भारत में ईसाईयत का प्रचार किसी महामारी से कम नहीं है । हमारे देश में जहां-जहां भूखे नंगे लोग इनको नजर आते हैं वहीं यह करना प्रेम और सहयोग जैसे तथाकथित मानवता प्रेमी शब्दों के जाल में उन लोगों को फंसा कर अपना काम करना शुरू कर देते हैं। गरीबी और जिंदगी के अन्य अभावों से जूझ रहे हमारे अपने भाई बंधु इन तथाकथित मानवता प्रेमी ईसाइयों के जाल में फंसते चले जाते हैं।
मुझे बहुत दुख होता है जब झारखंड के गरीब आदिवासियों को विदेशी मिशनरियों या इसाई धर्मांतरणकारियों के चंगुल में फंसा हुआ देखता हूं ।
झारखंड राज्य सन 2000 में बिहार से अलग होकर बना है । हम सभी यह भली प्रकार जानते हैं कि झारखंड भारत में सबसे ज्यादा प्रचुर मात्रा में खनिज पदार्थ पाया जाने वाला राज्य है । परंतु यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि इस सब के उपरांत भी यहां विकास नाम की चीज शून्य रही है। यहां कोयला , मैग्नीज , तांबा , अल्मुनियम , आयरन इन सब की खदानें हैं यहां तक कि यूरेनियम की भी खदान हैं ।
राष्ट्रीय पटल पर इसके बावजूद यह क्षेत्र हमेशा उपेक्षित रहा । यहां के आम आदमी को आजादी के दशकों बाद भी वह लाभ नहीं मिला जिसकी उसे अपेक्षा थी । राज्य का त्वरित गति से विकास हो और हर आदमी को आधुनिकतम शैली में जीवन जीने का हक मिले यह सोचकर अलग राज्य का निर्माण हुआ है।
झारखंडी लोगों को कुछ राहत अवश्य मिली है। बिहार में जब एक साथ थे तो कुछ भी काम नहीं होता था । केवल यहां के खनिज पदार्थ का दोहन करके बाकी लोग ऐश करते थे । मतलब पटना बिहार के लोग अब थोड़ा सा कुछ हुआ है लेकिन फिर भी यहां बहुत कुछ करने की आवश्यकता है । स्वतंत्र राज्य के निर्माण होने के उपरांत भी लोग जिस प्रकार ईसाई मिशनरियों के चंगुल में फंसकर अपना धर्म परिवर्तन कर रहे हैं वह एक चिंता का विषय है। जिससे पता चलता है कि लोगों में अभी भी कहीं न कहीं असंतोष है और उन्हें अभी भी वे सुविधाएं नहीं मिली हैं , जिनकी उन्हें दरकार है।
आज भी अनेक क्षेत्रों में ऐसे गरीब लोग हैं जिनकी दारुण कथा को सुनकर या देखकर आंखों में आंसू आ जाते हैं । लगभग 2 वर्ष पहले मैं गुमला जिले के भ्रमण पर था । वहां अंजनी ग्राम है। जहां हनुमान जी का जन्म हुआ था । वहाँ अंजनी माता का मंदिर है। माता अपने गोद में हनुमान जी को लिए हुए हैं । इस मंदिर का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और इसी क्रम में गुमला जिला के कुछ स्थानों को देखने का मौका मिला । यहाँ गरीबी बहुत है । खेतों में सिंचाई की व्यवस्था नहीं है । पानी इस क्षेत्र में बहुत कम बरसता है । वहां के लोगों के खेत हैं कि जहां पानी नहीं बरसता है तो अनाज नहीं होता है। जब अनाज नहीं होता है तो सालों साल भूखे रहने की नौबत रहती है । बच्चे भी बेचारे भूखे रहते हैं । आज तक किसी भी सरकार ने झारखंड में सिंचाई की व्यवस्था ठीक प्रकार से नहीं की है । इनके गांव भी शहर से 40 से 50 किलोमीटर की दूरी पर हैं । अगर यह बेचारे मजदूरी करने जाएं भी तो इनको जाने में ही दिन भर लग जाएगा । लौटना तो इनके बस की बात नहीं होगी । काम क्या करेंगे ? बहुत सारी समस्याएं हैं देख कर बहुत दुख होता है । मेन की दारुण कथा कथा को देखकर बहुत दुखी हुआ। मैं सोच रहा था कि आजादी के इतने वर्ष गुजर जाने के बाद भी यदि यह लोग आजादी का मूल्य या महत्व नहीं समझ पाए हैं तो समझिए कि हमारा लोकतंत्र असफल रहा है ।
इन लोगों की मजबूरी का लाभ उठाकर जब ईसाई मिशनरी इन्हें धर्मांतरित लेती हैं तो कुछ लोगों को उनकी सुध आती है । मेरा मानना है कि यदि समय रहते पहले ही हम इन्हें अपना मान लें और इन्हें जीने की वे सब सुविधाएं उपलब्ध कराएं जो आज के समय में लोगों के लिए आवश्यक हैं तो धर्मांतरण की नौबत ही नहीं आएगी।
मैं चाहता हूं कि सरकार इन पर ध्यान दें । सरकार के पैसे पर अपना पेट भरने वाले सैकड़ो एनजीओ हमारे देश में सक्रिय हैं । वे ध्यान नहीं देते हैं केवल और केवल सरकार से पैसे दोहन करने का काम करते हैं । यह सारे एनजीओ घटना घटित होने का इंतजार करते हैं । घटना घटित ही ना हो ऐसा प्रयास इनकी ओर से नहीं किया जाता। जब बच्चे भूखे मर रहे हो और उनको बचाना है तो धर्म परिवर्तन करना ही पड़ेगा ।
इन ईसाइयों की कुत्सित चालों को यहां के गरीब भोले भाले आदिवासी नहीं समझ पाते हैं । समझे भी तो कैसे भूख से मरते हुए बच्चों को नहीं देखा जाता है।
इस प्रकार इन लोगों ने अनेक लोगों को गरीब आदिवासियों को धर्म परिवर्तन करके ईसाई बनाने का काम किया । आज भी झारखंड में आप आएं तो यही एकमात्र क्षेत्र मिलेगा जहां पर कि ईसाई लोगों का काफी जोर है और महामारी की तरह प्रकोप है। इन लोगों ने इतना पैसा खर्च किया है इस क्षेत्र में कि क्या कहा जाए अनेकों स्कूल , चर्च आदि बीहड़ इलाकों में जाकर भी बनवाए हैं । उन्होंने मानवता के नाम पर धर्मांतरण का काम किया है मैं पूछता हूं कि यदि मानवता इन मिशनरियों को इतनी ही प्यारी है तो क्या यह कार्य बिना धर्मांतरण किए नहीं हो सकता ? मतलब साफ है कि यदि धर्मांतरण हुआ तो किसी व्यक्ति को सहायता सुरक्षा प्राप्त होगी, अन्यथा नहीं। इसका मतलब यह हुआ कि देश तोड़ने के लिए इसाई बनो और हमसे सुविधा लो दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि सरकारें ईसाई मिशनरियों के इस खेल को समझ कर भी मौन साधे बैठी हैं।
झारखंड की राजधानी रांची की बात करें तो रांची के मेन रोड के पास से कांटा टोली की ओर जाएं रोड के दोनों किनारों पर केवल हिंदुओं के धर्मांतरण के खेल में लगे ईसाई लोगों की जमीने हैं ।अनेक भवन बने हैं स्कूल चल रहे हैं , कॉलेज भी है और एक बड़ा चर्च भी है । इस क्षेत्र के लोगों के साथ भी इन लोगों ने काफी कुछ अपने ईसाइयत के प्रचार के लिए किया है जो शायद कभी किसी ने नहीं किया होगा ।
झारखंड अलग राज्य बनने के पहले बिहार में था ।इसे दक्षिणी छोटानागपुर भी कहते थे ।साउथ बिहार भी कहा जाता था ।आज झारखंड एक अलग राज्य है। यहां के निवासियों ने कई वर्षों तक आंदोलन किया। कुछ लोगों ने अपना बलिदान तक दिया। काफी कुछ किया तब जाकर सन 2000 में झारखंड अलग राज्य बना । बनने के पीछे यह उद्देश्य था कि यह भारत का सबसे अधिक खनिज संपदा का क्षेत्र है यहां से काफी कुछ सरकार को आमदनी होती है और यहां के लोग पिछड़े हैं । अतः यहां के लोगों के उत्थान के लिए यह राज्य अलग किया गया । लेकिन दुखद है कि यह राज्य अलग बनने के बाद भी यहां कोई विशेष प्रगति नहीं हुई है । झारखंड में जब भी सरकारें बनी है जिनकी भी बनी है , किसी ने इन गरीब गुरबा लोगो पर कभी भी कोई ध्यान नहीं दिया है।
1966 में अकाल पड़ा था । उस समय झारखंड की वर्तमान राजधानी रांची उसके पास का एक नया जिला जो है गुमला । एक और जिला बना है लोहरदगा और इन्हीं के आसपास के क्षेत्र में है सिसई। यह वे क्षेत्र हैं जहां पर भूखे नंगे लोगों को अधिकाधिक अनाज देकर इन लोगों को धर्म परिवर्तन कराने का काम ईसाई मिशनरी के लोगों ने किया । इन लोगों ने इतना कुचक्र चलाया जो मानवता के नाम पर कलंक है । अनाज देकर धर्म परिवर्तन कराया । बच्चों को भूखे मरने से बचाने के लिए लोगों ने धर्म परिवर्तन करना स्वीकार किया । जब इसकी भनक लोगों को लगी तो हिंदू धर्म के लोगों ने सन 1969 में जशपुर और लोहरदग्गा जगह में अपना काम शुरू किया ।
लोहरदगा में जो काम शुरू किया गया उस समय लेखक को भी अपना 2 माह का समय एक कार्यकर्ता के नाते इस पुण्य कार्य हेतु देने का सौभाग्य मिला था ।
अभी हाल में लगभग साल भर पहले मैं लोहरदगा गया था तो मेरे द्वारा बनवाया गया एक कमरा आज भी वहां विद्यमान नजर आया । वही वह एकमात्र कमरा है जो पुराने समय का है । मतलब आज से 50 साल पहले का । मैंने वहां के कर्मचारियों से बात की तो वहां की एक महिला कार्यकर्ता ने बताया 50 साल पहले का तो यही कमरा है । मुझे देख कर बहुत अच्छा लगा कि शुरुआती दौर में जो काम प्रारंभ किया गया था उस समय का एक कमरा अभी भी लगभग उसी हालत में विद्यमान है । यह इसलिए रखा हुआ है कि वहां का काम जब प्रारम्भ हुआ था तो सबसे पहला कमरा जो बना था उसे यादगार के तौर पर रखा गया है ।
मुझे याद है वहां के चुन्नीलाल अग्रवाल जी ने 10 एकड़ जमीन दान में दी थी । तब हम लोग काम शुरु कर पाए थे । बाद में उन्होंने और भी 10 एकड़ जमीन दान में दी कुल 20 एकड़ जमीन हम लोगों को मिली थी । एक वहां मोहन बाबू भी थे । उन्होंने शुरुआती दौर में 20000 ईटा दान में दी थी । इस प्रकार वहां उक्त कमरा का और भी कुछ अन्य निर्माण कार्य हो सका था और वहां के आदिवासियों के लिए स्कूल , छात्रावास व चिकित्सा केंद्र आदि का निर्माण करवाया गया ।
उनको जो सहायता इसाई लोग दे रहे थे वे सभी सहायता अपने लोगों के द्वारा दी जाने लगी। तब थोड़ा बहुत वहां धर्म परिवर्तन के कार्य में कमी आई ।
अब तो वहां काफी बड़े पैमाने पर काम चल रहा है। खेती-बाड़ी भी होती है। बहुत अच्छी शिक्षा भी दी जाती है ।मंदिर भी है बड़ा अस्पताल भी है। कॉलेज भी बना है । काफी जमीन भी हो गई है । खेती-बाड़ी होती है । जड़ी बूटियों से आयुर्वेदिक दवाएं भी तैयार की जाती है । वहां कर्मचारियों के लिए और जितने भी वहां आदिवासी छात्र छात्राएं हैं उन सबके आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु धन उपार्जन का काम भी हो रहा है । काफी कुछ हो चुका है । बहुत अच्छा लगा कि जो पौधा लगाया था आज वह फल देने लगा है । अब समाज के लोगों को कष्ट उठाने की नौबत नहीं आएगी । यह सारा कार्य वनवासी कल्याण केंद्र के नाम से चल रहा है।
अभी आवश्यकता है इमानदारी से इन गरीब आदिवासियों को जो काफी दूरदराज के इलाकों में रहते हैं आज भी जंगलों जैसी जगहों में रहते हैं । उनको पूर्ण रूप से मदद की जाए । इनके खेतों में सिंचाई की व्यवस्था हो , कम से कम इतना तो सरकार करें , एनजीओ करें या कोई सामाजिक संगठन करें या जो भी धनवान लोग हैं जो दानवीर प्रकार के लोग हैं वे लोग करें उन सभी को आगे आना चाहिए तभी मानवता बचेगी । तभी हम अपने धर्म को भी बचा सकेंगे ।
हमें समय की नजाकत को पहचानना चाहिए । दूसरों को दोष देने से पहले अपने लोगों को अपने गले लगा लें और उनके विकास में सहयोगी बनें , तभी इस देश की संस्कृति व धर्म बच सकता है।
जमशेदपुर झारखंड
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