सोमनाथ मंदिर के लिए बलिदान देने वाले वे बलिदानी : जिनके लिए न फूल चढ़े न दीप चले
सोमनाथ मंदिर की जीत को महमूद गजनवी के पक्ष में कुछ इस प्रकार दिखाया जाता है कि जैसे उसके जाते ही पाला उसी के पक्ष में हो गया था । वास्तव में ऐसा कुछ भी नहीं था । अपने उद्देश्य अर्थात लूट में वह अवश्य सफल हुआ था , परंतु भारतीयों से बहुत बड़े संघर्ष के पश्चात उसे यह सफलता मिली थी । भारतीयों का वह संघर्ष और उनके द्वारा दिए गए बलिदान की गाथा को जानबूझकर इतिहास से मिटा दिया गया है । उसकी सफलता के गीत गाने से पूर्व इतिहास की उस मौन किंतु रोमांचकारी साक्षी पर विचार करना चाहिए जो केवल भारतीयों के बलिदानों व देशभक्ति का परचम लहरा रही है । यद्यपि उस समय कुछ ‘जयचंद’ भी सामने आए , परंतु यहां प्रश्न ‘जयचंद’ के कुकृत्यों पर दुख व्यक्त करने का या अपने भीतर आई किसी अकर्मण्यता पर पश्चाताप करने का नहीं है , यहां प्रश्न बलिदान और देशभक्ति के भावों को श्रद्धांजलि देने का है । हमारे संपूर्ण इतिहास को ही भारत के बलिदानों का व लोगों की देशभक्ति का स्मारक बनाकर प्रस्तुत करने का है ।
इतिहास का प्रमाण है कि 12 अक्टूबर 1025 को महमूद सोमनाथ की लूट के लिए स्वदेश से निकला था और 1026 की जनवरी के दूसरे सप्ताह में सोमनाथ शहर में पहुंच गया था । उसका उद्देश्य पूरे देशवासियों ने समझ लिया था। अतः उसने जैसे ही भारत की सीमा में प्रवेश किया लोगों ने उसका प्रतिरोध और विरोध आरंभ कर दिया । जिस यात्रा को वह अधिकतम 15 दिन में पूर्ण कर सकता था उसे पूर्ण करने में उसे तीन माह लग गए । यह देरी भारतीयों के प्रतिरोध और विरोध के कारण ही हुई थी। प्रतिरोध और विरोध की यह भावना बता रही थी कि भारत की आत्मा कितनी सजग थी ? कितनी सावधान थी और उसका धर्म कितनी सजगता से देश की अस्मिता का रक्षक बना हुआ खड़ा था ?
मुल्तान हो चाहे अजमेर हो और चाहे अन्हिलवाड़ा पाटन ( गुजरात की राजधानी ) या फिर बीच के ग्रामीण क्षेत्र , सभी ने राष्ट्र वेदी पर अपनी ओर से कहीं सशस्त्र तो कहीं मौन आहुति देने का साज सजाया । अजमेर का राजा महमूद की सेना के डर से भाग गया तो प्रजा ने अपनी मौन आहुति के लिए स्वयं को आगे कर दिया । यज्ञ में मौन आहुति का बड़ा महत्व होता है। यज्ञ का ब्रह्मा हमें बताता है कि इस आहुति के समय अपने इष्ट देव प्रजापति ईश्वर का ध्यान अपने हृदय में करो । भारत में जब-जब राष्ट्र देव के लिए मौन आहुति देने का समय आया तो लोगों ने अपने इष्ट देव अर्थात राष्ट्र देव का ध्यान किया और अपनी आहुति दे दी । इतिहास का यह रोमांच केवल और केवल भारत में ही देखने को मिलता है।
सचमुच कितने सार्थक है यह पंक्ति :-” कुछ याद उन्हें भी कर लो जो लौट के घर ना आए – – – ।”
1026 की जनवरी के दूसरे सप्ताह के बृहस्पतिवार को महमूद का सोमनाथ शहर में प्रवेश हुआ। उसके पश्चात मंदिर के भक्तों ने बिना किसी राजा या नायक की प्रतीक्षा किए 3 दिन और 3 रात तक महमूद की सेना का सफलतापूर्वक सामना किया और उसके विशाल सैन्य दल को मंदिर में भीतर नहीं घुसने दिया। यदि उन मुट्ठी भर लोगों को किसी राजा की सेना की सहायता मिल गई होती तो परिणाम दूसरा ही आता। किंतु धन्य है मां भारती का वैभव और उसकी कोख , क्षेत्रीय जनता ने फिर किसी नेता या नायक की प्रतीक्षा किए अपनी आत्मोत्सर्ग के लिए आतुर सेना का निर्माण किया और चल दी मंदिर की सुरक्षा के लिए ।
रविवार के दिन महमूद को जब इस हिंदू सेना का पता चला कि पीछे से कोई और सेना भी आ रही है तो उसके होश उड़ गए थे । उसने आनन-फानन में निर्णय लिया और अपने कुछ सैनिकों को मंदिर पर जारी युद्ध के लिए छोड़ बाहरी सेना के प्रतिरोध के लिए वह अपनी सेना के बड़े भाग के साथ शहर के बाहर आ गया । दोनों सेनाओं में जमकर संघर्ष हुआ । महमूद के पांव उखाड़ दिए थे बिना नेता की भारतीय राष्ट्रीय सेना ने ।
तब उसने ‘करो या मरो’ का आवाहन अपने सैनिकों से किया । राष्ट्रीय सेना ने अपना संपूर्ण बलिदान दिया। महमूद की जीत हुई। लेकिन हमारे 50,000 लोगों ने अपना अप्रतिम बलिदान दिया । बहुत दुर्भाग्य की बात है कि इन बलिदानों का स्मारक सोमनाथ के मंदिर के जीर्णोद्धार के बाद कहीं नहीं बना ।आखिर क्यों ? – बलिदानों का इतना सस्ता मोल भी शायद भारत में ही मिलता है ।
हमने क्या किया ? – हमने बिना नेता के युद्ध करने वाली अपनी जनता के अद्भुत शौर्य के साथ । हमने इसे शासकों के चाटुकार इतिहासकारों की दृष्टि से देखा और उनके शौर्य पर मात्र ‘कुछ उपद्रवकारी’ होने का ठप्पा लगाकर आगे बढ़ गए । हमने स्मारकों को न तो पूछा कि बताओ तुम्हारी कहानी क्या है और न् उन्हें पूजा ? हमने उनको पूजा जो अपूजनीय थे , जो नालायक थे , जिनके भीतर देशभक्ति का भाव नहीं था और जो देश के साथ गद्दारी कर रहे थे या अपनी कमजोरी दिखाकर युद्ध के मैदान से भाग गए थे । यह कलम पूछती है उन लोगों के बारे में जिन्होंने अपनी जान देकर अपने देश की रक्षा की थी कि उनके लिए हमने क्या किया ? शौर्य को भी हमने उपेक्षित कर दिया । इससे अधिक कृतघ्नता और क्या हो सकती है ?
संग्राम को हमने इतना उपेक्षित किया कि आज का इतिहासकार सोमनाथ के मंदिर की लूट को और महमूद की उस पर विजय को बस चुटकियों का खेल बता देता है। जबकि ढाई माह का संघर्ष था वह और उसमें भी अंतिम 4 दिन तो अत्यंत रोमांचकारी थे। हमने अपने ही रोमांच के स्मारक पर न तो फूल चढ़ाए और नहीं दीप जलाए । यह राष्ट्र के साथ छल नहीं तो और क्या है ?
वैसे वास्तव में भारत के इतिहास को स्वतंत्रता और परतंत्रता के दिए और अंधकार के संघर्ष का काल कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी ।
(भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास , भाग — 1, ‘वे थमे नहीं हम थके नहीं ‘ नामक लेखक की पुस्तक से )
- – डॉक्टर राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत