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संपादकीय

भारत में ये समाचार क्यों नही बनते

hindi_newspapers-325_010112035524दिल्ली दुष्कर्म का प्रकरण ठंडा भी नही हुआ था कि ऐसे ही विभिन्न दुष्कर्मों की खबरें समाचार पत्रों में इतनी बढ़ीं कि अखबारों को उठाकर देखने में भी शर्म आने लगी। ऐसी घटनाओं को ढूंढ़ ढूंढ़कर लाया जाकर परोसा जाने लगा, मीडिया में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इन घटनाओं को टीवी पर इतना अधिक दिखाया कि लोगों ने टीवी खोलना ही बंद कर दिया। हमें तसल्ली तब हुई जब अमेरिका की एक सर्वेक्षण कंपनी ने ऐसे दुष्कर्मों को हमारे राष्ट्रीय चरित्र का एक आवश्यक अंग बता दिया। जिन लोगों ने दुष्कर्मों को भारत के राष्ट्रीय चरित्र में सम्मिलित एक आवश्यक अंग बताया गलती उन लोगों की नही है। गलती है हमारी अपनी। हमने अपने बारे में इतनी गलत तस्वीर पेश की कि गैरत को भी गैरत आ गयी। गलत तस्वीर पेश करने का यह सिलसिला दामिनी प्रकरण से ही शुरू नही हुआ है, बल्कि यह दशकों पुराना है। लूट, हत्या, डकैती, बलात्कार जैसी घृणास्पद और मानव स्वभाव के (ये दानव स्वभाव की चीजें हैं) विपरीत चीजों को हमने टीवी और सिनेमा के माध्यम से बहुत पहले से परोसना आरंभ कर दिया था। इतने पहले से कि पहली के बाद दूसरी पीढ़ी भी जवान हो गयी है। जिस देश की दो पीढिय़ों ने बराबर अपने लिए गंदगी पेश होती देखी हो, उसके विचारों में ‘प्रज्ञा अपराध’ पैदा न होंगे तो किस देश की पीढ़ी के विचारों में होंगे? देश में बहस चल रही है भारत बनाम इंडिया की। बहस में भाग लेने वाले विद्वानों का मानना है कि इंडिया में अधिक अपराध हो रहे हैं। विद्वानों की इस बात में बल है। प्रज्ञा अपराध में सचमुच इंडिया ने भारत को शिकस्त दी है। भारत के लोग आज भी समझते हैं कि वैचारिक प्रदूषण से समाज और राष्ट्र का अहित होता है। इसलिए धी (बुद्घि) धृति (धैर्य) और स्मृति का उपासक मानव समाज बनाना इस राष्ट्र की परंपरा रही। अशिक्षित भारत के करोड़ों अशिक्षित लोग आज भी परंपरा से धी, धृति और स्मृति के उपासक हैं। वे आज भी हिंसक नही हैं। यही कारण है कि हजारों की जनसंख्या वाले गांवों में कोई पुलिस कर्मी नही होता और सारा गांव आराम से सोता है। वहां अधैर्य नही है, वहां बुद्घि दोष नही है, वहां स्मृति पटल पर हिंसाचार और पापाचार को जन्म देने वाली बदले की भावना नही है। वहां एक भावना है कि शांत रहो, दूसरों को भी जीने दो, जीने में कोई
प्रतियोगिता नही हो, बल्कि सह अस्तित्व का प्राणदायक भाव हो। यह भावना ही भारत के देहात को या वास्तविक भारत को आराम से सुलाती है। यह भावना ही भारत का धर्म है और इसी से भारत शासित और अनुशासित होता है। इसलिए भारत में अपराध कम है और इंडिया में अधिक है। इंडिया में कंपीटीशन नाम की एक बीमारी है, जिसने सबको तनाव में जीने के लिए अभिशप्त कर दिया है। इस कंपीटीशन की भावना को हम सीमाओं में यानि मर्यादाओं में नही रख पाए,फलस्वरूप कंपीटीशन हमारे लिए मारा मारी में बदल गया है। युवा पीढ़ी के भीतर धैर्य की कमी है। वह रातों रात अमीर बनने के लिए हाथ पांव मार रही है और इसी स्टाइल को उसने अपने जीवन का अंग बना लिया है। बस दोष विचारधारा का है। भावना का है, वस्तुओं को देखने के नजरिए में दोष है। यह आरोप सिरे से न सही तो अधिकांशत: गलत हैं कि भारत में नारी को उपभोग की वस्तु माना जाता है। हमारा मानना है कि भारत में नही अपितु इंडिया में नारी को उपभोग की वस्तु माना जाता है। बहुत सीमा तक नारी ने स्वयं को उपभोग की वस्तु टीवी आदि पर अपना अंग प्रदर्शन करके दिखाया भी है। भारत की आदर्श, शालीन और सौम्य स्वभाव की धनी संस्कारित महिला को आप टीवी पर देखें उसके प्रति सम्मान से दिल भर जाता है। लेकिन जब कोई महिला स्वयं को अश्लील रूप में पेश करती है तो क्या होता है….?
भारत में जो नही होना चाहिए वह चीजें प्रचारित की जाती हैं। जबकि जो होना चाहिए वह नजरों से ओझल कर दी जाती हैं। किसी भी समाचार पत्र में आज तक कोई ऐसा धारावाहिक लेख या लेखमालाा या निरंतर ऐसी महिलाओं के विषय में लिखे जाने का सिलसिला नही चला जो सास होकर भी बहू को बेटी से भी प्यारी बनाकर रखती है, या बहू होकर कोई महिला अपनी सास को मां से भी अधिक सम्मान देती है। प्रेरणा ऐसी चीजों से मिलती है और इन्हीं से स्वस्थ समाज बनता है। लेकिन इनकी यहां उपेक्षा होती है। जबकि देश में अधिकांश सास बहू ऐसी हैं जिनके संबंध सामान्य हैं और उनके कभी झगड़े नही होते। इनमें भी बहुत सी ऐसी आदर्श सास और बहुएं हैं जो बहुत ही अच्छे ढंग से रह रही हैं। उनके संबंधों को आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए। जिससे समाज में अच्छाई का महिमामंडन हो सके। यहां अधिकांश समाचार थानों में दर्ज रिपोर्टों के आधार पर बनाये जाते हैं। ये रिपोर्ट अधिकांश झूठी निकलती हैं। जब सच और झूठ का निराकरण होता है तो फिर कोई नही बताता कि अमुक तारीख को जो अमुक समाचार छपा था उसमें दर्ज प्राथमिकी झूठी सिद्घ हुई। दहेज कानून में फंसाने के लिए महिलाएं सास, ससुर पति और उसके सारे परिवार को धमकियां देती हैं। तनिक सोचें! कि क्या कोई विवाहिता ननद या देवरानी और जेठानी भी किसी महिला से दहेज मांगेंगी-अधिकांशत: नही। क्योंकि कम से कम ये तीनों तो उसके दहेज का कोई लाभ ही नही ले पाएंगी। तब भी उन्हें प्राथमिकी में लपेटा जाता है, ताकि वर पक्ष को अधिक से अधिक अपमानित किया जा सके। हमने कानून के विषय में पढ़ा है कि कानून की मंशा सदा ही निर्दोषों को बचाने की होती है। कहा जाता है कि कानून चाहता है कि चाहे सौ दोषी छूट जाऐं पर एक निर्दोष फांसी न चढ़ जाए। पर हमने तो हजारों निर्दोषों को सलाखों के पीछे भेज दिया है। यह कैसा कानून? दहेज के मामलों में पति पत्नी के मध्य आपसी सामंजस्य का अभाव मुख्य कारण होता है। कहीं न कहीं अहम बीच में आ रहा होता है, या लड़का भी कई बार ओच्छी हरकतें होती हैं। हमारा उद्देश्य यहां पीडि़ता की उपेक्षा करना नही है। यदि लड़का लड़की से या पति अपनी पत्नी से दहेज की मांग कर रहा है और उसका उत्पीडऩ कर रहा है तो उसके विरूद्घ कानून कठोरता का प्रदर्शन अवश्य करे। यहां हमारा उद्देश्य ये है कि ये दहेज की समस्या तथा पति पत्नी के बीच आपसी तालमेल न बैठ पाने की समस्या भी इंडिया में है। भारत में जोड़े सुदूर देहात में किस प्रकार रह रहे हैं और कैसे अपनी गृहस्थी को चला रहे हैं-यह बात भी सर्वे में आनी चाहिए। कोई भी महिला आयोग या मानवाधिकारवादी संगठन गांव देहात में पति पत्नी के मध्य के संबंधों की छानबीन के लिए मैदान में अभी तक नही आया। गांव देहात में महिला को पुरूष की अपेक्षा अधिक काम करना पड़ता है-यह बात गलत है, पर फिर भी वहां अधिकांश मामलों में पुरूष नारी का सम्मान करके चलता है और अपनी गाड़ी को पटरी से उतरने नही देता-यह बात ग्रहणीय है। ग्रामीण महिला अधिक काम करती है, इस पर भी अधिक चौंकने की आवश्यकता नही है। क्योंकि जिनके पति सरकारी नौकर है वो महिलाएं सामान्यत: परंपरागत ढंग से अपनी खेती बाड़ी और पशु आदि का कार्य सारे दिन करती है। लेकिन ये उनकी जीवन चर्या में इस तरह शामिल है कि इसे वो अपने लिए बोझ नही मानती। हां, गलती वहां होती है, जहां सारा दिन महिला काम करे और शाम को जनाव शराब पीकर आयें और फिर उस देवी की निर्मम पिटाई करें। जितनी भी महिलाएं टीवी पर महिला अधिकारों की चर्चा करती है और स्वयं को महिलाओं की हमदर्द दिखाती है उनके लिए भारत के इस ग्रामीण आंचल में व्याप्त इस बुराई को दूर करने की बड़ी चुनौती है? देखें कितनी महिलाएं अपनी बहनों के लिए स्वयं को समर्पित करने को तैयार होती हैं?
हमारा फिर भी मानना है कि ग्रामीण परिवेश में या भारत में अपराध कम है। विकृति तो हर जगह मौजूद रहती है। लेकिन यह विकृति उस इंडिया में अधिक क्यों है जो स्वयं को सभ्य समाज का अंग मानती है या कहती है? भारत का ग्रामीण आंचल क्या असभ्य है? विशेषत: तब जबकि वह हजारों वर्ष से अपने परंपरागत सामाजिक ज्ञान के बल पर अपने सामाजिक मूल्यों को बचाये हुए है। उसके रहने सहने का स्तर निम्न हो सकता है, उसकी अपनी आय कम होने के कारण, उसे हम गरीब कह सकते हैं-लेकिन वह स्वयं को गरीब मानता नही क्योंकि उसने अपनी आवश्यकताओं को सीमित करके उनके साथ सही तालमेल बैठाकर जीना सीख लिया है। हमारे यहां चिंतन इस बात पर होता है कि कौन व्यक्ति सबसे अधिक दस अमीरों में शामिल हो गया है। पर इस बात पर नही होता कि कितने लोग गरीबी रेखा से नीचे चले गये? जबकि अमीरों में जाने वालों की अपेक्षा गरीबी रेखा से नीचे खिसकने वालों की संख्या हजारों लाखों गुणा अधिक है। उन खिसकने वालों के अधिकारों को किसने मसल दिया? उनका हिस्सा खाकर, अमीरों की पंक्ति में इस पर सर्वेक्षण नही होता। हम बेतहाशा भाग रहे हैं अंधेरे भविष्य की ओर। हमें नही पता कि हमारी मंजिल क्या है और हमें कहां जाना है? सवा करोड़ की आबादी के देश के पास क्या इतना भी समय नही है कि दौडऩे से पहले अपनी मंजिल तय कर ली जाए? हम नाकारात्मक विचारों और नकारात्मक समाचारों की दुनिया में उलझकर रह गये हैं और उसी में घुट घुटकर मरने के लिए अभिशप्त हो गये हैं। जब नकारात्मक समाचारों को सुर्खियां बनाकर दिया जाएगा तो नकारात्मक सोच वाले समाज का निर्माण होना तय है। यही आज का सच है।

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