इतनी पवित्र और उच्च संस्कारों से युक्त देववाणी भाषा के एक एक अक्षर पर हम यहां विचार करेंगे। विचार करते करते हम पाएंगे कि एक एक अक्षर की बनावट के पीछे तथा लिखावट के पीछे हमारे भाषा विज्ञानी संतों व ऋषियों का कितना प्यारा उच्च और वैज्ञानिक चिंतन छिपा है। संसार की अन्य भाषाओं के (जैसे चीनी और जापानी) अक्षरों शब्दों की बनावट को लेक विद्वानों ने पर्याप्त लिखा है। परंतु अपनी भाषा पर नही लिखा गया है। मेरे मन मस्तिष्क में अपनी भाषा की वैज्ञानिकता पर लिखने का विचार आया तो अक्षरों की बनावट पर चिंतन चलने लगा। बड़े प्यारे-प्यारे हृदय स्पर्शी अर्थ सामने आने लगे। बड़ी श्रद्घा उत्पन्न हुई अपने भाषा विज्ञानी ऋषियों के श्रीचरणों में जिन्होंने हमें देववाणी दी और उससे हमारी देव नागरी का विकास हुआ। हम यहां एक एक अक्षर पर क्रमश: विचार करेंगे।
‘अ’
देवनागरी का सर्वप्रथम अक्षर ‘अ’ है। बहुत ही विशिष्ट अक्षर है यह। हिंदी अंकों में ३ की ईकाई में ‘ा’ लगाकर यदि इसको बनाया जाए तो बड़ा अद्भुत परंतु वास्तविक अर्थ निकल कर सामने आता है। इससे सृष्टि की तीनों उत्पादक, पालक और संहारक शक्तियों का अर्थात ब्रहमा, विष्णु और महेश का पता चलता है। ईश्वर के इन तीनों प्रकार के गुण कर्म, स्वभाव के कारण ही तो सृष्टि क्रम चल रहा है। गायत्री में भू:=उत्पादक है (ब्रहमा है) इंग्लिश के गॉड में ये G अर्थात Generator है। स्व: पालक सुखप्रदाता=विष्णु है जिसे गॉड में O अक्षर से Operator कहा जा सकता है। भुव: दु:खहर्ता अर्थात संहारक= महेश=गॉड में अक्षर D से बनने वाला Destroyer है। इस प्रकार इंग्लिश का गॉड भूर्भुव: स्व का ही रूप है। बस केवल क्रम बदला है, अन्यथा तीनों शक्तियों का प्रतिपादक शब्द है, जो कि संस्कृत की वैज्ञानिक भाषा को अपने ढंग से परिभाषित करता है। इसीलिए इन तीनों शक्तियों को दर्शाते हुए ३ के अंक के साथ अकार का निर्माण किया गया। ‘ऋ’ का कुछ ऐसा ही अर्थ है। ऐसे गुणों से संपन्न ईश्वर को वेद ने ‘स्वयंम्भू रसेन तृप्तो न कुतश्चनोन:’ कहा है। इसका अभिप्राय है कि वह स्वयं उत्पन्न होता है और वह सारे रसों से तृप्त रहने वाला और कहीं से भी न्यूनता न रखने वाला है। वह पूर्ण है।
यहां वेद का शब्द स्वयंभू ध्यातव्य है। इसी से ‘खुदा’ शब्द बना है। वेद का स्वयंभू शब्द खुदा का समानार्थक है। उसे कोई ना तो बना सकता है और ना ही पैदा कर सकता है। वह स्वयंभू भू: भुव: स्व: से पूर्ण है और उससे अन्यत्र कोई पूजा के योग्य नही है-क्योंकि संसार के किसी अन्य पदार्थ में ये तीनों गुण नही मिलते। ‘अ’ का अर्थ नही भी होता है-जैसे अज्ञान, अभाव, अन्याय आदि में। ‘अ’ मानो अपनी नकारात्मक शक्ति से हमें निषिद्घ कर रहा है कि उस सर्वेश्वर, सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी ओ३म् के अतिरिक्त किसी अन्य की उपासना नही करनी है। वह सर्वाधार है और सर्वनियन्ता है।
ओ३म् में हम ‘३’ ईकाई को इसलिए लिखते हैं कि वह एकाक्षर ऊं तीन शक्तियों से निर्मित है-सत=प्रकृति, चित=चेतन जीव, और आनंद। ईश्वर यहां अकार से अखिलेश्वर, सृष्टि नियन्ता ईश्वर से अभिप्राय है, तो उकार से चेतन जीव और मकार से प्रकृति से अभिप्राय है। सच्चिदानन्द स्वरूप ईश्वर सत चित और आनंद स्वरूप है। लेकिन प्रकृति केवल सत है और जीव केवल चेतन है।
जिस सत चित और आनंद के त्रैतवाद पर भारतीय संस्कृति टिकी है उसकी कुंजी अकार में है। यह ‘अ’ अक्षर इसीलिए सर्वोत्तम और सर्वप्रथम उपासनीय है।
ऐसे दिव्य गुणों और दिव्य विज्ञान पर आधारित अक्षर ‘अ’ व्यवहार में जहां जहां भी किसी शब्द में प्रयुक्त होता है वहां वहां ही ‘अ’ शब्द के अर्थ में दिव्यता, अलौकिकता और वैज्ञानिकता का पुट भरता है। यह सृजन के लिए भी प्रयुक्त होता है-पूर्णत: नकारात्मकता के लिए भी प्रयुक्त होता है। जैसे = अंश = भाग, अंशुमत= प्रभायुक्त, अंसल= बलवान, अग्नि=आग, अग्र=प्रथम इत्यादि सृजनात्मक अर्थ हैं जबकि अकुशल, असफलता, अक्षर, अखंडित अघोष=जो ध्वनि हीन हो, इत्यादि नकारात्मकता के अर्थ हैं। इसका अभिप्राय है कि विश्व की धनात्मक और नकारा
त्मक दोनों शक्तियां इसी अकार में व्याप्त हैं। दैवीय और दानवीय शक्तियों के मध्य चलने वाला सुरासुर संग्राम भी मानो इसी अकार में व्याप्त हैं। जैसे यह ध्वनि को ऊँ की गुंजार से गुंजित करता है तो सृजन होता है, देवों को बल मिलता है। संसार में दैवीय गुणों की शक्ति में वृद्घि होती है, पर जब यह अघोष हो जाता है तो ध्वनि को शांत कर देता है। यदि संसार में दिव्यता की अनुभूति कराने वाली शक्तियों की ध्वनि शांत हो जाए तो आसुरी शक्तियां बलवती होती हैं। उस अवस्था में उत्पात खड़ा हो जाता है और संसार में उपद्रव और विप्लवों की बाढ़ सी आ जाती है। यह अनादि और अनंत दोनों शब्दों में प्रयुक्त होता है। दोनों शब्दों का निर्माण करता है। अनादि अर्थात जिसका प्रारंभ न हो और अनंत अर्थात जिसका अंत न हो। अनादि की खोज के लिए आपकी यात्रा पीछे की ओर भागेगी जबकि अनंत के लिए आगे की ओर भागेगी। पर अंत में ज्ञात होगा कि कहीं भागो मत अपितु अनादि और अनंत को साथ ही साथ एक ही ईश्वर में अनुभव करो। सारी लड़ाई का हो गया ना अंत=इसीलिए यह अक्षर अदभुत और विलक्षण है। इसकी अदभुतता का, विलक्षणता का, गांभीर्य का , पवित्रता का, और पूर्ण उच्चता का अनुभव हिंदी के हर उस शब्द में आप करेंगे जिसका प्रारंभ अकार से होता है।
संसार की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं ने अपनी वर्णमाला में ‘अ’ को प्रथम स्थान दिया है। अन्य भाषाओं में इसको प्राधान्यता संस्कृत और देवनागरी के कारण ही मिली है। इसे अन्य भाषाओं में संस्कृत और देवनागरी के समान ही प्रयुक्त किया जाता है। लैटिन के in अंग्रेजी के in या un यूनानी के a या un के समान नकारात्मक अर्थ अनुत्तम, अनुपयोगी, अनुचित जैसे शब्दों की भांति ही शब्द का अर्थ परिवर्तित कर उसे नकारात्मक बना देते हैं।
हिंदी में वांछित का नकारात्मक विपरीतार्थक शब्द अवांछित है तो अंग्रेजी में wanted का विपरीतार्थक शब्द Unwanted है। यहां शब्दों की समानता भी देखिए वांछित का समानार्थक शब्द वांटिड है तो अवांछित का अनवांटिड है। इससे ज्ञात होता है ‘अ’ का अन विपरीतार्थक उपसर्ग तो संस्कृत से गया ही है शब्द भी संस्कृत मूलक है, और देखिए संस्कृत का ऋत और अनृत अंग्रेजी के truth और Untruth के समानार्थक है। अपेक्षित और अनपेक्षित के लिए expected और Unexepcted शब्द हैं, दृषित दृश्य के लिए Direct और अदृश्य के लिए अदृशित indirect शब्द है। हमारे ज्ञात अज्ञात (अनजान) के लिए Known व Unknown शब्द हैं। उद्देश्य यहां ऐसे शब्दों को ढूंढऩा नही है परंतु यह सिद्घ करना है कि संस्कृत की वर्णमाला के अक्षरों से ही अन्य भाषाओं ने चलना सीखा है, न्यूनाधिक वे सभी इसी भाषा की अनुचरी है। ‘अ’ को हम जिस प्रकार यहां प्रयोग करते हैं वैसे ही वह अन्य भाषाओं में प्रयोग होता है। आप देखें मोल मूल्य का पर्यायवाची है तो अनमोल अमूल्य का पर्यायवाची है।
‘आ’
देवनागरी वर्णमाला का द्वितीय अक्षर ‘आ’ है। इस अक्षर के दो आधार (ाा) हैं, इसे देखकर ऐसा लगता है जैसे कोई आकर खड़ा हो गया है। आकर रूकने का प्रतीक चिन्ह इससे सुंदर नही हो सकता। विस्यमयादिबोधक अव्यय के लिए भी यही प्रतीक चिन्ह (!!) है। अत: आ अक्षर स्वीकृति सूचक, हां, दया के अर्थ में आह, पीड़ा या खेद प्रकट करने के अर्थों की ओर हमारा ध्यान खींचता है। यह अक्षर स्थानांतरणार्थक (जैसे गम=जाना और आगम = आना) व नयनार्थक (जैसे दा=देना और आदा= लेना) क्रियाओं से पूर्व लगकर विपरीतार्थक बोध कराता है। आकर खड़ा होने वाला जब रूकता है तो या तो आपको अपनी ओर आकर्षित करता है, या वस्तुस्थिति का आंकलन करता है, आप पर आक्रमण भी कर सकता है। आखेट भी कर सकता है, वस्तुस्थिति की आख्या भी तैयार कर सकता है, आप पर कोई आक्षेप भी लगा सकता है, आप को आरोपित भी कर सकता है, आप पर आक्रोश भी व्यक्त कर सकता है, वह आख्यापक (हरकाटा) भी हो सकता है उसे आप आगन्तुक भी कह सकते हैं, वह आपसे कोई आग्रह भी कर सकता है, कोई आपत्ति भी कर सकता है, आपको कोई आघात भी दे सकता है। आपको आलोकित कर सकता है अपनी आभा से। ऐसे बहुत से संकेत हैं जो आने वाले के प्रति प्रकट किये जा सकते हैं। ये सारे शब्द ‘आ’ से बने हैं। किसी के आने पर व्यक्ति विस्मय प्रकट करता है, इसीलिए ऐसे सारे संकेत भावों को प्रकट करने वाला अक्षर हमारे भाषा वैज्ञानिकों ने ‘आÓ के रूप में स्थापित किया। यह केवल एक अक्षर नही बल्कि विभिन्न अर्थों को प्रकट करने वाला एक शब्द ही है। इसकी आकृति हमें बहुत कुछ बताती है। इसकी आकृति में ‘अ’ स्वयं ही समाहित है, इसलिए यह अक्षर भू: भुव: स्व: जैसी पवित्रता के अर्थों में भी प्रयुक्त होकर शब्द को शोभायमान करता है। उसे उच्चता देता है, दिव्यता देता है और महानता देता है। जैसे आदर, आदरणीय, आश्रम, आचार्य, आर्य, आशा, आश्चर्य, आत्मन, आत्मा, आश्वासन, आश्रय, आहुति, आहार, आहलाद, आरोहण, आर्यावत्र्त इत्यादि। बहुत ही पवित्र, बहुत ही उच्च और बहुत ही दिव्यता लिया हुआ शब्द है ये। ऐेसे कितने ही शब्द हैं जो ‘आ’ से ही शोभित होते हैं।
‘इ’
‘इ’ नागरी वर्णमाला का तीसरा अक्षर है। यह अक्षर गति निकटता, और वाला (जैसे घर वाला, भूमि वाला) के अर्थों को प्रकट करता है। इस अक्षर की आकृति कुछ इस प्रकार की है। जिससे गति का भाव प्रकट होता है। हिंदी वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर में मूलदण्ड (ा) मिलता है। इसी दण्ड पर ही प्रत्येक अक्षर किसी न किसी रूप में बनाया जाता है। यह मूलदण्ड अ का प्रतीक है। इसीलिए प्रत्येक अक्षर के अंत में अ की आवाज अपने आप ही निकलती है। मूलदण्ड का हर अक्षर में विद्यमान होना स्पष्ट करता है कि जैसे पिण्ड बिना आत्मा के और यह जगत बिना परमात्मा के अस्तित्वहीन है, उसी प्रकार कोई भी अक्षर बिना अ के अस्तित्वहीन है। मानो अकार प्रत्येक अक्षर की आत्मा है। ‘इ’ निचले ओष्ठ की सहायता से बोली जाती है। बोलते ही हम देखते हैं कि दूरियां निकटता में परिवर्तित हो जाती है, जैसे दूर के लिए आप उस का प्रयोग करेंगे। परलोक कहीं दूर की बात है लेकिन इहलोक शब्द इसी लोक की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। यहां हमने देखा इहलोक की बात आते ही दूरियां निकटता में परिवर्तित हो गयीं। इन, इतर, इच्छा, इति, इदम, इंद्रियां, इष्टापूत्र्त आदि शब्द इ के निकटता बोधक अर्थों की ओर ही हमारा ध्यान आकृष्ट’ करते हैं। जब हम किसी अक्षर पर इ की मात्रा चढ़ाते हैं तो ‘Óि इस प्रकार चढ़ाते हैं यह भी अक्षर के प्रति उसकी निकटता की ही प्रतीक है।
‘ई’
संस्कृत या नागरी वर्णमाला का चौथा स्वर अक्षर ‘ई’ है। यह अक्षर जाना, चमकना, व्याप्त होना, चाहना, कामना करना, फेंकना, खाना, प्रार्थना करना, गर्भवती होना इत्यादि अर्थों को लिए हुए है। इसकी आकृति में इ की भांति मूलदण्ड में गति तो है ही परंतु ऊपर इ लग जाने से इसकी आकृति में भिन्नता आयी है ‘ का चिन्ह इस अक्षर को अनोखापन और विशिष्ट पहचान प्रदान करता है।
‘उ’
हिन्दी वर्णमाला में पांचवां स्थान ‘उ’ का है। ओउम में यह ‘जीव’ का प्रतीक है। अ, उ, म इन तीन से ओ३म् बना है, इस प्रकार उ की पीठ म से फिरी हुई है। ‘म’ प्रकृति का और अ ईश्वर का अर्थ प्रकट करते हैं। प्रकृति पांच तत्वों अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश से निर्मित है। प्रकृति के मायावाद से पीठ फेरना ही जीव के लिए शुभ है। पांच तत्व प्रकृति के और पांचवां अक्षर देवनागरी का ‘उ’ है जो हमें बताता है कि मायावाद से पीठ फेरो और ईश्वर की ओर चलो। कहने का अभिप्राय है कि यहां से हटो और उधर चलो-ईश्वर की ओर। इसलिए ‘उ’ दूर के अर्थों में प्रयुक्त होता है। हम साधारण बोलचाल में दूर की चीज के लिए ‘उ’ का प्रयोग करते हैं। इसीलिए दूर के लिए ऊपर के लिए, वह के उकार का प्रयोग होता है। उग्र, उच्च, उक्त,उच्चारण,उचित उच्छिष्ट (छोड़ देना, बचा हुआ भोजन=दूर के अर्थों में) उत्कर्ष, उत्खनन, उत्क्रांति, उत्तर, उत्तेजक, उत्थान, उत्पत्ति, उत्पादन, उत्सर्ग, उत्सर्जन आदि ऐसे ही शब्द हैं, जो ‘उ’ के अर्थों को प्रकट करते हैं। कहीं पर भी हिंदी में ‘उ’ अक्षर से आरंभ होने वाला कोई शब्द निकट के अर्थों में या यह के अर्थों में या नीचे के अर्थों में प्रयुक्त नही हुआ है। पं. रघुनंदन शर्मा ने ‘वैदिक संपत्ति’ नामक अपनी पुस्तक में ‘उ’ की निचली आकृति को चित्र में दिये अनुसार इस रूप में लिखकर दूर के लिए इसकी समानता उंगली के इशारे के समान स्थापित की है। यह समानता बड़ी ही स्वाभाविक और प्राकृतिक है। इस अक्षर ‘उ’ के पश्चात अगला नागरी वर्ण ‘ऊ’ है। इसका उच्चारण स्थान होठों को माना गया है। यह अक्षर शिव (एक प्रकार से ऊं के कल्याणकारी स्वरूप के अर्थ में) चंद्रमा, आरंभ सूचक अव्यय के रूप में तो प्रयुक्त होता ही है साथ ही बुलावा, करूणा तथा सुरक्षा के लिए भी प्रयोग किया जाता है।
‘ऋ’
यह अक्षर बड़ा प्यारा है। बचपन में ऋ से ऋषि हमें पढ़ाया गया था। सारे वर्णों में यह अक्षर भी मानो पूर्णत: ऋषि ही है। ऋषि का अर्थ चिंतन का अधिष्ठाता माना गया है, अर्थात ऋत=सत्य के अनुसंधान और स्थापन में निरंतर रत रहने वाला वैज्ञानिक ऋषि कहा जाता है। निरंतर गतिशील और उन्नति शील जीवन का निरंतर प्रवाहमान रहने वाली सरिता का और निरंतर सत्यान्वेषी बनी रहने वाली प्रज्ञा शक्ति का प्रतीक है यह अक्षर। इसी से आर्य शब्द बना है। प्राचीन काल में यह एक ऐसा पंथनिरपेक्ष शब्द था जो हमारे राष्ट्रीय संबोधन का प्रतीक बन गया था। आजकल जैसे लोग किसी अनजान व्यक्ति के लिए श्रीमन या मान्यवर या सज्जन जैसे शब्दों का आदर के साथ संबोधन किया करते हैं वैसे ही प्राचीन काल में एक दूसरे के सम्मान में यह शब्द उच्चारित करके दूसरे की जीवन साधना को महिमा मंडित किया जाता था। इस प्रकार ऋ अक्षर हमारे लिए बहुत ही प्यारा है-इसी से हमारे पारिवारिक सामाजिक और राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण होता था क्योंकि आर्यत्व एक जीवन शैली है-जिसे ऋत सुंदरता प्रदान करता है। वेदों के मंत्रों को ऋचा इसीलिए कहा जाता है कि उनमें निरंतर उच्च से उच्चतर = सुंदर जीवन शैली प्रदान कराने और मोक्ष दिलाने की दिव्य शक्ति है-अर्थात आर्यत्व का अंतिम ध्येय। ऋतुएं बार बार पलटकर (निरंतरता की प्रवाहमानता को लेकर) आ रही हैं, उनकी इस प्रवाहमानता के पीछे प्रकृति के सनातन नियम काम कर रहे हैं-इसलिए वे ऋतुएं हैं। ऋतु=सत्य (अंग्रेजी का ञ्जह्म्ह्वह्लद्ध) इसलिए सत्य है कि उसमें भी प्रवाहमानता है, पवित्रता है, अटलता है, निर्मलता और निर्विकारता है।
पं. रघुनंदन शर्मा इस अक्षर की बनावट के लिए इसके दो रूप बनाते हैं। पहला है – यह और दूसरा – ये है। इसमें विद्वान लेखक पहले वाले रूप में इसके बाहय स्वरूप को रखते हैं तो दूसरे रूप में इसके भीतरी स्वरूप को रखते हैं। उन्होंने इसको गति और सत्य के समानार्थक माना है। उन्नति के भी बाहरी और भीतरी दो ही स्वरूप होते हैं। पवित्रता के भी बाहरी और भीतरी देा ही स्वरूप हैं, क्योंकि प्रदूषण भी बाहरी और भीतरी दो ही प्रकार का होता है। अन्य विद्वानों ने इस अक्षर के अर्थों को जाना हिलना, डुलना, प्राप्त करना, अधिगत करना, चलायमान करना, चोट पहुंचाना, फेंकना, स्थिर करना स्थापित करना, देना, सौंपना, इत्यादि अर्थों का उदघोषक माना है। ये सब भी सत्य और गति की ओर ही हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं। ऋचा, ऋज, ऋतु, ऋण, ऋत, ऋतु, ऋतुमती ऋद्घि (सफलता) ऋध, ऋषि, ऋष्यक=(बारहसिंगा हिरण) इत्यादि शब्द जीवन में गति और सत्य की ओर ही इशारा करते हैं, ऋ से प्रारंभ होने वाले शब्द इसीलिए हमें इन्हीं अर्थों में हिंदी और संस्कृत में प्रयुक्त होते मिलेंगे।
‘ए’
हिंदी वर्णमाला का अगला अक्षर ‘ए’ है। इंग्लिश में A से यह कतई भिन्न है। यह अक्षर स्मरण, ईष्र्या, करूणा, आमंत्रण, घृणा और निंदा व्यंजक (विस्मयादि-द्योतक) अव्यय माना गया है। यह स्थिर अपरिवर्तित, अद्वितीय, अनुपम आदि अर्थों की ओर भी इशारा करता है।
पं. रघुनंदन शर्मा जी ने अकार के मूलदंड के साथ इसकी आकृति चित्र के अनुसार बनाई है-अभिप्राय है कि दण्ड नही का अर्थ दे रहा है तो उसके दूसरी ओर गति करती रेखा उसमें आकर मिल रही है। इसलिए श्री शर्मा ने इस अक्षर के अर्थ-नही गति, गतिहीन, निश्चय, पूर्ण, अव्यय, ऐसे किये हैं। इसलिए यह अक्षर पूर्णतया और अखंडता का द्योतक माना गया है।
‘ऐ’
‘ऐ’ अक्षर भी लगभग उन्हीं अर्थों का प्रतिपादक है जिनका ‘ए’ अक्षर है। यह अक्षर बुलाने, स्मरण करने, आमंत्रण को प्रकट करने के अर्थों में प्रयुक्त होता है। ऐकमत्यम्=एकमतता ऐकांग=शरीर रक्षक दल का सिपाही, ऐकान्तिक=पूर्ण, ऐकाहिक = दैनिक ऐक्यम्=एकता आदि संस्कृत के ऐसे शब्द हैं जो ‘ऐ’ से आरंभ होते हैं और ए की भांति ही बनने वाले शब्दों में पूर्णता दिखाते हैं।
कई बार हम किसी व्यक्ति को ‘ऐ! सुनो’ कहकर भी बुलाते हैं-तब यह अक्षर बुलाने के अर्थों में प्रयुक्त होता है। स्मरण करते समय कई बार हम अपनी कनपटी पर ऊंगली रखकर ऐ….ऐ.. करते हैं…और हमें अपना विषय स्मरण हो आता है। तब यह अक्षर स्मरण कराने में हमें एकाग्रता प्रदान करता है। एकाग्र हो जाना भी किसी पूर्णता की ओर ही इशारा करता है। जबकि ए की स्थिति ऐ से कई बार अलग होती है।
जैसे ‘ए’ यह भी कोई व्यक्ति है-यहां घृणा प्रकट हो रही है। ‘ए’! यार उसका मकान बड़ा अच्छा था-यहां ईष्र्या बता रहा है। ‘ए’ बड़े दुख की बात है-यहां करूणा दिखा रहा है। ‘ए’ इधर आओ। यहां आमंत्रण दे रहा है।
‘ओ’
हिंदी वर्णमाला का यह अक्षर संबोधनात्मक, बुलावा देने वाला, स्मरण करना, करूणा बोधक विस्मयादिद्योतक माना गया है। हमने पूर्व में उल्लेख किया है कि अकार का अर्थ नही भी होता है। जैसे भाव में ‘अ’ लगाने पर अभाव हो गया, अर्थ ही बदल गया। इसी प्रकार उकार का अर्थ वह, अन्य दूसरा होता है। उंगली उठाकर आप किसी को ‘उ’ कहते हैं। जिसका अभिप्राय वह होता है। इस अकार और उकार से मिलकर ‘ओ’ बनता है। जिसका अर्थ हुआ दूसरा नही, वही, अन्य नही, ऐसा माना गया है। जब हम चिंतन, मंथन, या मनन के पश्चात किसी निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं तो अक्सर हमारे मुंह से, निष्कर्ष कई बार यूं प्रकट होता हे-सो, मैं इस मत पर पहुंचा हूं कि… यहां सो में ‘ओ’ छिपा है। जो बता रहा है कि मेरी राय में अब अन्य संशय नही रहा, बल्कि जो मैं बता रहा हूं वही सही है-अन्य मत नही, दूसरा विचार नही इत्यादि। यहां सो अत: और इसलिए का अर्थ निकालता है-जो कि अंग्रेजी में स्ह्र ज्यों का त्यों है। पर आया यह ‘ओ’ से है।
इस अक्षर को उदगीथ (ओ३म् को उच्चारकर गाना) के अर्थों में भी प्रयुक्त किया जाता है। आप ध्यान मग्न हो हाथ ऊपर करके ओ३म् का गान करें, तो आपके हाथों और सिर से जो चित्र बनेगा वह ‘ओ’ होगा। जिस प्रकार हम अपने इष्ट को बुला रहे हैं, उसमें आप ध्यान मग्न हैं उसी प्रकार ‘ओ’ बुलाने के अर्थों में भी प्रकट होता है। ओ३म्, ओज, ओजस्वी ओष्ठ, आदि शब्द इसी प्रकार के अर्थ प्रकट कर रहे हैं। जबकि ‘औ’ अक्षर शपथोक्ति अथवा संकल्प द्योतक अव्यय के रूप में भी आता है।
शेष इसके अर्थ ‘ओ’ जैसे ही माने गये हैं। जहां यह ‘उ’ के स्थान पर प्रयोग हो जाता है वहां ‘का’ का अर्थ निकालता है, जैसे औपनिषद=उपनिषद का।
ऐसे कराई जाए अक्षरों की पहचान
कल्याण कारक है। इसलिए इस महान देवता के विषय में बताते हुए विद्यार्थियों को प्रारंभ से ही शिक्षा दी जाए।
तनिक सोचें: गुरूनानक ने सिखों को नाम के पीछे सिंह लगाना सिखाया तो सिख जाति संसार की सबसे बहादुर कौम बनी। महर्षि दयानंद ने हमें आर्य शब्द दिया तो भारत में ज्ञान विज्ञान की धूम मच गयी। इसलिए उ से उल्लू और ग से गधा बनने की बजाए अपने वर्णों के वैज्ञानिक अर्थों को समझकर उनके अनुसार चित्र बनाकर बच्चों को वैज्ञानिक बुद्घि का बनाना शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए। इसलिए उपरोक्तानुसार पढ़ाया जाना आवश्यक है।