धरती है बलिदान की तीन फूल, तीनों निछावर-4
शांता कुमार
गतांक से आगे…
दामोदर के अभियोग में तीसरे छोटे भाई वासुदेव की गवाही हुई थी। उस सारे मुकदमे में बालकृष्ण के विरूद्घ कोई अभियोग न बन पाया था। वासुदेव की गवाही में कुछ बातें बालकृष्ण के विरूद्घ जाती थीं। अब पुलिस बालकृष्ण के विरूद्घ अभियोग बनाने के लिए उसके छोटे भाई वासुदेव की गवाही दिलाना चाहती थी। पर पुलिस क्या जानती थी कि ये चाफेकर बंधु किस देश भक्ति के इस्पात से घड़े गये थे।
सबसे बड़ा भाई दामोदर फांसी पा चुका था। यह देख तीसरा भाई वासुदेव जिसकी आयु उस समय केवल 18 वर्ष की थी, अपनी मां के पास आकर कहने लगा मां! दो फूल तो राम के काम आ गये। अब मैं भी उन्हीं के चरणों तक पहुंचने की आज्ञा लेने आया हूं। उस समय भावनाओं की उथल पुथल में मां का हृदय इतना भर गया था कि उसके मुंह से एक शब्द भी न निकला। उसने वासुदेव के सिर पर हाथ फेरते हुए उसका माथा चूम लिया। यह मौन स्वीकृति थी। धन्य हैं ऐसी माताएं।
अब वासुदेव एक योजना में लग गया। उसने अपने दो मित्र रानाडे व साठे तैयार किये। न्यायालय में उपस्थित होने से पहले इन तीनों ने दामोदर को पकड़वाने वाले द्राविड़ भाईयों को दण्ड देने का निश्चय किया। कुछ चांदी के दामों के बदले देश द्रोह करने वाले इन पापियों को वे दण्ड के बिना छोडऩा नही चाहते थे। भारतीय क्रांतिकारी इतिहास में यह प्रथम अवसर था। जब किसी द्रोही को दण्ड देने की व्यवस्था की जा रही थी। इसके बाद तो इस प्रकार के द्रोहियों व मुखबिरों की हत्या करने की एक लंबी परंपरा बन गयी।
द्राविड़ भाई इनाम का पैसा लेकर खूब मौज उड़ा रहे थे। फरवरी 1896 को इनाम का धन प्राप्त कर, विशेष उल्लास में मस्त हो, वे मुदलियार मंदिर में ताश खेल रहे थे। उन्हें दण्ड देने के लिए यही अवसर उपयुक्त समझा गया। वासुदेव व रानाडे ने नौकरों सा वेश पहन लिया। साठे को बाहर चौकसी करने के लिए खड़ा कर दिया गया। वासुदेव व रानाडे ने आगे बढ़कर दरवाजा खटखटाया। द्राविड़ भाई ताश में तल्लीन थे। वासुदेव ने नौकरों की सी भाषा में कहा कि पुलिस चौकी में ब्रुइन साहब उन्हें तुरंत बुला रहे हैं। संदेश देकर वे दोनों बाहर आ गये। द्राविड़ भाई भला पुलिस के संदेश को कैसे टाल सकते थे। हजारों की कमाई जो पुलिस के द्वारा हुई थी। दोनों पुलिस चौकी जाने के लिए बाहर निकले। वासुदेव और रानाडे अपने शिकार की प्रतीक्षा में थे। वे अभी दो सौ कदम ही आगे बढ़े होंगे कि दोनों देश भक्तों की गरजती गोलियों ने उन्हें द्रोह का दण्ड दे दिया। दोनों के घायल शरीर रक्त में स्नान करते हुए साथ ही नाली में लुढ़क गये। चारों ओर शोर मच गया। हजारों लोग दुर्घटना स्थल पर इकट्ठा हो गये। हजारों के इनाम से द्राविड़ परिवार में उल्लास व प्रसन्नता का वातावरण कुछ क्षणों में ही मातम में बदल गया। उनकी मां से अपने दो पुत्रों की लाशें एक साथ देखी न जाती थीं। आज उसे इन देश द्रोहियों की मां होने के दुर्भाग्य से कलंकित होना पड़ रहा था। डॉक्टर बुलाया गया पर प्राण पक्षी उड़ चुके थे निशाना ठीक लगा था। वे सदा की नींद सो चुके थे।
कई दिनों तक हत्यारों का कुछ पता न चला। वासुदेव रानाडे व साठे स्वतंत्र हो घूमते फिरते थे। किसी को उन पर जरा भी संदेह न हुआ। उधर बालकृष्ण पर पुलिस अभियोग तैयार कर रही थी। उसके विरूद्घ गवाही देने के लिए वासुदेव को विवश किया जा रहा था। हर रोज अधिकारी उसे अपने पास बुलाकर डोरे डालते। उसी संबंध में एक दिन वासुदेव से पुलिस चौकी में पूछताछ हो रही थी। वहीं पर एक सिपाही रामजी पाण्डु खड़ा था। उसने पूछताछ के दौरान वासुदेव के विरूद्घ कुछ ऐसे शब्द कह दिये, जिन्हें वह सह न सका। वह तो पहले ही अपने भाई बालकृष्ण के साथ फांसी पर चढऩे की तैयारी कर चुका था। अपमान जनक शब्द सुनकर वह शेर की भांति लपका। अपनी जेब से 6 बैरल की पिस्तौल निकालकर भरी सभा में उस सिपाही पर आक्रमणा कर दिया। सिपाही किसी प्रकार जान बचाकर भाग निकला।
वासुदेव को अब अच्छी प्रकार बांध दिया गया। उसकी तलाशी ली गयी। उसकी जेब से पिस्तौल के अतिरिक्त कुछ कारतूस व एक चाकू मिला। पुलिस को अपना बयान देते हुए उस 18 वर्ष के वीर तरूण ने कहा मैंने द्राविड़ भाईयों को अपने देश भक्त भाई के साथ किये गये द्रोह का बदला चुकाने के लिए मारा है। मैं अपने भाई के विरूद्घ गवाही देने की बजाए मरना अधिक अच्छा समझता हूं। उसके बाद रानाडे के घर की तलाशी भी ली गयी। उसके पास भी पिस्तौल व कारतूस प्राप्त हुए। न्यायालय का नाटक प्रारंभ हुआ। बालकृष्ण वासुदेव (दोनों चाफेकर बंधु) व रानाडे को हत्या के आरोप में फांसी की सजा हुई। साठे को 7 वर्ष कारावास का दण्ड दिया गया।
किसी किसी उपवन में सभी फूल एक दूसरे से बढ़कर निकलते हैं। चाफेकर बंधुओं को माता के तीन पुत्र थे। तीनों भारत मां की गुलामी की बेडिय़ों को तोडऩे के प्रयत्न में फांसी पर झूल गये। एक मां के तीन पुत्र तीनों देश के लिए अर्पण इतिहास में ढूंढऩे पर भी ऐसा उदाहरण नही मिलेगा। चाफेकर बंधुओं के बलिदान ने तब के देश के तारूण्य को झकझोर सा दिया। बाद के महान देशभक्त वीर सावरकर तब केवल 14 वर्ष के थे। रात के समय बाल सावरकर ने चाफेकर बंधुओं के बलिदान पर एक कविता लिखी। कविता बड़ी भावप्रवीण व मार्मिक थी। अपनी ही कविता के पद्यों को बार बार पढ़कर उस सूनी रात में वे रोने लगे। हिचकियां बंध गयीं। पिताजी जग पड़े। उन्होंने दूसरे कमरे में रोते सावरकर को देखा। बड़े विस्मित हुए। उन्होंने सावरकर को समझाया कि वह अन्य विषयों पर कविता लिखा करें।
चाफेकर बंधु भारत की स्वतंत्रता के वैभवशाली प्रसाद की अतीव गहरी नींद में सदा के लिए समाप्त हो गये, अपने पीछे बलिदान व त्याग की एक उज्जवल परंपरा छोड़कर।