योगेन्द्र योगी
सारे कायदे−कानून गरीब व पिछड़ों पर ही लागू होते हैं। यही वजह है कि देशभर में लॉकडाउन का पालन कराने के दौरान पुलिस डंडे बरसाती नजर आई और बिहार के विधायक कायदे−कानूनों को ठेंगा दिखाते हुए आसानी से अपनी बेटी को कोटा से ले आए।
देश में चल रहे लॉकडाउन के बहाने राजनीतिक दलों का भी चरित्र उजागर हो गया है। लॉकडाउन में भी मदद के नाम पर वोट बैंक की राजनीति हावी है। राजनीतिक दल फायदे का जोड़ भाग लगाकर ही मदद की रेवड़ियां बांट रहे हैं। राजनीतिक दलों की कथनी और करनी में कितना अंतर है, इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि गरीबों की मदद की सिर्फ थोथी घोषणांए ही की जाती हैं। गरीब तबके को नीति−नियंताओं ने भगवान के रहमोकरम पर छोड़ दिया है। यह बात दीगर है कि इनके भले के नाम पर राजनीति की रोटियां खूब सेंकी जा रही हैं।
राजस्थान के कोटा शहर में दूसरे राज्यों के हजारों परीक्षार्थी फंसे हुए हैं। ये सभी यहां कोचिंग लेने आए थे। लॉकडाउन लागू होने के कारण यहीं अटक कर रह गए। लॉकडाउन में केंद्र और राज्य सरकारों ने साफ कहा कि जो जहां है, वहीं रहेगा, सरकारें उनके खाने−पीने का बंदोबस्त करेंगी। इसके बावजूद इन विद्यार्थियों के परिजनों ने राज्य सरकारों पर दबाव डालना शुरू किया। फलस्वरूप उत्तर प्रदेश भाजपा की योगी आदित्यनाथ की सरकार ने पहल करते हुए सैंकड़ों बसें भेज कर विद्यार्थियों को बुलवा लिया। इससे दूसरे राज्य की सरकारों पर कोटा में फंसे अपने राज्य के विद्यार्थियों को भी लाने का दबाव बढ़ गया।
कोटा में अब बिहार और पश्चिम बंगाल के सर्वाधिक युवा अटके हुए हैं। इनके परिजनों में अब इन राज्यों की सरकारों को लेकर भारी आक्रोश व्याप्त है। यह स्वाभाविक भी है, जब उत्तर प्रदेश की सरकार अपने राज्यों के युवाओं को कोटा से बुलवा सकती है, तब अन्य राज्यों की सरकारें ऐसा क्यों नहीं कर सकती। दरअसल इन तीनों राज्यों में अलग−अलग राजनीतिक दलों की सरकारें हैं। इसलिए वे अपने राजनीतिक गणित के हिसाब से लॉकडाउन की नीति अपना रही हैं।
उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार पर कोटा से इन युवाओं को लाने का दबाव इसलिए भी बढ़ गया कि क्योंकि इसी सरकार ने सबसे पहले दिल्ली में फंसे हजारों मजदूरों को वापस लाने के लिए बसों का इंतजाम किया था। दूसरे राज्यों की सरकारें ऐसा करने में नाकाम रहीं। देश भर से ऐसी खबरें मिलने लगीं कि श्रमिक सैंकड़ों किलोमीटर की यात्रा करके अपने गांव−घर पहुंचे हैं। इस बीच छत्तीसगढ़ से एक दर्दनाक खबर भी आई कि तेलंगाना मजदूरी करने गई एक बालिका ने लौटते वक्त सौ किलोमीटर की पैदल यात्रा के बाद घर से महज कुछ किलोमीटर की दूरी पर दम तोड़ दिया।
दरअसल दम केवल जमलो मड़कम नाम की इस बालिका ने नहीं तोड़ा, इसी के साथ गरीबों के लिए बनाई पूरी व्यवस्था ने तोड़ा है। राज्यों की सरकारों ने लॉकडाउन में जहां−तहां फंसे श्रमिकों को उनके हाल पर जीने−मरने के लिए छोड़ दिया है। दिखाने को ही इनके लिए इंतजाम किए जा रहे हैं, पर हकीकत जमलो की मौत जैसी है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने साफ कह दिया है कि वे किसी भी सूरत में कोटा के छात्रों को लाने का कोई इंतजाम नहीं करेंगे। इसका कारण भी है यदि नीतीश कुमार हजारों परिजनों के दबाव में ऐसा कदम उठाते हैं तो उन्हें उन हजारों मजदूरों और उनके परिजनों को जवाब देना भारी पड़ जाएगा कि उन्हें किसके भरोसे दूसरे राज्यों में छोड़ रखा है।
गौरतलब है कि दूसरे राज्यों में भी बिहार के ही सर्वाधिक मजदूर फंसे हुए हैं। यही वजह भी है कि कोटा से छात्रों को बुलाने की पहल करने वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की नीतीश कुमार ने तीखी आलोचना की है। कारण साफ है कि कोटा में फंसे बिहार के छात्रों के परिजनों ने नीतीश सरकार पर दबाव बढ़ा दिया कि जब उत्तर प्रदेश सरकार ऐसा कर सकती है तो बिहार सरकार सरकार क्यों नहीं। नीतीश के लिए इधर कुंआ तो उधर खाई वाली हालत है। नीतीश सरकार की मुश्किलें भाजपा के ही एक विधायक ने ओर बढ़ा दी। भाजपा का यह विधायक कार से अपनी बेटी को कोटा से बिहार ले आया। इससे भी बिहार सरकार की खासी किरकिरी हो रही है।
सारे कायदे−कानून गरीब व पिछड़ों पर ही लागू होते हैं। यही वजह है कि देशभर में लॉकडाउन का पालन कराने के दौरान पुलिस डंडे बरसाती नजर आई और बिहार के विधायक कायदे−कानूनों को ठेंगा दिखाते हुए आसानी से अपनी बेटी को ले आए। इससे भी साफ जाहिर है कि रसूखदारों के लिए लॉकडाउन कोई मायने नहीं रखता। यदि ऐसा नहीं होता तो जितना शोर−शराबा कोटा में छात्रों के लिए मच रहा है, उतना ही इधर−उधर फंसे श्रमिकों के लिए भी मचता। किन्तु इन श्रमिकों की आवाज उठाने वाला कोई नहीं है। इन्हें ना तो सोशल मीडिया का इस्तेमाल करना आता है और ना ही इनके पास धन की ताकत है। इससे इनके दुख−तकलीफों की आवाज बेहद कमजोर पड़ गई है। इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है।
लॉकडाउन में सर्वाधिक मार इस श्रमिक तबके पर ही पड़ रही है। रोजगार तो हाथ से चला ही गया और घरों से भी दूर फाका मार रहे हैं। राज्य सरकारें दूसरे राज्यों के श्रमिकों का खास ख्याल इसलिए भी नहीं रख पा रही हैं कि उनके अपने राज्य की जनता की ही परेशानी काफी है। गरीबों का भला करने का दंभ भरने वाली राज्यों की सरकारों के पास अपने ही लोगों तक जरूरी सुविधाओं के लिए न तो पर्याप्त सामग्री है और ना ही नेटवर्क। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब सामान्य दिनों में ही सत्तारुढ़ दल गरीब वर्ग तक योजनाओं का फायदा नहीं पहुंचा पाते तब लॉकडाउन में ठप्प पड़ी सरकारी मशीनरी से कैसे पहुंचा पाएंगे।
यदि सामान्य दिनों में योजनाओं को ईमानदारी से लागू किया जाता तो लॉकडाउन में गरीब−पिछड़े तबके को ज्यादा खराब दिन नहीं देखने पड़ते। इससे जाहिर है कि सरकारों की नीतियां हाथी के दांत खाने के ओर दिखाने के ओर जैसी हैं। कागजों में बेशक एक से एक बेहतरीन घोषणाएं की जाएं, किन्तु वास्तविकता में योजनाएं उन तक पहुंचती ही नहीं हैं। राजनीतिक दल सिर्फ शोर मचाने की ताकत रखने वालों का ही ध्यान देते हैं, गरीब और पिछड़े तो पहले भी किस्मत के भरोसे थे और आज भी उसी के भरोसे हैं।