श्रीमदभगवत गीता के पहले अध्याय में कर्म योगी श्री कृष्ण जी महाराज ने निम्न प्रकार उपदेश दिया है ;-
कुल के क्षय हो जाने पर उनके जो सनातन धर्म है, उनकी जो सनातन परंपराएं हैं ,सदियों के अनुभव के आधार पर कुल की जो मर्यादा बन चुकी हैं ,वे नष्ट हो जाती हैं ,जब कुल की परंपरा व मर्यादा नष्ट हो गई तब इन परंपराओं के नष्ट हो जाने पर संपूर्ण कुटुंब में संपूर्ण समाज में अधर्म का बोलबाला हो जाता है ।
कुल का तात्पर्य यहां केवल परिवार से नहीं है , बल्कि अपने निकट का सारा सामाजिक समुदाय भी इसी परिवार में आ जाता है।
इससे आगे कहते हैं कि जब कुटुंब तथा समाज में अधर्म फैल जाता है तब हे वार्ष्णेय ! कुटुंब तथा समाज की स्त्रियों की स्थिति बिगड़ जाती है। जब स्त्रियों भ्रष्ट हो जाती हैं तब वर्णसंकर हो जाता है। जातियों का मिश्रण हो जाता है। और यह वर्णसंकरतम कुल नष्ट करने वालों को और कुल को दोनों को निश्चय से नरक में ले जाती है , क्योंकि इनके पितरों को ,बुजुर्गों को ,बड़े बूढ़ों ,को दाना पानी देने वाला कोई नहीं रहता, और बेचारे जीवन में ही नरक भोगने लगते हैं।
कुल का हनन करने वाले लोगों के वर्णसंकरता उत्पन्न करने वाले इन दोषों के कारण जाति , धर्म तथा सदा से चले आ रहे कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं । न समाज की परंपरा बनी रहती हैं न कुल की परंपराएं बनी रहती है। हे जनार्दन ! हम यह सुनते आए हैं कि जिन मनुष्यों के कुल धर्म, कुल की मर्यादा परंपरा, कुल की संस्कृति नष्ट हो जाती है वे अनियत काल के लिए नर्क में बसते हैं।
महर्षि दयानंद ने अमर ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के चतुर्थ समुल्लास में व्यवस्था दी है कि “धर्म आचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम – उत्तम वर्णों को प्राप्त होता है और वह उसी वर्ण में गिना जाए कि जिस जिस के योग्य होवे। वैसे ही अधर्म आचरण से पूर्व अर्थात उत्तम उत्तम वर्ण वाला मनुष्य अपने से नीचे -नीचे वाले वर्णों को प्राप्त होता है और उसी वर्ण में गिना जावे । जैसे पुरुष जिस वर्ण के योग्य होता है वैसे ही इस तरह की व्यवस्था समझनी चाहिए।
इससे क्या सिद्ध हुआ कि इस प्रकार होने से सब वर्ण अपने – अपने गुण कर्म स्वभाव युक्त होकर शुद्धता के साथ रहते हैं ,अर्थात ब्राह्मण कुल में कोई क्षत्रिय वैश्य और शूद्र के सदृश न रहे और क्षत्रिय वैश्य तथा शूद्र वर्ण भी शुद्ध रहते हैं अर्थात वर्णसंकरता प्राप्त नहीं होगी ।इससे किसी वर्ण की निंदा या अयोग्यता भी न होगी । गुण कर्मों से वर्णों की व्यवस्था कन्याओं की 16 वर्ष और पुरुष की 25 वर्ष की परीक्षा नियत करनी चाहिए।”
यहां परीक्षा से तात्पर्य है कि वर्ण का निश्चय आचार्य का कार्य होगा । जैसा कि मनु जी ने भी कहा है कि यह वर्ण निश्चय केवल आचार्य के द्वारा किया जाएगा और वह भी विद्या समाप्ति पर ही संभव है । इसलिए यहां पर शब्द परीक्षा प्रयोग किया गया है और इसी क्रम से ब्राह्मण वर्ण का ब्राह्मणी , क्षत्रिय वर्ण का क्षत्रिय , वैश्य वर्ण का वैश्या , शुद्र वर्ण का शुद्रा के साथ विवाह होना चाहिए तभी अपने – अपने गुणों के कर्म और परस्पर प्रीति भी यथा योग्यरहेगी।”
हमें ध्यान रखना चाहिए कि यहां वर्ण व्यवस्था से तात्पर्य जाति से नहीं है। वर्ण के विषय में ऊपर कहा जा चुका है कि शिक्षा के अनुसार आचार्य को तय करना होता था कि यह छात्र विद्या अध्ययन के पश्चात कौन से वर्ण का होगा ? वस्तुतः यह कार्य समावर्तन संस्कार के समय संपन्न किया जाता था। जिस समय विद्यार्थी अपने गुरुकुल से शिक्षा पूर्ण करके घर की ओर प्रस्थान करता था तब जो दीक्षांत समारोह होता था तो विद्यार्थियों के गुण , कर्म व स्वभाव के अनुसार आचार्य उन्हें उनका वर्ण बताकर भेजा करते थे।
बाल्मीकि रामायण के बालकांड के 62 वें अध्याय में यह व्यवस्था दी गई है की पिता की आज्ञा का उल्लंघन करने वाले पुत्रों को जाति से बहिष्कृत किया जा सकता है। अर्थात जो पिता की इच्छा के विपरीत यह वह भी करे तो भी वह ऐसी संतान को जाति बहिष्कृत किया जा सकता है।
इस कारण से वर्णसंकरता पर प्रतिबंध लगाया जाना अति आवश्यक है। बाल्मीकि रामायण ‘सत्यार्थ प्रकाश’ और गीता का ज्ञान वर्तमान परिवेश में पालन किया जाना राष्ट्र हित व समाज हित में अत्यंत आवश्यक है । परंतु वर्तमान में समाज में उक्त नियमों का पालन न होने से असंतोष, अशांति, दुख, क्लेश, वाद विवाद, मुकदमे बाजी, विवाह विच्छेदन आदि कार्य हो रहे हैं। ऐसे में हम किधर जा रहे हैं ?- इस प्रश्न का उत्तर है निश्चित रूप से समाज व राष्ट्र पतन के रास्ते पर अग्रसर है।
कहां जा रहा है तू ए जाने वाले ।
मन में अंधेरे तू दिया तो जला ले।
उपरोक्त पंक्तियों से प्रेरित होकर 9 जून 2000 को मैंने निम्नलिखित कविता बनाई थी जो मैं अपने विषय में स्वयं सोच रहा था मेरे भावों पर दृष्टिपात करने का कष्ट करें :-
यूं ही व्यर्थ जिए जा रहा हूं मैं
क्यों सुख-दुख के पाटों में पिसे जा रहा हूं मैं।।
खूब जानता हूं कि यह पानी है गंदा।
फिर भी इसे पिए जा रहा हूं मैं।।
पैदा होने के वक्त क्या लेकर के आए थे।
और अब क्या लिए जा रहा हूं मैं ?
कौल ओ करार तो था नहीं ऐसा।
फिर भी उसके विपरीत किए जा रहा हूं मैं।।
नहीं मुझे मालूम कि कहां है मुझे जाना ?
फिर भी मंजिल है तय किए जा रहा हूं मैं।।
मानता हूं की दुनिया है एक फानी ।
फिर भी परत दर परत उलझे जा रहा हूं मैं।।
सब कुछ जानते हुए चले जाता हूं।
नादान जान बूझकर किए जा रहा हूं मैं।।
किसी रोते हुए दुखिया को ना हंसाया मैंने।
व्यथित को क्यों रुलाए जा रहा हूं मैं ?
किसी वृद्ध के सामान को न उठाया मैंने।
निरर्थक सामान को उठाए जा रहा हूं मैं।।
किसी अबला की इज्जत को ना बचाया मैंने।
फिर भी रक्षक की ध्वजा लिए जा रहा हूं मैं।।
वसुधैव कुटुंबकम का मूल मंत्र है।
भाई को भाई से अलग किए जा रहा हूं मैं।
जब कृण्वंतो विश्वमार्यम् है हममें समाया।
क्यों इतना अपराध किए जा रहा हूं मैं ?
पता नहीं “देव” अपने काल के ग्रास का।
दूसरों के कफन लिए जा रहा हूं मैं।।
यूं ही व्यर्थ जिए जा रहा हूं मैं – – –
क्यों सुख-दुख के पाटों में पिसे जा रहा हूं मैं ?
यह मानव जीवन अमूल्य है। जो कि दुर्लभ होता है और कोटि-कोटि जन्मों के पुण्य के फल से प्राप्त होता है ।इसको हम यूं ही खोते चले जाते हैं।
हमको कुछ ऐसा करना चाहिए।
ए जीने वाले शौक से जी।
पर इतना समझ ले जीते जी।
वो जीना भी क्या जीना है ?
मर जाए तो दुनिया नाम ना ले।।
जब मां के गर्भ में था,और मल मूत्र के अंधकार में पड़े हुए था,जहां प्रकाश नहीं था, जहां घूम नहीं सकता था, जहां उल्टा लटका हुआ था ,तो ईश्वर से यह कहता था कि इस बार इससे निकाल दे फिर तेरी शरण में आऊंगा ।तेरी भक्ति करूंगा ।जन्म मरण के बंधन से छुटकारा पा मुक्ति पाऊंगा ।लेकिन जब गर्भ से बाहर आया तो संसार में आ करके ईश्वर से किए गए यह सभी वायदे भूल जाता हूँ । परिणामत: बार-बार जीना और मरना पड़ता है। कितनी बार जी लिए, कितनी बार मर लिए, इसका कोई हिसाब नहीं है। ईश्वर से गर्भ काल के समय में किए गए वायदे जब पूर्ण नहीं करता जीव तो उसका जीवन व्यर्थ हो जाता है। इस जीवन को सफल , सुफल और सार्थक यदि बनाना है तो ईश्वर की शरण में जाओ और मुक्ति पाओ।
आत्म तत्व अचल है, अमर है। मनुष्य अल्पज्ञ है। ईश्वर सर्वज्ञ है। ईश्वर वर्तमान भूत और भविष्य तीनों का ज्ञाता है। पिछले जन्मों में हमने क्या-क्या कर्म किए ? कहां कहां रहे ? किस किस के यहां पैदा हुए ? कितनी बार पैदा हुए? यह सब ईश्वर जानता है। ईश्वर यह भी जानता है कि क्या-क्या कर्म कौन कौन से जन्म में किए ?
ईश्वर यह भी जानता है कि कौन-कौन से कर्मों का फल भोग चुका है और कौन-कौन से कर्मों का फल अभी शेष है ? ईश्वर यह भी जानता है कि कौन से जन्म का कौन सा फल शेष है ,? क्योंकि शरीर नश्वर है और आत्मा अमर है और आत्मा की अमरता को ‘श्रीमदभगवतगीता’ के द्वितीय अध्याय में कर्म योगी श्री कृष्ण जी महाराज ने निम्न प्रकार स्पष्ट किया है।
“जैसे देह धारण करने वाले आत्मा को इस देह में बालपन ,यौवनऔर बुढ़ापा प्राप्त होता है उसी प्रकार आत्मा को दूसरे देह की प्राप्ति हो जाती है ।धीर व्यक्ति को इस बात से मोह में नहीं पड़ जाना चाहिए ।”
( 13 )
हे कुंती के पुत्र !आत्मा के अमर होते हुए भी आत्मा को उल्टा भान इसलिए होता है कि उसे सर्दी – गर्मी , सुख-दुख की अनुभूति इसलिए होती है क्योंकि आत्मा का मात्रा से इंद्रियों से स्पर्श रहता है । सर्दी – गर्मी , सुख – दुख का भान इंद्रियों को होता है । शरीर को होता है परंतु इंद्रियों तथा शरीर का आत्मा के साथ संपर्क होने के कारण वह भान आत्मा पर आरोपित हो जाता है । यह स्पर्श तो आते हैं जाते हैं ,अनित्य हैं ,सदा नहीं रहते, इसलिए हे भारत ! इन्हे सहन कर।”१४
अगर सर्दी – गर्मी इंद्रियों का सुख दुख शरीर का स्वभाव न होकर आत्मा का स्वभाव होता तो वही जन्मता वही मरता तो अन्यत्र मना अभूवम नापश्यम, अर्थात मेरा ध्यान दूसरी तरफ था , इसलिए मैं आंखों के खुला होते हुए भी न देख सका – ऐसी बात न होती ।आत्मा जब अपने आपको इंद्रियों के विषयों से अलग कर लेता है तब गर्मी होने पर गर्मी नहीं महसूस होती0 सर्दी होने पर सर्दी नहीं महसूस होती ,सुख की बात होने पर हर्ष नहीं होता ।दुख की बात होने पर कष्ट नहीं होता।
संसार का सुख – दुख क्यों है ? मात्रा स्पर्श के कारण है । मात्रा का अर्थ है संसार के विषयों को इंद्रियां मापती हैं , इसलिए मात्रा कहलाती है ।इंद्रियों के साथ स्पर्श से ही आत्मा को शांति और सुख दुख का अनुभव होता है परंतु आत्मा का इंद्रियों के साथ स्पर्श, मात्रा स्पर्श तो आग मापायी है आता है , जाता है , टिका थोड़े ही रहता है । आत्मा जब अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाता है तब मात्रा स्पर्श अपने आप टूट जाता है और तब इंद्रियां उसे न सुख की अनुभूति देती हैं , ना दुख की,ना सर्दी की अनुभूति देती हैं , ना गर्मी की। अगर आत्मा की ऐसी स्थिति आ जाती है , जैसा सबका अनुभव है कि आती है तब यह स्पष्ट है कि मात्रा स्पर्श अनित्य है। आत्मा का इंद्रियों के साथ स्पर्श सदा के लिए नहीं है। आत्मा और इंद्रियों के संबंध या इंद्रिय और विषयों के संबंध को गीता में मात्रा स्पर्श कहा है। अर्थात इंद्रियों के स्पर्श अर्थात छू जाने का संबंध। सुख-दुख के आपस में स्पर्श से, छू जाने से, मिलने से, संयोग से होती है। संयोग से जिसकी उत्पत्ति होती है ।संयोगज कहलाती है । जो वस्तु सन्योगज है अर्थात 2 के संबंध से बनी है तो वह संयोग के हटने से नष्ट हो जाएगी। सुख-दुख भी जब दो के संयोग से उत्पन्न होते हैं तो ये नित्य नहीं हो सकते ।तब इनसे आविष्ट होना,तन से सुखी होना या दुखी होना अनुचित है। अनुचित होते हुए भी ऐसी अवस्था में क्या किया जाए ? यह समझते हुए कि आत्मा का इंद्रियों के साथ अनित्य संबंध है , जब तक वह अनित्य संबंध बना हुआ है , तब तक सुख-दुख को बर्दाश्त करना होगा । इसलिए हे अर्जुन ! तुम्हें जो दु:ख हो रहा है उसे क्षणिक समझकर सहन करना होगा।”
“जिस आत्म सत्ता से हमारा यह सारा शरीर व्याप्त है वह अविनाशी है इस अव्यव आत्म सत्ता का कोई भी विनाश नहीं कर सकता ।” (१७)
“यह देश शरीर है यह आत्मा शरीर धारी है , इसलिए क्योंकि यह शरीर उसका है ।शरीर जिसका हो उसको संस्कृत में शरीरधारी कहते हैं ।उस मृत्य शरीर के आत्मा के यह देह तो अंत वाले हैं ,नष्ट हो जाने वाले हैं ।परंतु वह आत्मा स्वयं अविनाशी है, अज्ञेय है। ” (१८)
“आत्मा के विषय में जो यह समझता है कि यह मरता है या जो यह समझता है कि यह मारा जाता है, वे दोनों ही सत्य को नहीं जानते यह आत्मा न तो मरता है ,न मारता है ,ना मारा जाता है”। (१९)
“यह आत्मा न कभी उत्पन्न होता है ना कभी मरता है। ऐसा भी नहीं है कि एक बार जब यह अस्तित्व में आ गया तो फिर दोबारा होने का नहीं ,यह अजन्मा है, नित्य है ,शाश्वत है, पुरातन है, शरीर के वध हो जाने पर भी यह मरता नहीं है।” (२०)
“जैसे मनुष्य फटे पुराने वस्त्रों को छोड़कर दूसरे नए वस्त्र पहन लेता है, वैसे यह देही ,जीवात्मा, पुराने – पुराने, जीर्ण – शीर्ण शरीरों को छोड़कर नए शरीरों को प्राप्त करता है, धारण कर लेता है”। (२२)
शरीर और आत्मा के भेद को शरीर की अनित्यता और आत्मा की नित्यता को दर्शाने के लिए इससे अच्छा दृष्टांत नहीं दिया जा सकता । जैसे फटे पुराने कपड़े बदल दिए जाते हैं, मनुष्य वही रहता है ,जैसे जीर्ण – शीर्ण शरीर बदल जाता है, आत्मा वही रहता है ,नए कपड़े की तरह नए शरीर का धारण जन्म है। पुराने कपड़े की तरह पुराने शरीर को छोड़ देना मृत्यु है। इसमें आत्मा वही का वही रहता है ।आत्मा एक जन्म से दूसरे जन्म में चला जाता है ।जब आत्मा की मृत्यु ही नहीं , जिसे मृत्यु कहते हैं तो वह दूसरा जन्म है तब मरने से क्या डरना।
इसका यह अर्थ नहीं कि झट से, बेखटके उसको मार दिया जाए, जैसे वस्त्र का काम सर्दी गर्मी का निवारण करना है ,वैसे इस मानव शरीर का काम कर्मों का भोग है, जिन कर्मों के कारण यह शरीर मिला है उनका भोग समाप्त हो जाता है , तब इस शरीर को जीर्ण कहा जाता है। इसलिए कई व्यक्ति युवावस्था में शरीर छोड़ देते हैं ,कई वृद्धावस्था में ।इस श्लोक में जीर्णता का अर्थ बुढापा नहीं है , इसका अर्थ यह है कि जब शरीर कर्म फल भोग चुकता है तब आगे यह निरर्थक हो जाता है , यही शरीर की जीर्णता है ,और तब आत्मा शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करता है।
“इस आत्मा को शस्त्र छेद नहीं सकते न इसको अग्नि जला सकती है और न इसे पानी गीला कर सकता है , न वायु इसे सुखा सकता है। (२३)
“आत्मा अव्यक्त है इंद्रियों से ग्रहण करने का विषय नहीं है, अचिंत्य है ,मन से ग्रहण करने का विषय भी नहीं है। अविकार्य अर्थात सर्वथा विकार रहित उसे कहा जाता है “। (२५)
“यथार्थ दृष्टि आत्मा की अमरता की है।हे भारत !सब के शरीर में निवास करने वाला यह देही – देह का स्वामी आत्मा सदा ही अवध्य है। इसका कोई वध नहीं कर सकता।” (३०)
इससे निश्चित हुआ की आत्मा अचल है, अमर है, नित्य है, और मृत्यु केवल शरीर की होती है।
वास्तव में गीता वह अमर गीत है जिसे सुन , समझकर व गाकर असहाय , अशक्त और सर्वथा निराश हुआ व्यक्ति भी जीवन के संगीत को गाकर मस्ती का अनुभव कर सकता है । इस बात के लिए भी हम सौभाग्यशाली हैं कि जीवन के संगीत से परिचित कराने वाला यह महान ग्रंथ हमारे पास उपलब्ध है और इसको युद्ध के समय एक अमर संदेश के रूप में हमारे लिए प्रस्तुत करने वाले श्री कृष्ण भी हमारी ही इस पवित्र धरती पर विचरे थे ।
देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत