हमारे देश में अधिकांश ऐतिहासिक स्थलों का हिंदू निर्माण छुपा कर उसे मुगलों या किसी विदेशी आक्रमणकारी नवाब या बादशाह या सुल्तान द्वारा निर्मित दिखाई जाने की बहुत ही खतरनाक प्रवृत्ति चली आ रही है । इस प्रवृत्ति के चलते देश के इतिहासकारों और लेखकों ने भी उन तथ्यों और प्रमाणों की पूर्णतया उपेक्षा की है जो किसी भी ऐतिहासिक भवन या किले आदि को किसी हिंदू राजा द्वारा निर्मित स्थापत्य कला का एक बेजोड़ नमूना सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं । पी0एन0 ओक के शब्दों में कहें तो ये लोग अपने तथाकथित बौद्धिक अहंकार के कारण गर्दन ऊपर उठाकर चलते हैं , और नीचे पैरों में पड़े अनेकों प्रमाणों को कुचलते चले जाते हैं ।
इन लोगों की इसी खतरनाक प्रवृत्ति के चलते दिल्ली का लाल किला अनेकों प्रमाणों के होने के उपरांत भी इन लोगों ने मुगल बादशाह शाहजहां के नाम कर दिया है । जबकि प्रमाण ये भी हैं कि मुगलों से पहले तुर्कों की राजधानी भी दिल्ली रही और उनसे पहले अनेकों हिंदू सम्राट और राजाओं की राजधानी भी दिल्ली रही है । स्वाभाविक रूप से प्रश्न किया जा सकता है कि यदि मुगलों से पहले भी दिल्ली राजधानी थी , तो उनसे पहले के शासक कहाँ से अपना शासन चलाते थे ? स्पष्ट है कि यदि दिल्ली मुगलों से पहले भी लम्बे समय से देश की राजधानी चली आ रही थी तो उन्होंने भी दिल्ली के लाल कोट या लाल किला या किसी ऐसे ही ऐतिहासिक स्थल से को केंद्र बनाकर अपना शासन चलाया होगा ।
वास्तव में 736 ई0 में दिल्ली में तोमर राजवंश की स्थापना अनंगपाल सिंह तोमर प्रथम नाम के राजा द्वारा की गई थी । लगभग इसी समय नागभट्ट प्रथम द्वारा 730 ईसवी में गुर्जर प्रतिहार वंश की स्थापना हुई थी । उस समय 720 ईसवी में आबू पर्वत पर हुए यज्ञ में क्षत्रिय शासकों ने मिलकर विदेशी आक्रमणकारियों को भगाने और भारत के धर्म व संस्कृति की रक्षा का संकल्प लेकर राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय विचारधारा को प्रबल करने की भावना से प्रेरित होकर काम करना आरंभ किया था। कहने का अभिप्राय है कि स्वाभाविक रूप से उस समय सभी शासकों के भीतर अपने धर्म व संस्कृति की रक्षा का भाव प्रबल था। अतः तोमर शासक ने भी दिल्ली में जब अपने राजवंश की स्थापना की तो उसने भी विदेशी अरब आक्रमणकारियों के विरुद्ध संघर्ष करने की भावना से प्रेरित होकर ही यह महान कार्य किया था।
इसी तोमर वंश में आगे चलकर 1051 ईस्वी से 1081ई0 तक अनंगपाल सिंह तोमर द्वितीय नाम के प्रतापी शासक ने शासन किया। इसी शासक ने अपने शासनकाल में 1060 ईस्वी के लगभग लाल कोट नाम का किला बनवाया ।
कुछ लोगों का मानना है कि अनंगपाल सिंह तोमर द्वितीय पृथ्वीराज चौहान के नाना थे । वास्तव में ऐसा माना जाना इतिहास का एक महाझूठ ही है , क्योंकि अनंगपाल सिंह तोमर द्वितीय का शासनकाल 1051 से 1081 ई0 तक माना जाता है । जिस समय पृथ्वीराज चौहान के पिता सोमेश्वर सिंह का भी जन्म नहीं हुआ था । स्वयं पृथ्वीराज चौहान का जन्म भी 1167 ईस्वी में अर्थात अनंगपाल सिंह तोमर द्वितीय के देहांत के 86 वर्ष बाद हुआ था।
दिल्ली के वर्तमान लालकिले को 1638 ईस्वी में दिल्ली के तत्कालीन मुगल बादशाह शाहजहां द्वारा निर्मित किए जाने का झूठ इतिहास में पढ़ाया जाता रहा है । जबकि उसके सैकड़ों वर्ष पूर्व लालकिले का अस्तित्व था । स्पष्ट है कि इस मुगल बादशाह ने हिंदू राजा रहे अनंगपाल सिंह तोमर द्वितीय के द्वारा निर्मित लालकोट को ही कुछ नया स्वरूप देकर कब्जाने का प्रयास किया था। उसी का नाम लालकोट के स्थान पर लालकिला कर दिया गया।
‘ तारीखे फिरोजशाही’ के पृष्ठ संख्या 160 (ग्रन्थ 3 ) में लेखक लिखता है कि- “सन 1296 के अंत में जब अलाउद्दीन खिलजी अपनी सेना लेकर दिल्ली आया तो वो कुश्क-ए-लाल ( लाल प्रासाद/ महल ) की ओर बढ़ा और वहाँ उसने आराम किया ।”
‘अकबरनामा’ और ‘अग्निपुराण’ दोनों ही जगह इस बात का वर्णन है कि महाराज अनंगपाल ने ही एक भव्य और गौरवशाली दिल्ली का निर्माण करवाया था । शाहजहाँ से 250 वर्ष पहले ही 1398 ईस्वी में एक विदेशी तुर्क आक्रमणकारी जेहादी तैमूरलंग ने भी पुरानी दिल्ली का उल्लेख किया है । उसने अपने विवरण में जामा मस्जिद को काली मस्जिद के नाम से पुकारा है । जबकि आज के इतिहासकार इस जामा मस्जिद को भी शाहजहां द्वारा निर्मित बताते हैं । वास्तव में इसे काली मस्जिद कहे जाने का अर्थ यह था कि यहां पर हिन्दू देवी (काली ) का मंदिर था । तैमूरलंग के विवरण से पता चलता है कि पुरानी दिल्ली को भी शाहजहां के द्वारा बसाया जाना कपोल कल्पना मात्र है। यद्यपि शाहजहां ने अपने शासनकाल में दिल्ली को शाहजहानाबाद का नाम देकर पुरानी दिल्ली को कब्जाने का प्रयास अवश्य किया था।
दिल्ली के लालकिले को देखते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि वहाँ पर एक विशेष महल में सूअर अर्थात ‘वराह’ के मुंह वाले चार नल अभी भी लगे हुए हैं । इससे भी पता चलता है कि यह किसी हिंदू शासक द्वारा बनवाया गया ही लिखा है । क्योंकि सूअर को कोई भी मुस्लिम शासक अपने यहाँ पर इस प्रकार सम्मान पूर्ण स्थान नहीं देता ।
अब से लगभग 6 वर्ष पूर्व मैं भी दिल्ली के लालकिला भ्रमण करने के लिए ‘उगता भारत’ टीम के साथ गया था । मेरे साथ पत्र के सह संपादक श्रीनिवास आर्य भी थे । तब मैंने अपने साथियों को एक स्थान पर एक आश्चर्यजनक चीज दिखाई थी । मेरे सामने दिख रहे एक भवन की मुँडेर की पुताई की ऊपरी परत उतर रही थी । जिसके नीचे पहले वाली पुताई की लेयर अर्थात परत साफ दिखाई दे रही थी । जिस पर हिंदू देवी-देवताओं के चित्रों की सुन्दर चित्रकारी दीख रही थी । मैंने अपने साथियों से उस परत पर अंकित चित्रकारी को देखने के लिए कहा तो वे सभी आश्चर्य में रह गए थे क्योंकि वह सारी की सारी चित्रकारी हिंदू देवी-देवताओं से संबंधित थी । स्पष्ट है कि उसे बाद की पुताई के द्वारा ढँक दिया गया होगा। मुगल बादशाहों के ऐसे ही ‘चमत्कारों’ से हमारे हिंदू ऐतिहासिक भवन / दुर्ग आदि उनके नाम कर कर दिये गये हैं ।
हमारे देश के इस ऐतिहासिक किले के एक द्वार पर हाथी की मूर्ति अंकित हैं । हाथी को हिंदू ग्रंथों में ‘गजराज’ के नाम से भी पुकारा जाता है । गजराज इसे इसलिए कहा जाता है कि यह शाही सवारी में सम्मिलित होता आया है । अतः राजा – महाराजाओं, सामंतों और समाज के प्रतिष्ठित लोगों के द्वारों पर हाथी की प्रतिमा बनवाने और अपनी हैसियत के अनुसार हाथी रखने को हमारे यह पर गौरव का प्रतीक माना जाता रहा है । वैसे भी भारत के लोग प्रत्येक जीवधारी के जीवन का सम्मान करने वाले रहे हैं । मनुष्य और प्रकृति का साथ बना रहे और मनुष्य सभी प्राणियों के साथ मिल कर रहे , इसलिए हमारे यहां पर अनेकों कथा कहानियों में पशु पक्षियों की बातें अक्सर आती हैं । जिनमें मनुष्य को पशुओं का संरक्षक और पशु पक्षियों को मनुष्य का मित्र प्रदर्शित करने का प्रयास किया जाता है। समझने के लिए यह बहुत गहरा अर्थ होता है । इसमें हमारी संस्कृति की झलक दिखाई देती है कि हम सभी जीव धारियों के संरक्षक हैं और सभी जीवधारी हमारे मित्र हैं , इसलिए सभी के जीवन का सम्मान करना हमारा मानवीय धर्म है । क्या ऐसा कोई संदेश इस्लाम की किसी चित्रकारी से दिखाई देता है ? इस प्रकार लाल किले के द्वार पर बने ये हाथी के चित्र भी हिंदू चित्रकारी के ही नमूने हैं । क्योंकि इस्लाम में किसी भी अन्य जीवधारी को इतना सम्मान देने का कोई प्रचलन कभी नहीं रहा।
लालकिला के दीवाने खास में ‘केसर कुंड’ नाम से बने कुंड के फर्श पर हिंदुओं में पूज्य कमल पुष्प अंकित है । वैसे भी केसर कुंड शब्द संस्कृत का शब्द है , जिसे कोई भी मुस्लिम नहीं अपना सकता।
लाल किले में रखी गई न्याय तुला भी हिंदू राजाओं के शासनकाल की ही स्मृति दिलाती है । क्योंकि किसी भी मुस्लिम शासक ने कभी अपनी प्रजा के बहुसंख्यक हिंदुओं के साथ कोई न्याय किया हो ? – ऐसे उदाहरण खोजने से भी नहीं मिलते । ऐसे में उनके यहाँ पर न्याय तुला का क्या अर्थ है ? वास्तव में हमारे हिंदू शासकों के द्वारा पहले से ही प्रयोग में लाई जाती रही न्याय तुला को अपने नियंत्रण में लेकर शाहजहां ने उसे अपने दरबार में यथावत लगवा दिया था । यदि मुगल लोग इतने ही न्याय प्रिय थे तो शाहजहां के बाद हकीकत राय के माता ,- पिता के द्वारा भी तो यह न्याय तुला खटकायी गई थी , परंतु उन्हें कोई न्याय नहीं मिला था । ऐसे कितने ही ‘हकीकतरायों’ के माता पिता सिर पटक – पटक कर मर गए थे । जिन्हें कभी न्याय नहीं मिला । ऐसे में न्याय तुला के रखे होने से किसी भी प्रकार का भ्रम पालना अपनी अज्ञानता को बढ़ाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
वास्तव में इतिहास पर पड़ी धूल को पौंछने का समय आ चुका है । प्रत्येक स्थल या ऐतिहासिक भवन या दुर्ग को बहुत ही सुख सूक्ष्मता के साथ देखने , समझने और उसकी स्थापत्य कला पर शोध ब अनुसंधान करने की आवश्यकता इस समय है । देश की सरकारों को चाहिए कि लालकिला और ताजमहल सहित प्रत्येक ऐसे ऐतिहासिक स्थल की पड़ताल कराई जाए जिसके निर्माण का श्रेय किसी विदेशी मुगली या तुर्क को दिया जाता है । देश के युवाओं में गौरवबोध कराने के दृष्टिकोण से सत्य को प्रकट करना समय की आवश्यकता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत