन्न राजाओ और शहीदों के बलिदानों का साक्षी है। मुझे एक प्रसंग स्मरण आ रहा है जो मेरे विद्वान और इतिहास मर्मज्ञ पिता ने मुझे सुनाया था। उन्होंने कहा कि बेटा एक बार जब वल्लभभाई पटेल और जवाहरलाल नेहरू सोमनाथ मंदिर की ओर जा रहे थे ,तो मंदिर की दुरावस्था को देखकर वल्लभ भाई पटेल के नेत्रों में अश्रू आ गए ।उन्हें रोते देख नेहरू आश्चर्यचकित हुए और कहा कि रोते क्यों हो ?उन्होंने पटेल जी के अश्रुओं को एक भावुक व्यक्ति का रूदन ही समझा।बल्लभ भाई पटेल ने कहा कि नेहरू तुम नहीं समझोगे इस स्थान की महत्ता को। यह स्थान हमारे बलिदानों का स्मारक है ।उन्होंने बताया कि यह उन बलिदानियों का स्मारक है, जिन्होंने महमूद गजनी के सम्मुख मंदिर बचाने के लिए अपने आप को प्रस्तुत कर दिया। यह स्थान अनंत काल से चले आ रहे हमारे सनातन धर्म का प्रथम ज्योतिर्लिंग है। यह हमारे हृदयों का प्रकाश और हमारी श्रेष्ठ सभ्यता है। भारत के आजादी के बाद सरदार बल्लभ भाई पटेल ने समुद्र का जल लेकर मंदिर बनाने की यहां पर प्रतिज्ञा की थी। ठीक उसी तरह से जिस प्रकार भगवान राम ने समुद्र के जल से समुद्र के जल जल से विभीषण ठीक उसी प्रकार भगवान राम ने भुजा उठाकर राक्षसों को नष्ट करने की प्रतिज्ञा की थी।नेहरू ने मन्दिर को बनाने का तीव्र विरोध किया था। नवंबर 1947 को जूनागढ़ को भारत में मिला दिया गया और 13 नवंबर को सरदार बल्लभ भाई पटेल ने सोमनाथ के मंदिर के निर्माण का संकल्प समुद्र का जल लेकर किया जो आज पंडित नेहरू के तीव्र विरोध के पश्चात भी हमारे सामने अपना मस्तक ऊंचा किए खड़ा है। प्रभास पाटन जूनागढ़ रियासत का मुख्य नगर था। सरदार वल्लभभाई पटेल इस मंदिर के निर्माण कार्य से जुड़े रहे उनके संकल्प के बाद 1950 में मंदिर का निर्माण हुआ। इसे महामेरू प्रासाद शैली में बनाया गया। 8 दिसंबर 1995 को भारत के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने इसे राष्ट्र को समर्पित कर दिया। मंदिर विशाल भव्य और सुंदर है। मंदिर में गर्भगृह सभामंडपऔर नृत्यमंडपम् हैं। सभामंडप 150 फीट ऊंचा और इस पर अवस्थित कलश का भार 10 टन के बराबर है।इसकी ध्वजा की ऊंचाई 27 फुट ऊंची है ।इसके अबाधित समुद्री मार्ग के विषय में कहा जाता है कि यह मार्ग परोक्ष रूप से दक्षिणी ध्रुव में समाप्त होता है ।1970 में जामनगर की राजमाता ने अपने पति की स्मृति में उनके नाम से दिग्विजय द्वार बनवाया। इस द्वार के सामने राजमार्ग है ,जहां पर सरदार पटेल की प्रतिमा है ।मंदिर में दक्षिणी मंदिर के दक्षिण में समुद्र के किनारे एक स्तंभ है, उसके ऊपर एक तीर रख कर संकेत किया गया है कि सोमनाथ मंदिर और दक्षिण ध्रुव के मध्य कोई भू- भाग नहीं है। (आसमुद्रांत दक्षिण ध्रुव पर्यंत अबाधित ऽज्योतिर्मार्ग )।इस स्तंभ को बाणस्तंभ कहा जाता है। मंदिर के प्रांगण में हनुमान, विनायक ,नवदुर्गा, खोडियार ,अन्नपूर्णा ,गणपति और हाटकेश्वर, कालका मंदिर आदि को मिलाकर लगभग 42 मंदिर के लगभग 10 किलोमीटर क्षेत्र में स्थित है। सोमनाथ से लगभग 200 किलोमीटर की दूरी पर श्री कृष्ण भगवान की द्वारका है । यहां एक विशिष्ट गोमती नदी है, इसके स्नान का विशेष महत्व बताया गया है। इसका जल सूर्योदय पर बढ़ता और सूर्यास्त पर घटता जाता है, जो सूर्य निकलने से पहले मात्र एक डेढ़ फीट रह जाता है ।सोमनाथ की वैभवशाली गाथा हमारे लिए गर्व का विषय है। हमें चहिए कि हम अपने इस गौरव को बनाए रखने के लिए और इतिहास में इसको सही स्थान दिलाने के लिए कार्य करे।
उमा घिल्डियाल श्रीनगर गढ़वाल
(लेखिका ‘राष्ट्रीय इतिहास पुनर्लेखन समिति’ की उत्तर भारत की अध्यक्ष हैं )