राष्ट्रधर्म का पालन करना प्रत्येक व्यक्ति का सर्वोपरि कर्तव्य
ओ३म
===========
मनुष्य के अनेक कर्तव्य होते हैं। आर्यसमाज का वैदिक सिद्धान्तों के अनुकूल एक नियम है ‘सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें।’ इस नियम में कहा गया है कि सामाजिक व सर्वहितकारी नियम पालने में देश के सब नागरिकों को परतन्त्र रहना चाहिये। राष्ट्रधर्म का पालन एक सामाजिक एवं सर्वहितकारी नियम है। इसका पालन करने में देश के सब नागरिकों को परतन्त्र रहना चाहिये। यदि कोई इसका सम्मान न कर उल्लघंन करता है तो वह दण्डनीय होना चाहिये। हमारे देश में भी राजद्रोह का नियम वा कानून बना हुआ है। यह कानून राजधर्म के पालन के लिये ही बनाया गया है। इसमें कुछ कमियां हो सकती हैं। अनेक अन्य कानून भी हैं। हमारे देश में मनुष्यों को बोलने व लिखने अर्थात् अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है। इसका हमारे कुछ पत्रकार व लेखक बन्धु दुरुपयोग भी करते हैं। इस कारण सभी लोग राष्ट्रधर्म का पालन नहीं करते और न व्यवस्था इनसे पालन करा पाती है। देश में वोट बैंक की राजनीति होती है। इसमें हमारे शहीदों के शौर्य पर भी कई बार प्रश्नचिन्ह लगा दिये जाते हैं। इसका कारण व्यवस्था का दोष है। इस काम में हम यूरोप के देशों से बहुत कुछ सीख सकते हैं। उन देशों में भी विपक्षी दल होते हैं परन्तु वहां राष्ट्रहित की बातों में सब दल सरकार का सहयोग करते हैं लेकिन हमारे देश में स्थिति उलटी है। यहां विपक्षी दल वोट बैंक और अपने तथाकथित सेकुलरिज्म के सिद्धान्त को ध्यान में रखकर प्रायः कुछ अनुचित व अनावश्यक बातें भी करते हैं जिनसे देश कमजोर होता है और शत्रु देशों को लाभ होता है। ऐसा हमारे देश के अधिकांश राष्ट्रवादियों का अनुभव है।
राष्ट्र धर्म से अभिप्राय राष्ट्र के प्रति नागरिकों के कर्तव्यों से होता है। राष्ट्र के प्रति प्रत्येक नागरिक के जो कर्तव्य हैं उन्हीं को राष्ट्रधर्म कहा जाता है। राष्ट्र धर्म के विषय में वेद में कहा गया है कि पृथिवी मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूं। बाल्मीकि रामायण का कथन है कि ‘जननी और जन्म भूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है।’ वेद में राष्ट्र के लिये पृथिवी शब्द का प्रयोग किया गया है। वेद की बात को इस प्रकार से भी कह सकते हैं कि मेरा देश मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूं। इस आधार पर हमें एक पुत्र की भांति अपने देश की रक्षा, पालन, उसके यश में वृद्धि, देश के नागरिकों को अपना बन्धु व प्रिय मानना, आवश्यकता होने पर देश के लिये प्राणों का उत्सर्ग करना, किसी के प्रति पक्षपात व अन्याय न करना, पृथिवी व भूमि को स्वच्छ रखना, भूमि, इसके जल व वायु आदि को प्रदुषित न करना आदि सब हमारे कर्तव्य होते हैं। क्या हम एक पुत्र की भांति अपनी जन्मभूमि वा देश की सेवा व इसके गौरव में वृद्धि के लिये सचेष्ट रहते हैं। हो सकता है कि हम रहते हों, परन्तु देश के सभी नागरिक ऐसा नहीं करते। यहां अनेक विचारधारायें एवं मानसिकतायें हैं। वह देश के सभी लोगों को येन प्रकारेण अपनी विचारधारा में ढालना चाहते हैं। इतिहास में इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। यह लोग अपनी योजना को गुप्त रखकर उसे अंजाम देते हैं परन्तु इनके कार्यों व व्यवहार से इनके बुरे इरादों का ज्ञान हो जाता है। अतः ऐसे लोग राष्ट्रधर्म सर्वोपरि के सिद्धान्त का हनन करते हैं। इन्हें कुछ सीमा तक राष्ट्र द्रोह कहा जा सकता है। वोट बैंक की राजनीति व अनेक प्रकार के नियमों के कारण इन पर अंकुश नहीं लग पाता जिससे राष्ट्रधर्म सर्वोपरि का सिद्धान्त देश में व्यवहार में प्रयोग होता दिखाई नहीं देता है।
राष्ट्रधर्म का सबसे अधिक पालन हम सेना के सैनिकों को करते हुए देखते हैं जो अपनी जान की बाजी लगा कर हमारी रक्षा करते हैं। अधिकांश छोटे किसान भी राष्ट्रधर्म सर्वोपरि सिद्धान्त का पालन करते हुए दीखते हैं। प्रायः अशिक्षित व निर्धन लोग भी राष्ट्रधर्म का पालन करते हैं और देश के कानूनों से डरते हैं। कुछ शिक्षित बुद्धिजीवी व विदेशी विचारधारा के पोषक लोग स्वार्थों में फंसे हुए दिखाई देते हैं। कुछ लोगों के भ्रष्टाचार के कारनामें भी अतीत में सुनने को मिलते थे। भ्रष्टाचार भीएक अपराध है और हजारों करोड़ के घोटाले कुछ सीमा तक राजद्रोह ही होता है। किसी भी नागरिक के किसी भी काम से यदि देश के हितों को हानि पहुंचती हैं तो वह राष्ट्र के प्रति अधर्म व द्रोह होता है। हमारे देश में अनेक प्रकार के अपराध होते हैं। कानून कुछ शिथिल हैं और उनको लागू कराने में समय लगता है। अपराधियों को दण्ड देने के लिये प्रमाण चाहिये होते हैं। वह मिलना आसान नहीं होते। अतः अपराधी बच जाते हैं। इसलिये देश में कानून का अक्षरक्षः पालन होता दिखाई नहीं देता। अतः कानून का कठोर व प्रभावशाली होना आवश्यक है। देश में त्वरित न्याय प्रक्रिया भी विकसित की जानी चाहिये जिससे देश में अपराधों की संख्या न्यूनतम की जा सके।
वेद और देश की परम्परा के आधार पर हम समझते हैं कि हमारा देश हमारी माता है। हमारे लिये इससे अच्छा सुखदायक एवं उन्नति देने वाला दूसरा कोई देश नहीं हो सकता। हमारे जो विचार हैं वह देश के सभी नागरिकों व मत-मतान्तरों के मानने वाले अनुयायियों के विचार नहीं है। कुछ लोग अपने मत को देश से अधिक महत्व देते हैं। इससे देश हित से उनका टकराव हो जाता है। ऐसा नहीं होना चाहिये। बहुत से लोग देश की प्रशंसा व उसकी स्तुति विषयक शब्दोच्चारण पर भी आपत्ति करते हैं। यह एक प्रकार से राष्ट्र धर्म के सिद्धान्तों से संगत नहीं होता। ऐसी बहुत सी बातें और भी हैं। हमारे देश में साम्प्रदायिक हिंसा, निर्धन-अशिक्षित-असहायों का धर्मान्तरण, परिवार नियोजन का पालन न करना, बहुपत्नीप्रथा, बेमेल विवाह, अनेकानेक कानून, अत्यधिक स्वतन्त्रता आदि अनेक विसंगतियां हैं। विदेशियों के षडयन्त्र भी चलते रहते हैं। लोगों को धन व अनेक प्रलोभन मिलते हैं जिससे वह उनके स्वार्थों को सिद्ध करते हैं। इन्हें दूर करना समय की मांग है। इसके लिये व्यवस्था में आवश्यक परिवर्तन भी किये जाने चाहिये। देश के सभी नागरिकों को एक मन, एक विचार व एक भावना का होना चाहिये। एक भाषा होनी चाहिये जिसे देश का प्रत्येक बोलने में गर्व का अनुभव करे। हमें संकीर्ण विचारों का भी नहीं होना चाहिये। देश के सभी लोगों को एक दूसरे के साथ समरस होकर रहना चाहिये जैसा की एक विचारधारा व एक मत के लोगों के बारे में अनुमान किया जा सकता है। ऐसा न होना देश के लिये दुर्भाग्यपूर्ण है और इससे हमारा देश कमजोर तो होता ही है अपितु इसके साथ समय-समय पर निर्दोष लोग हत्या का शिकार कर दिये जाते हैं। अतः देश में ऐसी सरकार होनी चाहिये जो देश को शक्तिशाली व भावानात्मक एकता में पिरोने में सक्षम होनी चाहिये। किसी को मनमानी करने की अनुमति कदापि नहीं होनी चाहिये। सबको देश को अपने मत व सम्प्रदाय से नीचा समझना चाहिये। देश सभी धर्म व मत-मतान्तरों से बड़ा व महान होता है। इस सिद्धान्त व कर्तव्य को सबको हृदयगम करना चाहिये। तभी हमारा देशयथार्थरूप में एक राष्ट्र बन सकेगा।
राष्ट्र धर्म का पालन सभी नागरिकों के लिये एक समान होना चाहिये। समान नागरिक संहितर समय की मांग है। जो देश के हित व विधान के किंचित भी ढील करे अथवा विपरीत आचरण करें उसे कठोर दण्ड मिलना चाहिये। ऐसा होने पर ही हमारा राष्ट्र एक श्रेष्ठ व आदर्श राष्ट्र बन सकेगा। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य