बिना भक्ति के हृदय मरूभूमि के समान है
यदि मनुष्य आत्मोत्थान चाहता है , कैवल्यानंद अर्थात मोक्ष प्राप्ति के आनंद की इच्छा रखता है
तो इसका एक ही साधन है – योग । योग के भी तीन अंतिम चार अंग प्रत्याहार , धारणा , ध्यान और समाधि अंतरंग योग के अंतर्गत आते हैं । प्राणायाम अंतरंग एवं बहिरंग योग के बीच एक सेतु का काम करता है। यदि मनुष्य को अपना शरीर रोगमुक्त और स्वस्थ करना हो , वन , वचन और कर्म से शुचिता प्राप्त करनी हो , आत्मा को निर्मल करना हो तो यह सब प्राणायाम से ही हो पाना संभव है । क्योंकि प्राणायाम के द्वारा ही चित्त की वृत्तियों का निरोध करके आत्मस्थ होकर साधक जीवन मुक्ति प्राप्त कर सकता है। विद्वानों की मान्यता है कि सभी वस्तुओं में परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव करने का प्रयास करना ही ज्ञान साधना है। सभी वस्तुओं में परमात्मा की सत्ता को अनुभव करने के लिए लोग आध्यात्मिक साधना करते हैं। परमात्मा सभी वस्तुओं में नहीं है, बल्कि सभी वस्तुएं उन्हीं में हैं, सभी वस्तुएं वे ही हैं। ज्ञान साधना में यह बोध होता है कि सभी वस्तुएं परमात्मा ही हैं। जबकि भौतिक विश्व में सभी व्यक्तियों में कार्य करने की संभावना है, किंतु कुछ लोग ही शत-प्रतिशत संभावना का उपयोग कर पाते हैं, 90 प्रतिशत का उपयोग हो ही नहीं पाता।
कर्म साधना का आशय है- दूसरों के लिए अधिक और अपने लिए कम कर्म करना। साधारणतया मनुष्य अपने लिए ही कार्य में संलग्न रहता है। जो दूसरों के लिए भी कर्म करता है, वह वास्तव में महान है। जो सिर्फ दूसरों के लिए ही कर्म करता है वह ‘कर्मसिद्ध’ कहा जाता है। इसलिए ज्ञान और कर्म द्वारा भक्ति का जागरण किया जाता है। इस बात को मन में रखें कि ज्ञान और कर्म दोनों को ही करना है, किंतु कर्म साधना, ज्ञान साधना से ज्यादा करनी है। जब कर्म की तुलना में ज्ञान साधना ज्यादा हो जाए, तो अहंकार के पैदा होने की संभावना बढ़ जाती है, जिसका परिणाम पतन होता है।
जब ज्ञान से अधिक कर्म किए जाते हैं, तब भक्ति जाग्रत हो जाती है, तब योगी परमात्मा की ओर बढ़ सकता है। इसके पहले नहीं। एक योगी संपूर्ण रूप से भक्ति पर आश्रित रहता है। जहां भक्ति नहीं है, उस योगी का हृदय मरुभूमि की भान्ति हो जाता है।
शरीर में प्राण की भूमिका
शरीर में प्राण की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। प्राण को उसके मुख्य द्वार नासिका से हम लेते छोड़ते हैं ,स्वास प्रश्वास करते हैं। प्राणायाम विधि द्वारा स्वास एवं प्रष्वास रूपी रज्जू का सहारा लेकर यह ‘मन’ देहगत आंतरिक जगत में प्रविष्ट होकर साधक को वहां की दिव्यता का अनुभव करा देता है ।ऐसा हमारे विद्वत जनों ने ,पूर्वजों ने ,ऋषि और मुनियों ने आविष्कार किया है।
लेकिन यहां यह स्पष्ट करना भी आवश्यक एवं समीचीन हो जाता है कि प्राणायाम करना केवल श्वास प्रश्वास ही नहीं है बल्कि वायु के साथ ही प्राणशक्ति या जीवनी शक्ति को ग्रहण करना भी प्राणायाम से ही संभव हो जाता है । यह जीवनी शक्ति सर्वत्र व्याप्त सदा विद्यमान रहती है, जिसे हम ईश्वर ,ओ३म, जगत पिता आदि कहते हैं, उससे ठीक से जुड़े रहने के साधन का अभ्यास करना ही प्राणायाम है।
इसी कारण शतपथ ब्राह्मण में प्राण को अमृत प्रजापति कहा है (देखो शतपथ१०.२.६.१८)
(शतपथ 4,5 ,5,13)(शतपथ 8,4 ,1,4) (शतपथ 6,3,1,9) बृहदारण्यक उपनिषद में प्राण को एक देव कहा है और उसे ही ब्रह्म कहा जाता है । क्षर और अक्षर, जड़ व चेतन जगत सब प्राण धर्म का ही विस्तार है। प्राण ही प्रजापति रूप से सबके केंद्रों में ,हृदय में या घर में बैठा हुआ अनेक प्रकार से प्रकट हो रहा है। केवल योगी अथवा आत्म ज्ञानी पुरुष ही नाभि स्थित उस प्राण रूपी योनि को देखते हैं।
तीन अग्नियों की महत्ता
जीवन रूपी यज्ञ में प्राण ही गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि और आह्वानीय नामक तीन अग्नियां है।
(देखो शतपथ 2,2,2, 18)
इस शरीर रूपी ब्रह्मग्नि में प्राण अग्नियां। सुलगती रहती है यह उस समय भी विद्यमान रहती हैं जब इंद्र आदि देव सो जाते हैं । गार्हपत्य अग्नि अपान , दक्षिणाग्नि व्यान और आह्वानीय प्राण हैं। श्वास प्रश्वास आहुतियों को समावस्था में रखने वाला समान है ।मन यजमान है। इष्टफल उदान इस मन को नित्य ब्रह्म के समीप ले जाता है। (देखो प्र, उ,४,३)
जीवन एक यज्ञ है
जैसे उस परमपिता-परमेश्वर के सारे भण्डार इस विशाल जगत के लिए हैं, इसके प्राणधारियों के लिए हैं, वैसे ही राष्ट्रीय व्यक्ति के पास या किसी यज्ञ पुरूष के पास जो कुछ भी होता है वह राष्ट्र के लिए होता है। भारत में कितने ही सम्राट हो गये हैं, जिन्होंने अश्वमेध यज्ञ किये और अपना सर्वस्व राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया। इस प्रकार हमारे पूर्वजों ने यज्ञ को राष्ट्रीय बनाकर जीवन जिया। यज्ञ के अनुरूप अपनी भावनाएं बनायीं और अपने पास अपना कुछ न समझकर जो कुछ भी था उसे लोककल्याण के लिए समर्पित कर दिया। इसका कारण यही था कि हम यज्ञमय थे और अपना सर्वस्व प्राणिमात्र के लिए होम करने वाले प्रभो के उपासक थे। जैसा हमारा प्रभु था, या दाता था वैसी ही हमारी भावनाएं थीं। यह था हमारे यज्ञ का आधार और यह थी हमारी प्रार्थना की ऊंचाई। जब भक्त प्रार्थना की इस ऊंचाई को अनुभव कर लेता है या उसे स्पर्श कर लेता है तब वह कह उठता है :-
‘ओ३म् तच्चक्षुर्देवहितम् पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम् शरद: शतं जीवेम् शरद: शतं श्रणुयाम् शरद: शतं प्रब्रवाम् शरद: शतमदीना: स्याम् शरद: शतं भूयश्च शरद: शतात्।।’ (यजु. 36/24)
यहां भक्त कह रहा है कि हे स्वप्रकाश स्वरूप प्रकाशमान सर्वेश्वर ! आप सब के दृष्टा सब को देखने वाले और जानने वाले देवों के परमहित कारक तथा पथ प्रदर्शक हैं। सृष्टि से पूर्व वर्तमान तथा प्रलय के अनंतर भी वर्तमान रहने वाले विज्ञान स्वरूप आप अनादि रूप से सब कालों में विद्यमान हैं। प्राणिमात्र को ऊपर उठाने वाली तथा उनकी उन्नति में सहायक शक्तियों को बीज रूप में आपने स्वकृपा से, सबको प्रदान कर रखा है। हे प्रभु ऐसी कृपा करो, कि आपके सहाय व स्व पुरूषार्थ से हम इन शक्तियों का जीवन पर्यन्त सदुपयोग करते रहें। आपकी ही कृपा से हम आपके आनंदमय स्वरूप का ध्यान शतायु पर्यंत करते रहें। हमारी देखने, परखने, अनुभव करने तथा ज्ञान वर्धन करने वाली समस्त शक्तियां निरंतर विकसित होती रहें, अपने जीवन को हम सौ वर्षों तक जीवंत अर्थात कार्यकुशल बनाये रखें। कानों से और वाणी से आप ही का वेद ज्ञान हम सौ वर्ष पर्यंत सुनें तथा सुनाते रहें। आपकी ही सामीप्यता हर समय अनुभव करते हुए सौ वर्ष तक अदीनतापूर्वक जीवनयापन हम करते रहें। कभी भी किसी के पराधीन न हों। आपकी कृपा से यदि सौ वर्ष से भी अधिक आयु हमको प्राप्त हो तो भी हम आपकी छत्र छाया में ही स्वाधीनता पूर्वक विचरें। आपके दर्शन में मग्न हमारी आत्मा सदा (शांत) रहे यही हमारी आपसे बारंबार प्रार्थना है।
(देखो शतपथ 1,3,2,1) जैमिनीय ब्राह्मण में प्राण को ही हंस कहा गया। आत्मा इस प्राण रूपी हंस पर आरूढ़ होकर जन्म मरण के बंधन से तर जाता है ।( प्राणो वै सुपर्णा) सुपर्ण का अर्थ हंस से है।
देवताओं के दिव्य वैद्य प्राण व अपान को कहा जाता है, जो समस्त ब्रह्मांड की चिकित्सा करते हैं ।जिनकी उपस्थिति में मृत्यु आक्रमण नहीं कर सकती अर्थात यह प्राण अपान रूपी देव वैद्य वहां होंगे जहाँ व्यक्ति प्राणायाम करेगा, वह रोगों से नहीं मरेगा। वह पूरी आयु को प्राप्त करके मृत्यु पर विजय प्राप्त करेगा ,अर्थात इच्छा मृत्यु को प्राप्त करेगा।
ब्राह्मण ग्रंथों और पुराणों में यह कथा आई है की वृद्घ एवं जीर्ण शीर्ण शरीर वाले च्यवन ऋषि को देव अश्विनी कुमारों(प्राण अपान) ने पुनः युवा बना दिया । यह प्राण अपान ही देवताओं के देव वैद्य कहे जाते हैं।
प्राण अपान ( अश्विनी कुमार)
प्राण और अपान को दिव्य शक्ति के द्वारा संतुलित करके हम पूरी तरह निरोग अवस्था को प्राप्त करते हैं और पूरी आयु जीते हैं ।शरीर के अंदर स्थित रसों को फिर से यविष्ठ बनाने की विधि प्राणायाम है अर्थात केवल श्वास प्रश्वास को लेते रहना ही प्राणायाम नहीं है ।प्राचीन ऋषियों ने प्राण विद्या के रहस्य को जानकर जिस योग विद्या का आविष्कार किया ,अनंत काल तक यही योग विद्या या प्राण विद्या आरोग्य ,अमृतत्व और दीर्घ आयुष्य पाने के लिए सर्वोत्कृष्ट मानी जाती रहेगी। प्राण प्रतिष्ठा ही अमृतत्व है । प्राण की उत्क्रांति ही मृत्यु है । प्राणायाम ही कुंडली जागरण कराकर ऊर्ध्वरेता होने व प्राण उत्थान या ब्रह्मचर्य की रक्षा का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।
पुराण ही सब देवों में ज्येष्ठ , श्रेष्ठ और वरिष्ठ हैं । प्राण की स्थिti रहने पर अन्य शब्द इस ब्रह्मपुरी में बस जाते हैं । प्राण ही स्वरूपी नौका की प्रतिष्ठा है। (श ४,४,१,१४) प्राण ही शरीर रूपी पुरी में बसने के कारण पुरुष कहा जाता है। प्राण ही वसु, रुद्र और आदित्य भेदों से प्रकट होता है।
(गोपथ. पू १.३९)
इस स्थूल देह को प्राण ही अर्चनीय या पूजा के योग्य बनाता है । प्राण के निकलते ही यह शरीर सड़ने लगता है। इसके प्रति तिरस्कार उत्पन्न हो जाता है।इसलिए इसको फेंक दिया जाता है। इस कारण इस प्राण को अर्क कहते हैं । (श ,104,1 ,23 देखो) प्राण ही अमृत है । (सग 9 ,1,2 ,32 देखो) इस मरण धर्मा शरीर को अमृतत्व से जोड़ने वाला प्राण ही है।
मैं प्राण रूपी प्रज्ञा हूँ ।मुझे आयु और अमृत जानकर उपासना करो। प्राण के रहने तक ही आयु रहती है। प्राण से ही इस लोक में अमृतत्व की प्राप्ति होती है। जो चेतन शक्ति इस मृत पिंड को उठाकर खड़ा कर देती है अर्थात जिसके कारण शक्ति संचार दृष्टिगोचर होता है , वह प्राण ही है।(देखो शांखायन आरण्यक 5,2) जो कुछ भी जगत में या शरीर में प्रज्ञान है , वह प्राण है । प्राण की सत्ता से ही मशक से ब्रह्म पर्यंत सब में चैतन्य ओतप्रोत है। (देखो कौषि तकि 3,3)
प्राण ही मित्र और प्राण ही वरुण है। मित्र वरुण संबंधी मंत्रों से प्राण अपान की महिमा या रहस्य बताया गया है। प्राण ही देव है। (देखो श 8,3,4,1) प्राण ही रश्मिया हैं । (देखो प्र ,उप,१,८ )प्राण ही संवत्सर है प्राण ही सत्य है। जिसमें सब कुछ बंधा हुआ है।(देखो श 6,7,1 ,20)
सप्तर्षि होने का रहस्य
प्राण का जागना ही महान जागरण है। प्रश्नोपनिषद में भगवान पिप्पलाद ने बताया है।
प्राण की अग्नि इस ब्राह्म नगरी रूप शरीर में सदा जागरूक रहती है। (देखो यजुर्वेद 34 . 55) जिस प्रकार ब्रह्मांड में हम सात ऋषि देखते हैं , उसी प्रकार से हमारे पिंड में भी सात ऋषि हैं।
सात ऋषि इस शरीर में प्रतिष्ठित है । प्रमाद रहित रहकर सात ऋषि इसकी रक्षा में सावधान रहते हैं। सात बहिर्मुखी प्राण धाराएं या इंद्रिया सोते समय सोने वाले के लोक में इकठ्ठी हो जाती हैं ,उस समय भी स्वप्न रहित रहने वाले दो देव प्राण और अपान जागने वाले आत्मा के साथ स्थित रहकर जागते रहते हैं।
(देखो बृहदारण्यक उपनिषद 2,2,4) सात ऋषि ही प्राण हैं । दो कान गौतम और भारद्वाज हैं ।दो आंखें विश्वामित्र जमदग्नि हैं ।दो नासिका रंध्र वशिष्ठ और कश्यप हैं। वाक अत्री हैं ।और यह सिर देव कोष है ,इसे ही स्वर्ग लोग भी कहते हैं। (देखो अथर्ववेद 10, 2,27)
यह प्रकृति की विचित्रता है कि मनुष्य शरीर के सप्त ऋषि इसी देवकोष या स्वर्ग नामक सिर में ही अवस्थित हैं । सिर के सात रंध्र सात ऋषियों की भांति चमकते हैं। शरीर में सिर ही ज्योति या चेतना का केंद्र है। वहां भी पांच ज्ञानेंद्रियां हैं ,ज्ञान ज्योति देवों का प्रकाश है । ज्ञान के विविध केंद्र ही विविध देव हैं। वह सब देव स्वर्ग नामक सिर में ही बसते हैं ।इसी तरह सप्त ऋषि संज्ञक प्राणों का स्थान भी मस्तिष्क ही है। बृहदारण्यक उपनिषद में विस्तार से समझाया गया है। (देखो बृहदारण्यक उपनिषद 2,2,3) इस प्रकार हम देखते हैं कि जैसे ऊपर द्युलोक में सात ऋषि प्रकाशित हैं उसी प्रकार इस मस्तिष्क रूपी द्युलोक में सप्त प्राण संज्ञक सप्त ऋषि विराजमान हैं। जैसे रथ की नाभि में अरे लगे रहते हैं उसी तरह रिक यजु , साम, छत्र ,और ब्रह्म संप्राण में प्रतिष्ठित है। (देखो प्रश्नोपनिषद २ प्राण की विशेष महिमा में महर्षि पिप्पलाद द्वारा दिया गया है)
मैं प्राण को प्रणाम करता हूं । इस प्राण के ही वश में है यह संपूर्ण ब्रह्मांड। (देखो अथर्ववेद 11,4,1)
जिस समय आश्रमों में ऋषि और ब्रह्मचारी प्राण विद्या के रहस्यों को जानते थे और प्राण के संयम से मानसिक समाधि पूर्ण स्वास्थ्य दीर्घ आयुष्य की साधना करते थे , उस पावन काल का यह प्राण संगीत है ।इसमें कहा है कि हे प्राण ! तुम विश्व धायस जननी के समान हमारी रक्षा करो ।हम तुम्हारे पुत्र हैं ।ऋषि लोग अपने अंत:वासियों को प्राण रूपी माता की गोद में सौंप कर निश्चिंत हो जाते थे ,और वे ब्रह्मचारी उस विश्व दोहस माता के अमृत जैसे सौम्य मधु या दूध का पान करके अमृतत्व और ब्रह्मवर्चस की प्राप्ति करते थे। सनातन योग विद्या , प्राण विद्या का ही दूसरा नाम है ।प्राण के रहस्यों का ज्ञान संप्राप्ति है। जो कुछ भी जगत में बाहर और भीतर कुछ भी प्राण से अतिरिक्त नहीं है।
शरीर में प्राण की महत्ता और महिमा के संबंध में और भी बहुत कुछ आर्ष साहित्य में उपलब्ध है , परंतु यह संक्षिप्त विवरण प्रसंग अनुकूल होने के कारण दिया गया है। एक रोचक पौराणिक कथा का यहां वर्णन करते हुए हम पाते हैं कि चंद्रमा के घटने व बढ़ने की पौराणिक कथा में इसी अध्यात्म तत्व का संकेत है। देवता अपने सोम का संवर्धन करते हैं ।असुर उसका पान कर जाते हैं। आयु के जिस भाग में सोम की वृद्धि हो वह शुक्ल पक्ष है । जिस भाग में नष्ट हो वह कृष्ण पक्ष है । इन्हीं दो भागों से मनुष्य आयु क्या, समस्त प्रकृति बनी है। कभी वृद्धि होती है। कभी कमी होती है । समस्त जीव, पशु, वनस्पति ,अमृत और मृत्यु के इस चक्कर में पड़े हुए हैं। वनस्पतियों की सोम वृद्धि और क्षय प्राकृतिक विधान के अनुकूल होते हैं , परंतु मनुष्य अनेक प्रकार से प्रकृति का विरोध करता है। यह सचेतन और संज्ञान प्राणी है। ऋषियों ने सोम को जीवन का मूल प्राण जानकर उसी की रक्षा वृद्धि के लिए अनेक प्रकार से उपदेश दिया है। सोम संवर्धन ही ब्रह्मचर्य की सिद्धि है। वस्तुतः आत्मा को जानने के लिए ब्रह्मचर्य साधन है।
वेद विद्या के अनुकूल किए गए तप और ब्रह्मचर्य से आयु के प्रथम आश्रम में वीर्य का संरक्षण करना इस मानवीय जीवन की एक बहुत बड़ी विजय और सिद्धि है ।वही एक मूल मंत्र है जिसके सम्यक सिद्ध करने से जीवन सफल हो सकता है ।यह अवसर भी कई बार प्राप्त नहीं होता। प्रथम आश्रम में भूल हो जाने से उसका प्रतिकार फिर नहीं हो सकता। आर्य शास्त्रों के बहुत बड़े क्षेत्र में प्रथम आश्रम के ब्रह्मचर्य को ही सफल करने की विधि विधान का वर्णन है। इसी बीज से समस्त शारीरिक , मानसिक , आध्यात्मिक , सामाजिक और राष्ट्रीय उन्नति और विकास के अंकुर प्रस्फुटित होते हैं।
देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत