रामायण एक ऐसा ग्रंथ है जिसके प्रमुख पात्र रामचन्द्र जी को मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के रूप में सम्मान प्रदान किया गया है । इसी रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र जी को न केवल भारतवर्ष अपितु संसार के सभी देशों में समान रूप से सम्मान प्रदान किया गया है । यह अलग बात है कि ईसाइयत और इस्लाम के आने के उपरान्त कुछ देशों में उनके प्रति इस प्रकार के सम्मान में कमी आई । यद्यपि इसमें दोष केवल ईसाइयत और इस्लाम का भी नहीं है , दोष हमारी सरकारों का भी रहा है , जिन्होंने स्वतंत्रता के उपरान्त भी मर्यादा पुरुषोत्तम की मर्यादाओं को वैश्विक पटल पर स्थापित करने और उन्हें सच्चा मानवता प्रेमी और पंथनिरपेक्ष शासक के रूप में स्थापित करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। इतना ही नहीं ,संविधान की मूल प्रति में जो चित्र स्थापित किए गए थे उनमें श्रीराम जी भी चित्र था, जिसे आगे चलकर केवल इसलिए हटा दिया गया कि इससे शासन के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप पर संकट खड़ा हो जाएगा ? जिन लोगों ने सरकार पर ऐसा दबाव बनाकर संविधान की मूल प्रति में से रामचंद्र जी का फोटो हटवाया , उनके उस अपराध पर भी पर्दा डाल दिया गया। अस्तु ।
हमारे देश में ग्रंथों में मिलावट करने की परम्परा बहुत पुरानी है । प्रक्षिप्त अंश डाल – डालकर रामायण का भी गुड़ गोबर करने में ऐसे स्वार्थी लोगों ने कोई कमी नहीं छोड़ी है। मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी महाराज के चरित्र पर भी ऐसे स्वार्थी लोगों ने अपने प्रक्षिप्त अंश डालकर उनकी मर्यादाओं पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।
यदि बात रामायण की करें तो रामायण में उत्तरकांड को जोड़कर पूरा का पूरा एक प्रक्षिप्त अध्याय ही डाल दिया गया है। जिसमें रामचंद्र जी के द्वारा सीता को वनवास देने की काल्पनिक कथा भी जोड़ दी गई है । जिससे रामचंद्र जी की सारी मर्यादाएं या तो काल्पनिक दिखाई देती हैं या भंग होती हुई दिखाई देती हैं । आज हम इसी विषय पर प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे कि एक ओर रामचंद्र जी का वह मर्यादा पथ है जिस पर चलने का साहस संसार का हर कोई व्यक्ति नहीं कर सकता और दूसरी ओर उनके द्वारा सीताजी को दिया गया वनवास का कठोर निर्णय है , सत्य कौन सा है ? ऐसे में यह कैसे संभव है कि श्री रामचंद्र जी एक ओर इतने कठोर आत्मानुशासी व्यक्ति होने की छाप छोड़ें और दूसरी ओर वह इतने निष्ठुर और क्रूर हो जाएं कि न्याय के नैसर्गिक सिद्धांतों की भी उपेक्षा करते हुए दिखाई दें ?
यदि रामायण का अनुशीलन किया जाए तो हमें रामचन्द्र जी के भीतर कुछ ऐसे विशिष्ट गुण दिखाई देते हैं , जिनसे वह साधारण मनुष्य नहीं बल्कि असाधारण और दिव्यात्मा महापुरुष दिखाई देते हैं । कदाचित अपने इन्हीं गुणों के कारण भारत में उन्हें भगवान की संज्ञा से भी विभूषित किया गया । वह ऐसे मर्यादा पुरुषोत्तम है जो आत्मिक बल से युक्त हैं अर्थात जिसने अपना अंत:कारण अपने वश में किया हुआ है, वह अपने अंतःकरण को सदा शुद्ध और पवित्र रखने वाले दिव्य व्यक्तित्व के स्वामी हैं । श्रीराम असाधारण क्षात्र तेज से दीनतारहित अत्यंत कष्टदायक प्रसंग उपस्थित होने पर भी अपने अंतःकरण में किसी प्रकार का भय उत्पन्न नहीं होने देते , चंचलता उन्हें छू तक भी नहीं गई है और लोभ उन्हें कभी उत्पन्न नहीं होता ।
वह परम संयमी हैं , परम नीतिवान हैं , उनकी धर्मज्ञता अतुलनीय है । वह समुद्र के समान गंभीर , पृथ्वी के समान क्षमाशील , कुबेर के समान दाता हैं , धर्म का सदा पालन करने वाले , समभाव से सबके साथ प्रीतिपूर्वक बर्ताव करने वाले , महान व्यक्तित्व के स्वामी हैं ।
उनकी राष्ट्रीय वृत्ति भी देखने योग्य है । उनके साथ सदा सज्जन रहते हैं , दुर्जनों को अपने पास फटकने तक नहीं देते । वह संपत्तिमान हैं । प्रजा के धारण पोषण करने की शक्ति से युक्त हैं । वे शत्रु दलन करने में तनिक भी देर नहीं करते । वे ज्ञान संपन्न हैं । विद्वान , आत्मा – अनात्मा पदार्थ के तत्त्वदर्शी हैं । बुद्धिमान , स्मृतिमान हैं , प्रतिभावान हैं , वेद – वेदांग समझने वाले तत्वदर्शी शूरवीर हैं । वक्तृत्व कला में उनके समान कोई नहीं । वे सुदृढ़ शरीर वाले हैं , ब्रह्मचारी हैं , एक पत्नी व्रत में विश्वास रखने वाले और भारत की परम्परा को मानने वाले हैं ।
इसके अतिरिक्त वह एक आदर्श विनय संपन्न शिष्य हैं । पत्नी के प्रति असीम प्रेम रखते हैं , लेकिन इसी प्रकार अपने भाइयों के बिना भी संसार में जीना उचित नहीं मानते । माता – पिता के प्रति उनकी असीम श्रद्धा है तो ईश्वर के प्रति भी उनकी भक्ति वंदनीय है , आदर्श भ्रातृ प्रेम और मातृ प्रेम में उनके समान कोई दिखाई नहीं देता । वह कृतज्ञतापूर्ण हृदय को रखने वाले हैं । शरणागत वत्सल हैं , आदर्श मैत्री भाव में विश्वास रखते हैं । अपनी प्रजा के प्रति भी असीम प्रेम रखते हैं , औदार्य की मूर्ति हैं , राष्ट्रपुरुष हैं । वे वेदवित और धर्म परायण हैं । वेद के अनुसार अपना जीवन चलाने में विश्वास रखते हैं । स्वदेशी और स्वराज्य के संस्थापक ऐसे श्रीराम भारत के ही नहीं संसार के भी आदर्श महापुरुष हैं।
ऐसे और भी अनेकों दिव्य गुणों से विभूषित श्री राम से यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि उन्होंने अपनी पत्नी सीता को किसी धोबी की कही सुनी बात के आधार पर वनवास दे दिया था ?
मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र जी महाराज के ऐसे दिव्य गुणों से भूषित चरित्र को दृष्टिगत रखते हुए अब तनिक उस घटना पर विचार करते हैं जिसके आधार पर सीताजी को उन्होंने वनवास दिया था या उनकी दोबारा परीक्षा लेने के लिए जनता के समक्ष भी उन्हें अग्नि परीक्षा देने के लिए विवश किया था ?
हम सभी यह जानते हैं कि सीता जी की अग्निपरीक्षा रामचंद्र जी श्रीलंका से अयोध्या लौटने से पूर्व ही ले चुके थे । जहाँ पर सभी देवताओं अर्थात महापुरुषों की उपस्थिति में सीता जी ने अपनी अग्निपरीक्षा दी थी
। जिसमें वह सफल भी रही थीं । रामचंद्र जी स्वयं भी जानते थे कि सीता निष्पाप हैं , परंतु इसके उपरान्त भी उन्होंने मर्यादा का ध्यान रखते हुए वहाँ पर ऐसा किया तो लोगों ने उसको उनकी मर्यादा के प्रति निष्ठा का ही एक कारण मान लिया । परन्तु इसके उपरान्त एक दिन एक धोबी के कहने पर उन्होंने अपने भाई लक्ष्मण को अचानक आदेश दिया की तुम जाओ और सीता को वन में जाकर छोड़कर चले आओ । इसके साथ ही उन्होंने भरत और शत्रुघ्न को भी बुलाकर अपने इस निर्णय की सूचना दे दी। धर्मज्ञ , तत्त्वदर्शी , सदा संयम और धैर्य के साथ निर्णय लेने वाले श्री राम ने यहां पर अपने तीनों भाइयों को पहले ही यह कहकर चुप कर दिया कि तुम्हें बोलने का कुछ भी अधिकार नहीं होगा , जो मैं कहने जा रहा हूँ , बस वही करना होगा । इसके पश्चात तीनों भाई चुप रह जाते हैं और अगले दिन लक्ष्मण सीताजी को बिना बताए वन में जाकर छोड़ आते हैं । घटना कुछ लंबी है, लेकिन उसको मैंने संक्षेप में यहां पर रखने का प्रयास किया है।
जिन मर्यादा पुरुषोत्तम राम को हम सदा मर्यादाओं का पालन करते हुए देखते हैं और जिन्हें हम धर्मज्ञ और तत्वदर्शी मानते नहीं थकते , जिनसे हम सदा संयम और धैर्य के साथ निर्णय लेने की अपेक्षा करते हैं , उस मर्यादा पुरुषोत्तम ने सीता को ‘बिना दलील , बिना वकील और बिना अपील’ के ही जंगल में भेज दिया , ऐसा करके उन्होंने कौन सी मर्यादा का पालन किया ?
आज के कानून और न्याय व्यवस्था में हम बहुत सारी कमियां देखते हैं , परंतु इसके उपरान्त भी आज की न्याय प्रणाली भी अपने न्याय के इस सिद्धांत के आधार पर कार्य करती है कि अभियुक्त को उसका अपराध बताया जाएगा और उसे अपना स्पष्टीकरण देने का अवसर भी दिया जाएगा । जब तक कानून के प्रावधानों के अंतर्गत उसे कोई दंड निर्धारित नहीं कर दिया जाता है तब तक उसे अपराधी भी नहीं माना जाएगा । पूरी जांच-पड़ताल और अपराध सिद्ध होने पर अपराध की गंभीरता के अनुसार आज की न्याय प्रणाली भी अपराधी को दंड देती है। परंतु हम सीता के साथ न्याय के इस नैसर्गिक सिद्धांत के आधार पर कोई न्याय होता नहीं देखते हैं ? वह भी मर्यादा पुरुषोत्तम राम के द्वारा जिनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वह सीता को सुनने का अवसर देंगे , भाइयों को सुनने का भी अवसर देंगे ।
इतना ही नहीं वह इस प्रकरण में न्याय भी स्वयं नहीं करेंगे। क्योंकि वह इस सारे प्रकरण में स्वयं भी एक पक्ष हैं । कारण कि धोबी ने सीता की पवित्रता पर कोई आरोप नहीं लगाया था, बल्कि उन्होंने राम पर आरोप लगाया था कि मैं श्रीराम नहीं हूँ जो अपनी पत्नी को दूसरे के यहाँ रहने के उपरान्त भी स्वीकार कर लेते हैं । जब श्रीराम स्वयं एक पक्ष हो गए तो उनको न्याय करने का अधिकार कहां रह गया ? आरोप उन पर स्वयं पर लगा है और दंड की पात्र वह सीता को मान रहे हैं , इससे लोक में उनके प्रति क्या धारणा बनती ? क्या श्रीराम ने इस विषय पर निर्णय लेने से पहले विचार नहीं किया होगा ? यदि न्याय ही करना था तो फिर उन्हें स्वयं अपने गुरुजी से या अपनी मंत्रिपरिषद से या प्रजाजनों से अपने लिए न्याय मांगना चाहिए था कि क्या मैंने सीता को (एक बार परीक्षा लेने के उपरान्त भी अपनाकर ) कोई पाप किया है ? यदि हां , तो मेरे लिए कौन सी सजा आप लोग निर्धारित करेंगे ? कृपया मुझे बताने का कष्ट करें।
सीता को सुनवाई का कोई अवसर दिए बिना दिए गए इस प्रकार के हास्यास्पद दंड पर स्वामी विद्यानंद सरस्वती जी प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि :– ” सीता के साथ ऐसा कुछ नहीं किया गया । लक्ष्Lमण उसे ऋषि-मुनियों के गंगा तट पर स्थित आश्रमों की सैर कराने के बहाने ले जाकर ( जैसे दुष्ट लोग छोटे बच्चों को टॉफी का लालच देकर बहका ले जाते हैं ) जंगल में ले गया और छोड़कर चलते समय बता दिया कि तुम्हारे चरित्र में संदेह के कारण फैले हुए अपवाद से बड़े भैया ने तुम्हारा परित्याग कर दिया है । तात्पर्य यह है कि जेल के सीखचों में जन्म भर के लिए बंद करके उसे बता दिया गया कि तुम्हारे बारे में सुनने में आया है कि तुम ने चोरी की है । चोरी के कारण नहीं , चोरी का ‘संदेह’ होने के कारण तुम्हें दंड दिया गया है। यद्यपि दंड देने वाले मजिस्ट्रेट ने मुझसे कहा है कि – सीता निरपराध है।
• आज की न्याय व्यवस्था का एक सिद्धांत यह भी है कि एक ही अपराध के लिए किसी भी व्यक्ति को दो बार दंडित नहीं किया जा सकता । जब सीता जी के चरित्र पर संदेह होने की बात को लेकर समस्त ऋषि यों ने एक स्वर से सीता को निर्दोष घोषित कर दिया था तब किसी धोबी के कहने मात्र से उन्हें दोबारा उसी के लिए दंडित करना कहां की न्याय प्रियता कही जाएगी ?
यदि अपराध का निश्चय हो जाने पर राम को सीता का परित्याग करना ही पड़ता तो भी उसके रहने सहने और गर्भावस्था में अपेक्षित चिकित्सा आदि की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए थी । आज भी कारावास में व्यक्ति के स्तर के अनुरूप उसके जीवन यापन की व्यवस्था की जाती है । परित्यक्ता के लिए जीवन भर की भरण पोषण की जिम्मेदारी पति की होती है । यदि संबंध विच्छेद के समय स्त्री गर्भवती है तो बच्चे का जन्म होने तक पति की विशेष जिम्मेदारी होती है।
इस प्रसंग में हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि किन्ही दुष्ट प्रकृति के लोगों की पुष्टि के लिए या उनके मन की तसल्ली के लिए किसी निर्दोष व्यक्ति को फांसी पर चढ़ाना भी अपने आप में एक जघन्य अपराध है । यदि कोई न्यायाधीश ऐसा करता है तो वह न्यायाधीश भी न्यायाधीश होने के योग्य नहीं । हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सीता श्रीराम की पत्नी थीं , पर वे ‘राजा’ राम की प्रजा भी तो थीं । इस दृष्टिकोण से उन्हें अपने राजा से न्याय पाने का अधिकार था और राम को अपनी प्रजा होने के कारण सीता को सुनने का अवसर देना अपेक्षित था।
यह कदापि संभव नहीं है कि रामचंद्र जी सीता जी को उस समय निकालते जिस समय वह गर्भवती थीं , निश्चित रूप से सीता जी के के गर्भ में न केवल रामचंद्र जी के शिशु पल रहे थे बल्कि भारत या आर्यावर्त के भविष्य के सम्राट भी पल रहे थे। रामचंद्र जी यह भली प्रकार जानते थे कि गर्भवती महिला के साथ यदि उत्पीड़नात्मक कार्यवाही की जाएगी तो उसका प्रभाव निश्चित रूप से गर्भ में पल रहे बच्चों पर पड़ेगा और फिर वह बच्चे बड़े होकर जब राजा बनेंगे तो उनके विचार आज की उत्पीड़नात्मक कार्यवाही से अवश्य प्रभावित होंगे , जिसका परिणाम प्रजा को भुगतना पड़ेगा। वैज्ञानिक , तार्किक और धैर्य पूर्ण बुद्धि के स्वामी रामचंद्र जी इन सब बातों पर विचार करते हुए कभी भी यह निर्णय नहीं लेते कि वह सीता जी को वन में भेज देते।
[ ] इस संबंध में है कृष्ण दत्त ब्रह्मचारी जी का यह निष्कर्ष हमें कहीं अधिक उचित और तर्कसंगत जान पड़ता है कि जब रामचंद्र जी अपनी मां कौशल्या के गर्भ में थे तो मां कौशल्या ने एक सात्विक विचारों के शिशु के निर्माण के लिए स्वयं वन में जाकर रहना पसंद किया था । जहाँ पर उन्होंने ऋषि आश्रम में पूर्ण सात्विक परिवेश और सात्विक विचारों में रहते हुए गर्भस्थ शिशु का निर्माण किया था । जिसका परिणाम यह हुआ कि वह शिशु ही मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाया और जब उन्हें वन में जाने का भी अवसर प्राप्त हुआ तो उसे भी उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। यह तभी संभव था जब माँ ने गर्भावस्था काल में उन्हें ऐसी सब चीजों के सहर्ष सहन करने की शिक्षा दी थी। यदि माँ के विचार राजसिक या तामसिक होते तो निश्चय ही उसका प्रभाव गर्भस्थ शिशु राम पर पड़ता अब वह वन में न जाकर घर में रहते हुए ही या तो पिता को मारते या फिर भाई को मारते और तब इतिहास ही कुछ दूसरा होता । ऐसे में बहुत संभव है कि सीता जी ने मां कौशल्या के आदर्श उदाहरण को सामने रखकर अपने गर्भस्थ शिशुओं के निर्माण के लिए स्वयं ही बन जाने का प्रस्ताव रामचंद्र जी के समक्ष रखा हो।
कुल मिलाकर सीता के वनवास की कपोल कल्पना से भरी इस कहानी को अब हमारे देश के युवाओं को न पढ़ाना चाहिए न सुनाना चाहिए। क्योंकि इससे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की न्याय प्रियता और उनका मर्यादा पुरुषोत्तम स्वरूप दोनों ही प्रभावित हो रहे हैं । सरकार को रामायण के प्रक्षिप्त उत्तरकांड को रामायण से यथाशीघ्र निकाल देना चाहिए । साथ ही जो रामायण धारावाहिक प्रसारित किया जा रहा है , उसमें भी यथावश्यक संशोधन किया जाए और सत्य – सत्य घटनाओं को वैज्ञानिक , बौद्धिक व तार्किक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया जाए। राम को हम मर्यादा पुरुषोत्तम मानते हैं तो उनके उसी स्वरूप को स्थापित रखते हुए उनके आदर्श और विश्ववन्द्य चरित्र के विरुद्ध जाने वाली बातों को रामायण से निकाला जाना अपेक्षित है। सच यही है कि रामचंद्र जी के द्वारा सीता जी को कोई वनवास नहीं दिया गया था , ऐसी घटना की रामचंद्र जी से कोई अपेक्षा भी नहीं की जा सकती।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत