सत्ता को भोग कर भी सत्ता से दूरी बनाकर रखना सचमुच बड़ी साधना की बात है। इस संन्यास भाव को एक साधारण व्यक्ति अपनी जीवन साधना में नही ढाल सकता। सोनिया गांधी ने जितने अनुपात में भी इस भाव को अपने व्यक्तित्व में ढाला और संवारा वह उनकी जीवन साधना का एक अंग है। जिससे उनके व्यक्तित्व का निर्माण हुआ है। सोनिया गांधी ने नेहरू गांधी परिवार ने सत्ता का दुरूपयोग होते भी देखा है और सत्ता पर बैठी अपनी सास और देश की सशक्त प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का कत्ल भी होते देखा है। उन्होंने राजनीति से दूर रहकर अपना घर बसाने और अपनी ही दुनिया में मस्त रहने के लिए खुशियों का संसार राजीव गांधी के साथ बसाया था, पर दुर्दिनों का वह दौर भी आया कि उनका यह सपना उजड़ गया। राजीव राजनीति में आए और खूनी राजनीति की भेंट चढ़ गये। तब उन्होंने स्वयं को राजनीति से दूर रखकर चलने का निर्णय लिया। लेकिन परिस्थितियां उन्हें सत्ता के केन्द्र में ले आयीं। आलोचनाओं और कमियों के बावजूद उन्होंने स्वयं को ‘अच्छी बहू’ के रूप में तो पेश किया ही साथ ही अपनी समझदारी और गंभीरता के प्याले को भी कभी छलकने नही दिया। बहुत बडी तपस्या होती है ये। अब उनका बेटा राजनीति में सक्रियता के साथ यानि एक शक्ति संपन्न नेता के रूप में स्थापित होने की उम्मीदों के साथ आ रहा है तो सोनिया की आंखों में पूरा खूनी अतीत निश्चित ही तैर गया होगा। अत: उनकी आंखों में आंसू आ जाना स्वाभाविक है।
अब हमारे सामने राहुल गांधी एक नये नेता के रूप में खड़े हैं। उनके पास 127 वर्षीय कांग्रेस के बड़े नेताओं के बड़े आदर्श उपस्थित हैं। पूरा इतिहास आज उनकी नजरों में आ उपस्थित हुआ होगा। अत: उन्हें इतिहास के आईने में भविष्य की कांग्रेस का निर्माण करने का संकल्प लेना होगा। उन्हें स्वामी श्रद्घानंद अपनी दादी के दादा मोतीलाल नेहरू (जिन्होंने सीआर दास के साथ मिलकर स्वराज्य पार्टी का निर्माण किया था और कांग्रेस की नीतियों से उस समय वह असहमत थे ) सुभाष चंद्र बोस, सरदार पटेल और लालबहादुर शास्त्री जैसे कांग्रेसियों के आदर्शों से भी शिक्षा लेनी होगी और उनके आदर्शों का भारत बनाने के लिए यदि वह मैदान में आते हैं तो कांग्रेस को अपने सहयोगियों की तलाश नही करनी पड़ेगी, बल्कि अन्य पार्टियां उसके सहयोग के लिए लालायित हो उठेंगी। राहुल गांधी पं. नेहरू की दूरदर्शिता, इंदिरा गांधी जैसी निर्णायक क्षमता और राजीव गांधी जैसी वर्तमान को सुंदर बनाने की सी दृष्टि लेकर चलें। कांग्रेस की परंपरागत तुष्टिकरण की घातक राजनीति का परित्याग करें और छद्मवादी धर्मनिरपेक्षता के खतरों को भांपें। देश में समान नागरिक संहिता लागू कराएं, राष्ट्रभाषा हिंदी को उसके योग्य स्थान पर स्थापित करायें तो लोग नये नेता को नई उम्मीदों का मसीहा समझकर सम्मानित करने को तैयार हैं। किसी भी व्यक्ति का किसी पार्टी से विरोध नही होता है, बल्कि विरोध विचार धारा से होता है। इस विरोध को राहुल गांधी पाट भी सकते हैं और इसे बड़ा भी कर सकते हैं। वह समझें कि इंदिरा गांधी ने सारी शक्तियों का अपने पास संचय किया तो कांग्रेस में नेताओं का अकाल पड़ गया। आज सुशील कुमार शिंदे जैसे लोग रेगिस्तान में खड़े अरण्ड के पेड़ के समान हैं। जिन्होंने आरएसएस और भाजपा जैसे दलों पर यह आरोप लगाया है कि ये दल हिंदू आतंकवाद के जनक हैं। शिंदे जैसे लोग जिस पद पर बैठे हैं उसके लायक वे नही हैं, लेकिन जब अयोग्यों में से ही योग्य छांटने के सीमित विकल्प हों तो अरण्ड का पेड़ भी बड़ा दीखने लगता है। ये वो लोग हैं जो कांग्रेस को और भी रसातल की ओर ले जाएंगे।
कांग्रेस के जयपुर चिंतन शिविर में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने देश को निराश ही किया है। उनके भाषण में ना तो जोश था और ना ही ओज था। उन्होंने पाकिस्तान के साथ पैदा हुई दूरियों को भी ‘युद्घ कोई इलाज नही है’ कहकर पाटने का कार्य किया और इस एक ही वाक्य में अपना सर कलम करने वाले शहीद सैनिक के साथ नाइंसाफी कर डाली। वह इस चिंतन शिविर में बीता हुआ कल बनते दीख रहे थे-इसलिए किसी का ध्यान उनकी ओर नही था। जब जोश और ओज से हीन नेता कहीं दीखते हों तो उनकी दुर्गति ऐसी ही होती है। यद्यपि सोनिया गांधी भी अब नेपथ्य में जाती सी दीखेंगी लेकिन उनके साथ गांधी नेहरू परिवार का तमगा लगा है और चाटुकारिता की कांग्रेसी संस्कृति उन्हें अब भी जमाये रखने के लिए प्रेरित करेगी। फलस्वरूप वह एक आदरणीय भूमिका में बनी रहेंगी। यह उनके लिए बहुत बड़ी बात होगी। निस्संदेह उनकी यह स्थिति कांग्रेस को उनकी ओर देखने के लिए बाध्य करती रहेगी जहां तक नये नेता का सवाल है तो उनका भाषण सचमुच सराहनीय है परंतु उनके पिछले आठ साल के राजनीतिक अनुभव को देखते हुए उनसे उम्मीद की जा सकती है कि वह तुष्टिकरण के खेल को बंद नही करा पाएंगे…और लगता है कि यह असफलता ही उन्हें असफल न कर दे। अभी भी वह मोदी के समक्ष रूकने में समर्थ नही हैं। 127 वर्षीय कांग्रेस के इतिहास को पढ़कर भी उन्हें वर्तमान में मोदी से सामना करना है उसके लिए उनका चिंतन और दर्शन क्या है? यह उन्होंने स्पष्ट नही किया है। यदि शिंदे ने उनकी सहमति से बयान दिया है तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि आगाज अच्छा नही है।
पार्टियां भावुकता से नही चलतीं बल्कि यथार्थ के धरातल पर कुछ करके दिखाने से चलती हैं। राहुल गांधी का भाषण भावुकता प्रधान होकर सबको भले ही रूला गया हो, लेकिन अभी पूरे देश से मुक्त कण्ठ से प्रशंसा कराने के लिए उन्हें बहुत कुछ करना है, देखते हैं इस उम्मीद पर वह कितना खरा उतरते हैं।
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