प्रत्येक गणतंत्र दिवस के अवसर पर हमें बीते वर्षों का आंकलन बिना किसी राजनीतिक पक्षपात के करना चाहिए। देश के प्रथम नागरिक के नाते देश के राष्ट्रपति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह इस राष्ट्रीय दिवस पर अपने दिल की बात बोलेगा और ऐसा कुछ बोलेगा जो राजनीतिक पक्षपात शून्य होगा। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने दिल की बात बोली है और बिना किसी राजनीतिक पक्षपात के बोली है, देश में राजनीतिक मूल्यों को नीलाम करने में कोई भी दल पीछे नही रहा है। राजनीति सबसे बड़ा धर्म माना गया है, इसकी पवित्रता और अपवित्रता का प्रभाव पूरे समाज और राष्ट्र पर पड़ता है। राजनीति धर्मभ्रष्ट हुई तो सारा समाज धर्मभ्रष्ट हो गया। राष्ट्रपति ने इस स्थिति को मांपकर और बीते वर्ष की 16 दिसंबर को राजनीति में हुए दुष्कर्म के दृष्टिगत नैतिक मूल्यों को स्थापित करने के लिए नये सिरे से गंभीर चिंतन करने की बात उठाई है। उनका यह दिशा निर्देश अथवा मार्गदर्शन बिल्कुल सही है।
हमारे देश ने बीते 65 वर्षों में हर क्षेत्र में उन्नति की है। राजनीतिक नेतृत्व की भयंकर भूलों और कमियों के बावजूद देश के पुरूषार्थ को और देश के उद्यमशील मौलिक चिंतन को नकारा नही जा सकता। दिशा पुरषार्थ और उद्यमशीलता के कारण नही भटकी, अपितु राजनीतिक नेतृत्व की उन कमियों के कारण भटकी जिनसे देश की शिक्षानीति प्रभावित हुई और देश में नैतिक शिक्षा को अनिवार्य विषय के रूप में कभी रखा नही गया। मनुष्य जन्मना तो शूद्र पैदा होता है, लेकिन संसर्ग और संपर्क से वह विद्वान बनता है, इस सत्य को ओझल कर दिया गया, और ये माना गया कि आदमी को पैसा कमाने की मशीन बना दो, नैतिकता तो उसमें अपने आप आ जाएगी। यह सोच सिरे से ही गलत थी, ऐसा कभी हो नही सकता। पैसा कमाने की मशीन बना मानव अंतिम रूप में भावशून्य और हृदयहीन हो गया। आज उसी मानव के रूप में खड़े अपने दानव रूप से देश की राजधानी देहली दहली है। इसने पूरे देश की नींद उड़ा दी। देश के शीर्ष पद पर बैठे राष्ट्रप्रमुख का चिंतन इस पर फूटा और उन्होंने देश को चेताया है कि दिशा बदल दो, सोच बदल दो, उद्देश्य बदल दो, नीतियां बदल दो और रीतियां बदल दो।
ऐसी ही चिंता राष्ट्रपति ने युवाओं को लेकर की है, उन्होंने युवाओं को अधिक अवसर देने की बात कही है। श्री मुखर्जी ने कहा है कि देश को अपनी नैतिक शिक्षा को फिर से निर्धारित करने का समय आ गया है। निराशावादिता को बढ़ावा देने के लिए कोई अवसर नही दिया जाना चाहिए, क्योंकि निराशावाद नैतिकता को अनदेखा करता है। हमें अपनी अंर्तआत्मा में गहराई से झांकना होगा और यह पता लगाना होगा कि हमसे भूल कहां हुई है।
देश के उपराष्ट्रपति मौ. हामिद अंसारी ने भी देश की राजनीति में आई गिरावट में चिंता व्यक्त की है। उन्होंने कहा है कि चुनावों में अधिकांश मतदाता अपना मत नही डालते। उम्मीदवार किसी खास वर्ग के वोट पाने के लिए समाज में विघटन की राजनीति करते हैं और विखंडन को पैदा करने वाली मानसिकता को विकसित करने में मदद करते हैं। उपराष्ट्रपति की यह चिंता भी विचारणीय है। दोनों शीर्ष पुरूषों का राजनीति और नैतिकता को लेकर जो चिंतन आया है वह सारे राजनीतिक दलों से कुछ कह रहा है और कुछ मांग रहा है। इसलिए राजनीतिज्ञों को और राजनीतिक दलों को दोनों शीर्ष नेताओं के चिंतन पर अपना अंतर्मथन करना चाहिए। देश को सही दिशा देने के लिए और युवा वर्ग को आगे लाने के लिए यह संयोग की बात है कि कांग्रेस के नवनियुक्त उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी अपना इसी प्रकार का मत व्यक्त किया है, यह अलग बात है कि कांग्रेस और कांग्रेसियों के द्वारा यह बात व्यवहारिक रूप से लागू नही की जाएगी। हमें आज सचमुच राष्ट्र के परिपे्रक्ष्य में गंभीर चिंतन करने की आवश्यकता है। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी का सही नेतृत्व देश को मिला है, एक मंजे हुए राजनीतिज्ञ से देश कुछ सीखे और उसके अनुभवों का लाभ उठाते हुए सरकार उसके निर्देशों के अनुसार कुछ करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करे, तो निश्चित ही अच्छे परिणाम आ सकते हैं। आवश्यकता आज के युवावर्ग को नैतिक रूप से मजबूत बनाने की है क्योंकि आज का युवा ही कल का नेता है। हमें फिल्मों के सेंसर बोर्ड को भी सख्त करना होगा, हमें शिक्षा में नैतिकता का समावेश भी करना होगा, हमें टीवी पर कार्टून न दिखाकर नानी की कहानियां भी बच्चों को सुनानी होंगीं, हमें हिंसा और व्यभिचार को दूर रखकर अहिंसा और शिष्टाचार का पाठ भी अपने बच्चों को पढ़ाना होगा। समझो, एक क्रांति करनी होगी।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।