स्वर और व्यंजन दोनों में अकार मुख्य है। अकार के बिना व्यंजनों का उच्चारण नही होता। इसलिए भगवान ने अकार को अपनी विभूति बताया है।
अहमेवाक्षय: काल-जिस काल का कभी क्षय नही होता अर्थात जो कालातीत है और अनादि अनंतरूप है। वह काल भगवान ही है। ध्यान रहे सर्ग और प्रलय की गणना तो सूर्य से होती है पर महाप्रलय ने जब सूर्य भी लीन हो जाता है तब समय की गणना परमात्मा से होती है। इसलिए परमात्मा अक्षयकाल है।
काल और अक्षय काल में अंतर क्या है?
काल में एक क्षण भी स्थिर नही रहता, बदलता रहता है। काल ज्योतिष शास्त्र का आधार है और उसी से समस्त संसार मात्र के समय की गणना होती है। परंतु अक्षय काल परमात्मास्वरूप होने से कभी बदलता नही। यह अक्षयकाल सबको खा जाता है और स्वयं ज्यों का त्यों ही रहता है। अर्थात इसमें कभी विकार नही होता उसी अक्षय काल को भगवान ने अपनी विभूति बताया है।
मृत्युसर्वहरश्चाहम् :-अर्थात मृत्यु में हरण करने की ऐसी विलक्षण सामथ्र्य है कि मृत्यु के बाद यहां की स्मृति तक नही रहती सब कुछ अपहृत हो जाता है। वास्तव में यह सामथ्र्य मृत्यु की नही अपितु परमात्मा की है।
(दसवां अध्याय पृष्ठ 706) कीर्ति श्रीर्वाक्य नारीणां स्मृतिर्मेधाधृति क्षमा अर्थात कीर्ति श्री, वाक, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा-ये सातों संसार भर की स्त्रियों में श्रेष्ठ मानी गयीं हैं। इन सातों को मेरी ही विभूति मानना चाहिए।
कीर्ति-सद्गुणों को लेकर संसार में जो प्रसिद्घ (प्रतिष्ठा) होती है उसे कीर्ति या यश कहते हैं। दुर्गुणों को लेकर संसार में चर्चा होती है उसे अपकीर्ति अथवा अपयश कहते हैं। इसीलिए किसी महापुरूष की कीर्ति के संदर्भ में विख्यात शब्द आता है जबकि किसी डकैत अथवा अपराधी प्रवृत्ति के व्यक्ति की प्रसिद्घि के संदर्भ में कुख्यात शब्द आता है।
श्री-स्थावर और जंगम-यह दो प्रकार का ऐश्वर्य होता है। जमीन, मकान, धन, संपत्ति इत्यादि स्थावर ऐश्वर्य है और गाय, भैंस, ऊंट, घोड़ा, हाथी आदि जंगम ऐश्वर्य है। इन दोनों ऐश्वर्यों को मिलाकर श्री कहते हैं। जो व्यक्ति उपरोक्त ऐश्वर्यों का जितना बड़ा अधिपति होता है वह उतना ही भगवान की श्री नामक विभूति का पात्र होता है।
वाक : जिस वाणी को धारण करने से संसार में यश-प्रतिष्ठा होती है, और जिससे मनुष्य विद्वान पंडित कहलाता है, उसे वाक कहते हैं। वाणी का परिष्कृत रूप वाक कहलाता है। यह भी परमात्मा की एक विभूति है।
स्मृति पुरानी सुनी सुनाई बात को संजोए कर रखने की जो मानसिकता शक्ति है उसे स्मृति कहते हैं। जो इस शक्ति का धनी है, समझो परमात्मा की इस शक्ति स्मृति का विशेष पात्र है। उसे स्मृति नामक विभूति देकर परमात्मा ने उसके व्यक्तित्व को अलंकृत किया है।
मेधा-संसार में क्या गलत है क्या सही है, इसका ठीक ठीक निर्णय कराने वाली जो मानव मस्तिष्क की शक्ति है-उसे बुद्घि अथवा मेधा कहते हैं। इस शक्ति की प्रचुरता से ही विद्या ठीक तरह से याद रहती है तथा सांसारिक संबंधों का ताना बाना ठीक चलता है इतना ही नही नये नये आविष्कार भी इस शक्ति से ही किये जाते हैं। ये भी परमात्मा की एक विभूति है।
धृति – मनुष्य को अपने सिद्घांत मान्यता आदि पर डटे रहने तथा उनसे विचलित न होने देने वाली शक्ति का नाम धृति अथवा धैर्य है। परमात्मा की इस विभूति से जो जितना अधिक अलंकृत होता है वह संसार में उतने ही साहसिक कार्य कर सबको चमत्कृत कर देता है। संकट के समय एक व्यक्ति पूरे राष्टï्र का अवलंबन बन जाता है, आस्था और विश्वास का केन्द्र बन जाता है जैसे राजा अथवा सेना का सेनापति पूरी फौज अथवा प्रजा के साहस का स्रोत होता है। इसलिए यह भी भगवान की ही एक विभूति है।
क्षमा यदि कोई बिना कारण अपराध कर दे, तो अपने में दण्ड देने की शक्ति होने पर भी उसे दंड न देना उसे लोक परलोक में कहीं भी उस अपराध का दण्ड न मिले इस तरह का भाव रखते हुए उसे माफ कर देने का नाम क्षमा है। भगवान की इस शक्ति से विभूषित व्यक्ति बिरले ही मिलते हैं जैसे-देव दयानंद तथा ईशा जिन्होंने अपने हत्यारों को भी क्षमा कर दिया था। इसीलिए कहा गया है क्षमा वीरों का आभूषण है, कायरों का नही यदि किसी में क्षमा करने की शक्ति है तो समझो वह भगवान की इस विभूति से अलंकृत है।
कीर्ति श्री और वाक-ये तीन प्राणियों के बाहर प्रकट होने वाली विशेषताएं (विभूति) हैं तथा स्मृति मेधा, धृति और क्षमा-ये चार प्राणियों के भीतर प्रकट होने वाल विशेषताएं (विभूतियां) हैं। इन सातों को भगवान ने अपनी विभूतियां बताया है। यदि किसी व्यक्ति में सातों गुण दिखाई दें तो उस व्यक्ति की विशेषता न मानकर भगवान की विभूति देन माननी चाहिए और भगवान को ही याद करना चाहिए। यदि ये गुण अपने में दिखाई दें तो इनको भगवान की ही विभूति मानना चाहिए अपने नहीं। कारण कि यह दैवी भगवान की संपत्ति है। जो भगवान से प्रकट हुई है। इन गुणों को अपना मान लेने से अभिमान पैदा होता है। जिससे पतन हो जाता है क्योंकि अभिमान संपूर्ण आसुरी संपत्ति का जनक है। इसलिए उपरोक्त सातों विभूतियों में से यदि केाई गुण आपके व्यक्तित्व में है तो सर्वदा अहंकार शून्य रहना चाहिए तथा प्रभु के लिए हृदय में सर्वदा कृतज्ञता का भाव रहना चाहिए कि प्रभु ने मुझे इस योग्य तो समझा जो इन विभूतियों से अलंकृत किया है। ऐसे ही मनुष्य सब वस्तु, घटना व्यक्ति परिस्थिति आदि के मूल में भगवान को देखने लगे तो हर समय आनंद ही आनंद रहेगा।
दसवां अध्याय पृष्ठ 701
गंधर्वाणां चित्ररथ-स्वर्ग के गायकों को गंधर्व कहते हैं और उन सभी गंधर्वों में चित्ररथ मुख्य है। अर्जुन के साथ उनकी मित्रता रही और इनसे अर्जुन ने गायन विद्या सीखी थी। गायन विद्या में अत्यंत निपुण और गंधर्वों के कारण भगवान ने चित्ररथ को अपनी विभूति बताया है।
सिध्यानां कपिलो मुनि:-कपिल ऋषि को जन्मजात सिद्घ माना जाता है। इसलिए इन्हें आदि सिद्घ कहा जाता है। ये कर्दम ऋषि के यहां देवहुति के गर्भ से पैदा हुए थे। से सांख्य आचार्य और संपूर्ण सिद्घों के गणाधीश हैं। इसलिए भगवान ने इनको अपनी विभूति बताया है।
मृगायां च मृगन्द्रोअहम :-बाघ, हाथी, चीता, मृग, रीछ आदि जितने भी पशु हैं उन सबमें शेर बलवान हैं। वह प्रभावशाली, शूरवीर और साहसी हैं। वह पशुओं का राजा है। इसलिए भगवान ने शेर को अपनी विभूति बताया है।
गायत्री छन्दसामहसम पृष्ठ 707:-वेदों की जितनी छन्दोबद्घ ऋचाएं हैं, उनमें गायत्री मुख्य है। गायत्री को वेद जननी कहते हैं, क्योंकि इसी से वेद प्रकट हुए हैं। स्मृतियों में और शास्त्रों में गायत्री की बड़ी भारी महिमा गायी गयी है। गायत्री में स्वरूप प्रार्थना और ध्यान तीनों परमात्मा के होने से इससे परमात्म तत्व की प्राप्ति होती है, इसलिए भगवान ने गायत्री को अपनी विभूति बताया है।
मासानां मार्गशीर्षों अहम्-जिस अन्न से संपूर्ण प्रजा जीवित रहती है। उस अन्न की उत्पत्ति मार्गशीर्ष महीने में होती है। इस महीने में नये अन्न से यज्ञ किया जाता है। महाभारत काल में नया वर्ष मार्गशीर्ष से ही आरंभ होता था। इन विशेषताओं के कारण भगवान ने मार्गशीर्ष को अपनी विभूति बताया है।
क्रमश: