सत्यार्थ प्रकाश में महर्षि दयानंद ने लिखा है कि पत्नी और पति वियुक्त न रहें । उन्होंने यह भी लिखा है कि पति पत्नी का एक दूसरे पर पूर्ण अधिकार होता है। इसी सिद्धांत का अनुगामी होकर मेरा जीवन में प्रयास रहता है कि मैं जब भी कहीं देशाटन पर ,देश यात्रा पर जाऊं तो सपत्नीक जाऊं । दिनांक 6 जुलाई 2017 को मैं इंदौर गया। 7 जुलाई 2017 को मैंने वहां इंदौर में सब घूम करके देखा। रानी अहिल्याबाई होलकर के पूर्वजों और वंशजों के स्थान देखें ।
इसके बाद दिनांक 8 जुलाई 2017 को सुबह 8:30 पर हम अतिथि निवास होटल से एक टैक्सी पकड़कर ओमकारेश्वर के लिए चले । जो नर्मदा नदी के किनारे शिवजी के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। जाते समय रास्ते में सिमरोल नाम का एक छोटा सा कस्बा है । हरियाली उसकी बहुत अधिक है , वहीं छोटी सी नदी है , जिसके घाट को सिमरोल घाट कहते हैं। सड़क बहुत घुमावदार है , जो नीचे की तरफ उतरती है और यह महाराष्ट्र को मिलाने वाली सड़क है। घुमावदार घाटी हैं । पहाड़ों को काटकर सड़क बनाई गई है ।गाय , बैल आदि अपेक्षाकृत वहां के छोटे पशु होते हैं। ‘नर्मदा क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक योजना’ के पाइप लगे हुए थे । जिससे नर्मदा नदी का पानी इन्हीं पाइपों के द्वारा क्षिप्रा नदी में उज्जैन की तरफ ले जाया गया था । क्योंकि सिंहस्थ के समय उज्जैन में क्षिप्रानदी में पानी की कमी हो जाती थी । उस कमी को पूरी करने के लिए नर्मदा नदी से पाइप द्वारा पानी पहुंचाया गया है।
यह वह सड़क है जो खंडवा को इंदौर से जोड़ती है। खंडवा ,खरगोन धार (पुराना धारा नगर) यह सब महत्वपूर्ण स्थान थे। जिनकी दर्शनाभिलाषा थी।
कुछ देर बाद नर्मदा नदी का पुल आता है । पूर्वी किनारे पर थाना मांधाता का बोर्ड लगा है। यह खंडवा जिले का भाग है। यहां से ओम्कारेश्वर की तरफ बाएं मुड़े जहां से एक नहर नदी के ऊपर से पुल बनाकर निकाली है । जिस नहर की छत बनाकर ऊपर ढक कर उसके ऊपर से सड़क बनाई गई है। ओमकारेश्वर एक छोटा सा कस्बा है । होटल भी बहुत हैं यहीं से उस नहर का उद्गम स्थल है। नहर यहीं से घूमती हुई बड़वाह की तरफ जाती है ।
पहाड़ ,पठार ,वन ,जंगल ऊंची _नीची भूमि, मंदिरों की बहुतायत ओमकारेश्वर में है। नर्मदा नदी पर डैम भी बना हुआ है ।इस जगह का नाम ब्रह्मपुरी ओमकारेश्वर पूरा नाम है। जिस प्रकार ऋषिकेश में लक्ष्मण झूला का पुल बना है उसी प्रकार एक पुल यहां पर भी बना हुआ है । जिसको पार करके ओमकारेश्वर मंदिर की तरफ जाते हैं ।नर्मदा नदी के दोनों तरफ का धरातल एवं प्रवाह क्षेत्र में भी पहाड़ पत्थर हैं। यहां पर नदी बहुत ही संकरी हो जाती है। सैलानी घूमते होते हैं। ओमकारेश्वर के पास ही अमरेश्वर ममलेश्वर के दर्शन भी किए। ममलेश्वर के दो मंदिर बराबर बराबर बने हैं। जो ओमकारेश्वर से भी प्राचीन है।
ओमकारेश्वर से लौटकर बड़वाह कस्बा में आते हैं ।यहां से बाएं हाथ को पश्चिम दिशा को इंदौर रोड को छोड़कर नर्मदा नदी के दाहिने किनारे पर चलते चलते कटरा गांव ,धरगांव होती हुई मंडलेश्वर से महेश्वर जाती है। महेश्वर वह शहर है जिसको देवी अहिल्याबाई ने अपनी राजधानी बनाया था। जो नहर ओम्कारेश्वर से निकाली गई थी , उसकी सिंचाई यहां तक वही नहर करती है ।खरगोन जिले की सीमा प्रारंभ होती है। यहां से मंडलेश्वर 28 किलोमीटर दूर था। खंडवा ,खरगोन जिले गुर्जर बाहुल्य हैं। यहां का किसान बहुत मेहनती है जो कड़ी धूप में भी मेहनत करता है। जहां पर गुजराती मराठी और मध्य प्रदेश तीनों की संस्कृति का संगम है।
लगभग 1:20 बजे दोपहर को हम महेश्वर पहुंच गए ।किले में प्रवेश किया ।नर्मदा नदी के किनारे पर श्री देवी अहिल्या बाई द्वारा निर्मित विशाल किला है, दरबार है। संग्रहालय है ,रणवास है। पूजा स्थल है ।सभी होल्कर वंश के राजाओं के फोटो शासन काल की अवधि चित्रपट पर उपलब्ध है। संग्रहालय में तोप, तलवार ढाल ,बंदूक आदि रखे हुए।
अहिल्याबाई की एक विशाल मूर्ति यहां पर स्थित है । किले से पूर्व में मंदिर और मंदिर के साथ ही नर्मदा नदी ।किला विशाल एवं ऊंचाई पर स्थित है । यहां पर हैंडलूम का काम बहुत अच्छा होता है।धार ,धारनगर, धारानगरी के गौरवपूर्ण इतिहास की जानकारीअब हम धार के लिए चलते हैं। धार वर्तमान जिला मुख्यालय है , जिसको प्राचीन काल में धारानगर या धारा नगरी कहते थे ।जहां परमार वंश ने अपना राज्य स्थापित किया और करीब 400 वर्षों तक एकछत्र राज्य किया ।
वह प्राचीन , ऐतिहासिक और गौरवपूर्ण स्थान है।
धारा नगरी के प्रवेशद्वार पर नगर पालिका द्वारा बोर्ड लगा गया कि” राजा भोज की नगरी में आपका स्वागत है “मुझे यह पढ़कर ऐसा अनुभव हो रहा था कि जैसे यह हमारे लिए ही लिखा गया है।
बचपन में पूज्य पिताश्री अन्य ऐतिहासिक वृत्तान्तों के साथ-साथ राजा भोज की कहानी सुनाया करते थे । उसी समय से मन में एक उत्कट उत्कंठा होती थी कि कभी धारा नगरी को अवश्य देख करके आएंगे। आज वह चिर अभिलाषा पूर्ण होने की अत्यंत ही खुशी हो रही थी। राजा भोज परमार उसके पिता सिंघल परमार , चाचा मुंज राज की रह-रहकर कहानी की चित् में पुनः पुनः आवृति हो रही थी। कुछ समय के बाद हम किले के प्रवेश द्वार पर पहुंचते हैं तो किला बहुत ही उपेक्षा का शिकार है । देखकर बहुत दु:ख हुआ। किले की बुर्जी पर खड़े होकर के देखा। सामने पश्चिम दिशा में मुंज सागर नाम की झील है , जहाँ राजा मुंज ने भोज को राज्य लौटा कर तपस्या की थी । बुर्जी पर से सारा कस्बा दिखाई पड़ता है । चारों ओर पहाड़ों की कुछ चोटियां दिखाई पड़ती हैं । किले के भग्नावशेष हैं ।किले की मरम्मत नहीं होती है । इन्हीं भग्नावशेषों में अतीत का गौरवपूर्ण इतिहास छिपा पड़ा था। आज यह किला पुरातत्व विभाग की देखरेख में है।
मांगीलाल सोलंकी मिले जो अपने आपको मध्य प्रदेश सरकार की तरफ से नियुक्त बताते हैं। किले की देखभाल करने का इनका जिम्मा है। परंतु मांगीलाल सोलंकी अपने आप को शूद्र बताते हैं जो मुझे सुनकर के आश्चर्य हो रहा था। क्योंकि मैंने सोलंकी (चालुक्य) परमार,(प्रमार)चौहान और तंवर(तोमर) को सर्वप्रथम बार १९९५ के जून माह में आबू पर्वत भ्रमण काल में सन ७२० में पैदा किए गए क्षत्रियों के बारे में ही शिलालेख देखा व पढ़ा है।
खरबूजा महल इसके अंदर बना है। इस पर मोहम्मद तुगलक ने आक्रमण किया था और इसका तहस-नहस कर दिया था। बाजीराव पेशवा इसी खरबूजा महल में रहते थे। कुछ बड़ी ईटों का निर्माण है जो बाद का बना हुआ आभास होता है। कुछ लाखोरी ईटों का बना हुआ है जो प्राचीन लगता है। खरबूजा महल के ऊपर खरबूजे के आकार के गुंबद बने हैं इसलिए खरबूजा महल कहते थे ।
दो मंजिला राज प्रासाद है । इसके अतिरिक्त कुछ प्राचीन पत्थरों की दीवार भी बनी है । सोलवीं सदी में राजप्रासाद का निर्माण हुआ था , जिसका उपयोग मुगलों ने स्थायी निवास के रूप में किया था। मराठा काल में इसका पुनरुद्धार किया गया था ।इससे पहले स्थानीय पवार शासकों ने इसको अपनी राजधानी बनाया था ।मराठा सेनापति राघोबा दादा ने 1778 में पुणे से भागकर यहीं पर शरण ली थी । जो कि पेशवा माधवराव प्रथम के काका थे । उनकी पत्नी ने यहां एक शिशु को जन्म दिया जो बाद में बाजीराव पेशवा द्वितीय बना। इस किले में मुगलकालीन निर्माण भी है। राजपूत राजाओं की निर्माण शैली भी है । जो झरोखों और आलों से स्पष्ट होती है। किले के अंदर पानी एकत्र एवं संरक्षित करने के लिए एक बहुत बड़ी बावड़ी है।
परमार वंश के राजाओं ने मालवा प्रांत के एक शहर को धार नगरी या धारानगर बनाकर अपनी राजधानी के रूप में विकसित किया । जिन्होंने आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था। इसी वंश में परमार वंश के नवें राजा सबसे महान विद्वान , बलशाली पराक्रमी वीर साहसी और प्रतापी महाराजा भोज ने धार में 1000 ईस्वी से1055 ई0 तक शासन किया।
राजा भोज के बहुत सारे ताम्रपत्र ,शिलालेख और मूर्ति लेख प्राप्त हुए हैं ।भोज का साम्राज्य अति विशाल था ।उन्होंने उज्जैन की जगह अपनी नई राजधानी धारा नगरी को बनाया था। राजा भोज को उनके अनेक कार्यों के कारण भिन्न – भिन्न प्रकार की उपाधियां मिली थीं। उनको नवसहसक अर्थात विक्रमादित्य भी कहा जाता है ।राजा भोज इतिहास प्रसिद्ध राजा मुंज राज के भतीजे और राजा सिंघुल के पुत्र थे , उनकी पत्नी का नाम लीलावती था।
राजा भोज का जन्म सन 980 में विक्रमादित्य की नगरी उज्जैन में हुआ था । इससे स्पष्ट है कि राजा भोज विक्रमादित्य परमार के वंशज थे। इस वंश का राजा भोज सर्वाधिक दानी , विद्वान और प्रतापी नरेश हुआ है ।राजा भोज ने तेलंगाना के तेलप व तिरहुत के गांगेय देव को हराया । तब यह कहावत बनी कि ‘कहां राजा भोज कहां गंगू तेलप’ – जो बाद में अपभ्रंश होकर तेली शब्द बना।
राजा भोज के पिता राजा सिंघुल की मृत्यु उस समय हो गई थी जब राजा भोज 5 वर्ष के थे, अर्थात बाल्यावस्था में थे ,तो राजा सिंघुल ने अपने भाई मुंजराज को शासन देते हुए कहा था कि जब मेरा पुत्र भोज बड़ा हो जाए तो इस राज्य को उसको लौटा देना।
परंतु मुंज शासन सत्ता में अंधे हो गए और उन्होंने भोज को मरवाने की योजना बनाई। भोज को मरवाने के लिए मुंज ने वत्सराज नामक एक व्यक्ति को सौंप दिया । जो बंगाल से बुलाया था । भोज ने अपनी जंघा से रक्त निकालकर एक पत्ते पर लिख कर उस व्यक्ति को दिया । जिसको राजा मुंज ने मारने का जिम्मा सौंपा था। राजा भोज ने उस पत्र पर लिखा कि इस सृष्टि के प्रारंभ में राजा मांधाता चक्रवर्ती सम्राट युधिष्ठिर आदि हुए हैं , परंतु यह पृथ्वी किसी के साथ नहीं गई । मुझे लगता है यह पृथ्वी मेरे चाचा के साथ जाएगी। उनका लिखा हुआ वह मूल श्लोक इस प्रकार था :–‘मान्धाता स महीपति: कृतयुगालंकार भूतो गत:
सेतुर्येन महोदधौ विरचित: क्वासौ दशस्यांतक:
अन्ये चापि युधिष्ठिर प्रभृतिभि: याता दिवम् भूपते
नैकेनापि समम् गता वसुमती नूनम् त्वया यास्यति।।’अर्थात सत्ता स्वार्थ में अंधे हुए मेरे चाचा जी सुनो ! “मान्धाता एक चक्रवर्ती राजा था – पूरी धरती पर उनका शासन था । महीपति अर्थात इस भूमि के स्वामी मान्धाता जैसे अनेकों प्रतापी राजा हुए थे, जो कृतयुग के अलंकार हुए, पर अन्त में वे सभी मृत्यु को प्राप्त हो गए ।
जिसने महासागर पर पुल बनाया था, रावण का वध करने वाला वह मर्यादा पुरुषोत्तम और दशरथ नंदन राम भी आज पता नहीं कहां चला गया ? चाचाजी !और भी बहुत से राजा हुए हैं। जिनकी सूची युधिष्ठिर से आरंभ होकर बहुत आगे तक चली आती है , यह सारे के सारे मोहन प्रतापी शासक भी नामशेष रह गए हैं। मुझे यह कहते हुए आश्चर्य हो रहा है कि —
न एकेन अपि समम् गता वसुमती नूनम् त्वया यास्यति
अर्थात इनमें से किसी के साथ भी ये पृथिवी नहीं गई, अर्थात वे सब महान थे पर इस धरती को साथ नहीं ले जा सके, नूनम् अर्थात निसंदेह तुम्हारे साथ (पूज्य चाचाजी) जाएगी ?
जब यह पत्र उस व्यक्ति ने राजा मुंज को जाकर के दिया तो वह बहुत रोने लगे और बहुत पश्चाताप उन्होंने किया । लेकिन मारने वाले को पहले ही दया आ चुकी थी उसने भोज को छुपा दिया था। राजा के पश्चाताप करने पर उसको पुनः प्रस्तुत किया। जिससे राजा बहुत प्रसन्न हुआ ।उसने राज्य कार्य भोज को सौंप करके एक बड़ी विशाल झील के किनारे पर तपस्या की, जिसे मुंज सागर झील कहते हैं , जो किले के सामने वर्तमान में भी है।
मुंज की एक इच्छा थी कि पश्चिम के राजाओं को जीतकर अपने राज्य के अधीन करे , लेकिन वह इच्छा उसके मन में रह गई , परंतु यह इच्छा उसके भतीजे राजा भोज ने पूरी की थी।
राजा भोज बचपन से ही चारों ओर से शत्रुओं से घिरे हुए थे। उत्तर में तुर्कों से, उत्तर पश्चिम में राजपूत सामंतों से ,दक्षिण में चालुक्यों से ,पूर्व में कलचुरी युवराज से ,पश्चिम में ही भीम चालुक्य से । उन्हें इन सभी से युद्ध करना पड़ा था। भीम चालुक्य से युद्ध करने की इच्छा राजा मुंज की थी जो राजा भोज ने पूरी की ।इन सभी को राजा भोज ने युद्ध में हराया था। और अपना राज्य स्थापित किया था।
राजा भोज का प्रधानमंत्री रोहक था, भुवन पाल मंत्री था। कुलचंद्र , साद्ध, तरा आदित्य उनके सेनापति थे।
राजा भोज ने अपने शासनकाल में बहुत सारे मंदिर बनवाए ।वर्तमान मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल को बसाया ,जो भोजपाल नाम से बसाई गई थी । इस प्रकार भोपाल का पुराना नाम भोजपाल है ।इन्हीं के नाम से प्रेरित होकर बाद के राजाओं को भी ‘भोज’ की उपाधि दी जाने लगी थीं।
उज्जैन में स्थित महाकालेश्वर मंदिर, उत्तर में केदारनाथ का जीर्णद्धार,दक्षिण में रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग पुनरूद्धार ,सोमनाथ पुनरूद्धार ,मुंडीर आदि मंदिर, धार की भोजशाला, भोपाल का विशाल तालाब एवं अन्य स्मारक तथा मध्य प्रदेश के अन्य शहर व नगर जैसे धार ,उज्जैन और विदिशा राजा भोज के सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक विरासत के रूप में प्राप्त हैं।
उज्जैन में ही सरस्वती कंठ भरण मंदिर बनवाया। सरस्वती मंदिर एक महत्वपूर्ण मंदिर है । जिसमें वाणी की देवी अर्थात वाग देवी की पूजा होती है।
महमूद गजनवी ने सोमनाथ के मंदिर का विध्वंस किया था ।इतिहासकार लेनपूल के अनुसार यह समाचार शिवभक्त राजा भोज तक पहुंचने में कुछ समय लगा ।तुर्की लेखक गर्दी जी के अनुसार उन्होंने इस घटना से क्षुब्ध होकर सन१०२६ में गजनबी पर हमला किया और वह क्रूर हमलावर सिंध के रेगिस्तान में भाग गया। राजा भोज ने हिंदू राजाओं को एकत्रित करके महमूद गजनवी के भांजे सालारमसूद को बहराइच के पास एक माह के युद्ध में राजा सुहेलदेव आदि के साथ मिलकर सोमनाथ के विध्वंस का बदला लिया था। ग्वालियर से मिले राजाभोज के स्तुति पत्र के अनुसार राजा भोज ने अनेक युद्धों में विजय श्री प्राप्त की।
नदियों को जोड़ने का कार्य भी किया था,
राजा भोज के साम्राज्य के अधीन मालवा ,कोकण, खानदेश ,भिलसा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा ,चित्तौड़ एवं गोदावरी घाटी का कुछ भाग शामिल था।
राजा भोज ने 84 ग्रंथ लिखे और उनको 64 प्रकार की सिद्धियां प्राप्त थी।
धर्म ,आयुर्वेद ,व्याकरण, ज्योतिष ,वास्तु शिल्प कला, नाट्यशास्त्र ,संगीत ,विज्ञान, योग शास्त्र ,दर्शन, राजनीति, शास्त्र आदि उनके प्रमुख ग्रंथ हैं।
राजा भोज ने शब्दानुशासन राजमृदाद, कृत्य कल्पतरु, भोज चंपू, श्रृंगार मंजरी ,कूर्म शतक ,प्राकृत व्याकरण , आयुर्वेद सर्वस्व श्रंगार प्रकाश ,आदित्य प्रताप सिद्धांत, चारु चर्चा युक्ति कल्पतरु, विद्या विनोद ,योगसूत्र वृत्ति, राजकार्ताद, ,सिद्धांत संग्रह, कंठ भरणसरस्वती, समरांगण सूत्रधार ग्रंथों की रचना की थी।
‘भोज प्रबंधनम’ नामक राजा भोज की आत्मकथा है। राजा भोज ने चंपू रामायण की रचना की जो अपने गद्य काव्य के लिए सर्व ज्ञात है। राजा भोज की राज सभा में लगभग५०० विद्वान रहते थे। इनमें नौ रतन का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। राजा भोज ने वायुयान बनाने की विधि का विस्तृत वर्णन वेदों की विद्या के अनुसार विस्तारपूर्वक किया है। रोबोट तकनीक पर भी उन्होंने काम किया था।
यह जानकर के आश्चर्य होगा , लेकिन विमान और रोबोट की तकनीक हमारे देश की प्राचीन तकनीकों में से एक है। त्रेता युग में रावण के पास विमान था।
वस्तुतः परमार राजा भोज का जीवन चरित्र अनेक विश्वविद्यालयों द्वारा आज भी शोध के विषय में पढ़ाया जाता ।
राजा भोज परमार को अपनी मृत्यु से पूर्व गुजरात के चालुक्य राजा तथा चेदि नरेश की संयुक्त सेनाओं ने लगभग सन१०६० ई0 में पराजित कर दिया और इसी शोक में राजा भोज की दु:खद मृत्यु हो गई थी।
इसके अतिरिक्त अनेक पहलू हैं राजा भोज के जीवन चरित्र के। जिन पर एक समय में दृष्टिपात नहीं किया जा सकता है।देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।