वेद, महर्षि दयानंद और भारतीय संविधान-47
इतिहास के आईने में देश की संसद व लोकसभा
प्राचीन भारतीय राजनीति में संसद (राजनीतिज्ञों की ध्यानशाला) का निर्माण सभा और समिति से मिलकर होता था। ऋग्वेद में सभा का 8 बार और अथर्ववेद में 16 वार उल्लेख आया है। ये सभा आजकल की लोकसभा और राज्य के समान थीं।
शब्दों के अस्तिव के विषय में हमें यह मानना चाहिए कि जितना पुराना शब्द है, उससे संबंधित व्यवस्था भी उतनी ही पुरानी होती है यदि एक आर्यावत्र्त (वर्तमान में भारतवर्ष) शब्द हमें मिलता है तो समझिए कि जितना पुरातन यह शब्द होगा उतनी ही पुरातन भारतीय सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था होगी। इसी प्रकार भारत वर्ष में सभा समितियों का इतिहास है। यदि ऋग्वेद (संसार की सर्वाधिक प्राचीन पुस्तक) सभा शब्द 8 बार आवृत्ति करता है तो समझना चाहिए कि सभा का अस्तित्व ऋग्वेद प्रदत्त सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के प्रारंभ में ही था। ब्रिटेन में राज परिवार से संबंद्घ लोगों के सदन के लिए जिस प्रकार हाउस आफ लॉर्डस की व्यवस्था की गयी है और इस सदन के सदस्य को वहां लॉर्ड कहा जाता है, उसी प्रकार भारत में प्राचीन काल में समिति के ऐसे सदस्यों को जो राजपरिवार से संबंद्घ है, उन्हें राजन्य कहा जाता था। ये साक्ष्य हमें बताते हैं कि भारत में लोकतंत्र की जड़ें ब्रिटेन के लोकतंत्र की अपेक्षा कितनी गहरी और प्राचीन हैं। संसद का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है। धर्मराज युधिष्ठर भीष्म पितामह से प्रश्न करते हैं:-संसद में जब विद्वान, मूढ़ और प्रगल्भ व्यक्ति मृदु और तीक्ष्ण भाषणों द्वारा अपना आक्रोश प्रकट कर रहे हों, तो क्या करना चाहिए? भीष्म पितामह ने इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया-जब संसद में जो कोई आक्रोश द्वारा दोषारोपण (जैसा कि आजकल हमारी संसद में अक्सर होता है) करता है, तब राजा उसके सुकृत स्वयं प्राप्त कर लेता है। केवल उसके दुष्कृत ही उसके पास बच रहते है। (इसका अभिप्राय है कि संसद की गरिमा इसी में है कि सांसद अपनी बात को आक्रोशित रहित होकर धैर्य और शांति के साथ विवेकपूर्ण ढंग से रखें) ऐसे व्यक्तियों की गर्हित बातों की उसी ढंग से उपेक्षा की जाए, जैसे रोगपीडि़त व्यक्तियों के वचनों की, की जाती है। ऐसे व्यक्ति के प्रति जनता में विद्वेष उत्पन्न हो जाता है और उसका भाषण निष्फल हो जाता है। उसके पाप कर्म सर्वविदित हो जाते हैं, और वह लज्जित होकर मृत के समान होकर रह जाता है। स्वल्प बुद्घि वाले जो कुछ कहें, उस सबको सहन कर लेना चाहिए। ऐसे व्यक्तियों की प्रशंसा और निंदा से किसी का क्या बनता और बिगड़ता है। जैसे जंगल में कौआ व्यर्थ बकवास करता है, ऐसे ही संसद में अल्पबुद्घि के व्यक्ति के भाषण को समझना चाहिए। जिस मनुष्य के लिए कुछ भी अवाच्य नही है और कुछ भी अकार्य नही है उसके कथन की परवाह करने की क्या आवश्यकता है? जो मनुष्य सामने तो गुणों का बखान करता है, पर पीठ पीछे निंदा करता है, वह कुत्ते के समान है।
भीष्म पितामह के द्वारा दिया गया यह आख्यान एक प्रकार से संसद की कार्यवाही की नियमावली ही है। शांतिपर्व में हमें बताया गया है कि सभासद (सांसद) सत्य मुदुता तथा लज्जा और सम्यक भाषण में समर्थ हों।
अथर्ववेद में आया है-
एषामहं समासीनानाम वर्चो विज्ञान माद दे।
अस्या: सर्वस्या: संसदो मामिन्द्र भागिनम कृणु।।
यद वो मन: परागतं यद वद्घमिह वेह वा।।
तदेव आवत्र्तयामसि मयि वो रमतां मन:।। (अर्थ 7/12/3/4)
अर्थात यहां जो लोग उपस्थित हैं, मैं उनके तेज व ज्ञान को ग्रहण करता हूं। हे इंद्र! मुझे इस संपूर्ण संसद का नेता बनाओ। जो तुम्हारा मन किसी अन्य ओर गया हुआ है, या तुम्हारा मन जो किसी बात को पकड़कर बैठ गया है, मैं तुम्हारे मन को वहां से हटा दूं। तुम्हारा मन मेरे अनुकूल हो जाए।
यहां एक सांसद अपने से विपरीत मत रखने वाले सांसद को अपने अनुकूल करने की भद्र प्रार्थना कर रहा है। इस प्रार्थना का उद्देश्य केवल शिष्टाचार निभाना नही है, अपितु संसद में व्यर्थ के गतिरोध को समाप्त करना और किसी एक सर्वसम्मत निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए किया गया एक प्रयास भी है।
संसद की इन दोनों सभाओं को (सभा और समिति को राजा प्रजापति की पुत्रियां मानता था) अथर्व (7/1/63) में आता है-सभा और समिति प्रजापति की दुहिताएं हैं। वे मेरी (राजा की) रक्षा करें। वे मुझे (जनहित में) उत्तम शिक्षा (सत्यपरामर्श दें और जनहित के कार्यों के प्रति जागरूक बनाए रखने हेतु सचेत करें) दें, संसद में एकत्र हुए पितर लोग समुचित भाषण करें।
हमारे संविधान निर्माताओं ने इस प्रकार देश की संसद को संसद का नाम देकर एक झटके में ही हमें अपनी प्राचीन गौरवमयी राजनीतिक और सांस्कृतिक थाती से अवगत कराने का प्रयास किया। इस दिव्य संस्कृति के दिव्य उत्तराधिकारी नही बन पाए-तो इसमें कुछ दोष हमारा भी है।
संसद के सभा नामक सदन का एक सभापति भी हुआ करता था। इसे आजकल लोकसभा का अध्यक्ष कहा जाता है। यजुर्वेद के अनुसार सभा के सभापतित्व का कार्य सभापति करता था।
(सभाभ्य: सभापतिभ्यश्च वो नमो-शत. तै. सं. 4/5/3/2)
सभा धार्मिक कार्यों का भी संपादन करती थी। आज कल की संसद में धर्म चर्चा असंभव है। जबकि वेद सम्पादित और प्रतिपादित संसद में धर्म चर्चा अनिवार्य थी। क्योंकि धर्म (विधि) का शासन स्थापित करने हेतु लोगों को धर्मनीति पर चलकर मानवता का पुजारी बनाना शासन का उद्देश्य था। आजकल की संसद कानून का राज किसे कहती है, उसमें भ उच्चतम अवस्था थी धर्म का शासन स्थापित करना। धर्म के शासन को स्थापित कर उसे हमारी प्राचीन राजनीतिक व्यवस्था में भारत की अन्तश्चेतना बनाने का वंदनीय कृत्य किया गया। फलस्वरूप धर्म की बात कहना और धर्म पर चलना हमारे राष्ट्रीय चरित्र एक एक अटूट अंग बन गया। आज की संसद धर्म निरपेक्ष है। इसलिए धर्म पर चलने वाले समाज का निर्माण करने में यह असफल रही है। प्राचीन काल में संसद की सभा (लोकतंत्र) का सभापति धर्मज्ञ, राष्ट्र की चुनौतियों और राष्ट्रवासियों की समस्याओं को समझने वाले अति विद्वान व्यक्ति को बनाया जाता था। उस समय आरक्षण और तुष्टिकरण की राष्ट्रघाती नीतियों को नही अपनाया जाता था।
लुंडविंग ने सभा व समिति के विषय में लिखा है-
”सभा एवं समिति के सदस्यों के पास विचार विमर्श करने हेतु राजा जाता था। वास्तव में दोनों विचार विमर्शात्मक संस्थाएं थीं। जहां राष्ट्र की परिस्थितियों एवं विभिन्न पहलुओं पर विचार विनियम पर सर्वसम्मति से निर्णय लिया जाता था।”
सभा व समिति में राजा के जाने का अभिप्राय है कि राष्ट्र की परिस्थितियों पर विचार विनिमय के समय राजा की उपस्थिति अनिवार्य थी। राजा राष्ट्र के अति विद्वान जन प्रतिनिधियों के विद्वता पूर्व विचारों को सुनकर ही उपस्थित परिस्थितियों से निपटने के लिए रणनीति व कार्यनीति बनाया करता था। जनप्रतिनिधि का अर्थ उस समय राष्ट्र की जनता की मेधाशक्ति का प्रतिनिधित्व करना भी था। आजकल मेधाशक्ति का प्रतिनिधित्व संसद में नही है। क्योंकि सांसद की योग्यता में उसकी मेधाशक्ति का कहीं स्थान ही नही है।
जो कार्य प्राचीन काल में हमारे सभापति के द्वारा किये जाते थे, न्यूनाधिक वही कार्य आज का लोकसभाध्यक्ष निष्पादित करता है। संविधान ने उसकी शक्तियों का निरूपण निम्न प्रकार किया है :-
अध्यक्ष लोकसभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है। अध्यक्ष होने के नाते वह सदन में शांति व्यवस्थ और अनुशासन बनाये रखने का काम करता है। ऐसे सांसद जो सदन की शांति व्यवस्था अथवा अनुशासन में किसी भी प्रकार से कोई व्यवधान डालने या बाधा पहुंचाने का कार्य करता है उसके विरूद्घ कार्यवाही कर सकता है। सदन केक नेता अर्थात प्रधानमंत्री के साथ मिलकर लोकसभा का समस्त कार्यक्रम और कार्यवाही लोक सभाध्यक्ष निश्चित करता है।
अध्यक्ष ही यह निश्चित करता है कि कौन सा विधेयक धन विधेयक है अथवा नही है। यदि किसी विषय पर लोकसभा के मत विभाजन की स्थिति आ जाए, और संबंधित विषय पर बराबर बराबर मत आ जाएं तो उस अति महत्वपूर्ण स्थिति में लोक सभाध्यक्ष का मत निर्णायक होता है। कार्य स्थगन प्रस्ताव को अध्यक्ष की अनुमति से ही प्रस्तुत किया जा सकता है।
लोकसभा में समितियों के अध्यक्षों की नियुक्ति अध्यक्ष द्वारा ही की जाती है। वह कार्यमंत्रणा समिति तथा नियम समिति का अध्यक्ष होता है तथा लोकसभा के विशेषाधिकारों का रक्षक होताा है। लोकसभा में सदस्यों के बोलने का समय अध्यक्ष ही आवंटित करता है। सदस्यों का बोलने क्रम भी वही निश्चित करता है। मंत्रियों से पूछे जाने वाले प्रश्नों के संबंध में अनुमति देता है। सदस्यों से नियमों का पालन कराना, मतगणना कराना, परिणाम घोषित करना अध्यक्ष का ही अर्थ है। संसद के संयुक्त अधिवेशन की अध्यक्षता करता है। लोकसभा और राष्ट्रपति के मध्य पत्राचार भी अध्यक्ष ही करता है। अध्यक्ष की अनुमति के बिना किसी सांसद पर दलबदल कानून लागू होता है या नही यह भी अध्यक्ष ही निश्चित करता है। यदि कोई सदस्य सदन में असंसदीय शब्दों या भाषा का प्रयोग करें तो उसको ऐसे शब्दों को वापस लेने के लिए अध्यक्ष ही आदेशित करता है, अथवा उसके विरूद्घ कार्यवाही करता है। किसी सदस्य ने सदन की मानहानि की है तो उस स्थिति की जांच पड़ताल भी अध्यक्ष ही करता है। दर्शकों के प्रवेश पर नियंत्रण लगाने का अधिकार भी लोकसभा के अध्यक्ष को प्राप्त है। दोनों सदनों द्वारा पारित विधेयक पर अध्यक्ष के ही हस्ताक्षर होते हैं। विदेशों में जाने वाले संसदीय प्रतिनिधि मंडलों के सदस्यों के कार्यों की घोषणा भी लोक सभाध्यक्ष ही करता है।
प्राचीन काल में सभापति का प्रत्येक परिस्थिति में निष्पक्ष बना रहना अनिवार्य माना जाता था। क्योंकि अध्यक्ष की निष्पक्षता सभी सदस्यों को अपनी बात को उचित ढंग से कहने का अवसर उपलब्ध कराती है। वैसे हमारे प्राचीन लोकतंत्र में दलीय व्यवस्था नही थी, इसलिए अध्यक्ष निष्पक्ष आचरण वला बना भी रहता था? इसीलिए हमारा मानना है कि राजनैतिक दलों की व्यवस्था संसद के भीतर समाप्त की जानी चाहिए। क्योंकि जन प्रतिनिधि संसद के लिए जन प्रतिनिधि होता है, वह किसी दल का प्रतिनिधि नही होता। लोकसभा के अध्यक्ष रहे मालवलंकर जी कहना है :-
”स्पीकर को चाहिए कि वह राजनैतिक विवादों में सक्रिय भागीदारी से अपने को अलग रखे। स्पीकर को एक न्यायाधीश की भांति कार्य करना चाहिए। उसे किसी का पक्षधर नही होना चाहिए। किसी दल के प्रति पूर्वाग्रह से कार्य न करे। उसे तो सदन के सभी लोगों का विश्वास जीतने का प्रयास करना चाहिए।
हमारा मानना है कि संसद का प्रत्येक सदय स्वयं में एक न्यायाधीश बनकर कार्य करे। वह पक्ष विपक्ष की चख-चख ऊपर उठकर अपने विचार रखे। ऐसी परिस्थितियों में ही हम उज्जवल भारत के उज्जवल भविष्य का निर्माण कर सकते हैं। बहुदलीय व्यवस्था भारत के संदर्भ में लोकतंत्र को असफल कर चुकी है। इस पर हम समय रहते कार्य करें। संसद को हम वैदिक राजनैतक दर्शन के अनुसार गरिमामयी बनायें।