फांसी पर सियासत गलत
देश की संप्रभुता की प्रतीक संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरू को फांसी की सजा दे दी गयी है। देश की एकता और अखण्डता को चूर चूर करने का संकल्प लेने वाले आतंकी का अंतिम मुकाम फांसी ही था परंतु फिर भी हमारी न्यायपालिका ने दोषी को साक्ष्य और सुनवाई का पूर्ण अवसर प्रदान कर न्याय प्रणाली में भारत की पारदर्शिता पूर्ण प्रशंसनीय नीति का अनुसरण किया, जिसे उचित ही कहा जा सकता है। इससे न्यायपालिका में हमारे देश की जनता का विश्वास और अधिक बढ़ा है।
देश के राजनीतिज्ञों की जब जब कोई अपराध होता है तो सामान्यत: एक भाषा हम सुनने को विवश होते हैं, कि कानून अपना काम करेगा। इस बात को सारा देश जानता है कि कानून अपना काम करता है, परंतु वह तभी करता है जब उसे काम करने दिया जाता है। इस देश का दुर्भाग्य ये है कि यहां जब बाबरी मस्जिद गिराई जाती है तो उसमें ये नही कहा जाता कि कानून अपना काम करेगा, बल्कि कानून के काम करने से पहले उसे राष्ट्रीय अपराध की संज्ञा दी जाती है। इस पर सर्वोच्च न्यायालय सरकार को मर्यादित और संतुलित भाषा का पाठ पढ़ाता है और कहता है कि यह कैसे कहा जा रहा है कि राम जन्मभूमि पर खड़ी बाबरी मस्जिद का विध्वंस किया जाना राष्ट्रीय अपराध था? बात भी सही है कि जो बात अभी तय नही हुई उसे माननीय सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आने से पहले ही राष्ट्रीय अपराध कैसे कहा जाए?
तस्वीर का दूसरा पक्ष भी है। जब अफजल गुरू पर देश के कानून ने अपना काम करते हुए अपना फैसला सुना दिया तो देश के एक मंत्री कह रहे थे कि उसकी सजा आजीवन कारावास में बदल दी जाए। यह दोहरी मानसिकता और दोहरे मानदण्डों की राजनीति देश के लिए सबसे दुखद है। कानून अपना काम कर रहा है तो कानून के काम करने से पहले ही अभियुक्त को अपराधी कहा जा रहा है और कानून अभियुक्त को अपराधी घोषित कर चुका तो उसे क्षमा करने की पैरोकारी की जा रही है। अच्छी बात क्या हो सकती है? हमारी नजर में सबसे अच्छी बात यही होगी कि कानून को अपना काम करने दिया जाए। उस पर कोई प्रतिक्रिया न तो पहले की जाए और न ही बाद में। न्यायपालिका स्वतंत्र है, और उसकी स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाना या उसे बार-बार टोकना स्वस्थ लोकतंत्र के हित में नही है। न्यायालय का निर्णय आया और देश के सर्वोच्च लोकतांत्रिक संस्थान संसद पर हमला करने की योजना बनाने वाले आतंकी को एक प्रक्रिया के अंतर्गत फांसी तक पहुंचा दिया गया, तो इस पर कांग्रेस, भाजपा या किसी भी पार्टी की तरफ से जो हल्की टिप्पणियां आईं हैं उन्हें ठीक नही कहा जा सकता। लोकतंत्र में वोटों की राजनीति ही महत्वपूर्ण नही होती बल्कि राष्ट्रहित के अहम बिंदुओं पर एकमत होकर के राजनीति की जानी स्वस्थ लोकतंत्र की सबसे बड़ी निशानी है। इसलिए अब जबकि अफजल को फांसी दे दी गयी है तो इस पर कोई राजनीति नही होनी चाहिए, कानून ने अपना काम किया है और अंतिम परिणति पर एक आतंकी पहुंच गया है। इस पर कैसी राजनीति, कैसी टिप्पणियां?
देश के मुस्लिमों ने कहीं से कोई प्रतिक्रिया नही दिखाई है, इसका अभिप्राय समझा जा सकता है, कि अधिकांश मुस्लिम देश की मुख्यधारा से अलग चलना पसंद नही करते। परंतु कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने जिस प्रकार अफजल गुरू की फांसी को कश्मीर के युवाओं को प्रतिक्रिया करने के लिए प्रेरित करने वाली घटना बताया है, वह इस सीमावर्ती राज्य के भारतीय भूभाग के इस युवा मुख्यमंत्री के इरादों को साफ करने वाला बयान है। जब सब कुछ शांत है तब देश के खिलाफ आग उगलने वाले इस प्रकार का बयान देना बेतुकी बात है। सरकार ने जो कुछ किया है वह शांति व्यवस्था बनाये रखने के लिए या उसमें किसी भी तरीके से व्यवधान डालने वालों को सावधानी और समझदारी से नियंत्रित रखने के दृष्टिकोण से किया गया है, इस पर उमर अब्दुल्ला को बोलने का कोई हक नही रह जाता है, क्योंकि राष्ट्रहित सर्वोपरि है और शासन के लिए सबसे पुनीत कार्य भी है। इसलिए उमर अब्दुल्ला को अपने बयान की बजाए अपने गिरेबान में झांकने का प्रयास करना चाहिए, वह देखें कि उनके दिल में क्या है, और देश उसे उसी रूप में समझ रहा है जिस रूप में वह कह रहे हैं। पूरा देश नेताओं को और उनके बयानों को अच्छी प्रकार समझ लेता है और समय आने पर उनका हिसाब किताब भी करता है, लेकिन हमारे नेता नही समझते कि तुम्हारे बोलने से क्या प्रभाव जनता पर पड़ रहा है। आतंकी अपने आतंक की भेंट चढ़ा है उसे कानून ने या व्यवस्था ने जबरन उस स्थिति तक नही पहुंचाया। याद रखें अन्याय तभी होता है जब किसी के साथ जबरदस्ती की जाती है। परंतु जब किसी के गलत कार्य का परिणाम उसे सहज रूप में मिलता है, तो वह कष्टकर होकर भी न्यायपूर्ण भी कहा जाता है। न्याय में कष्ट दुष्ट को होता है व्यवस्था को नही, जबकि अन्याय में कष्ट व्यवस्था भी अनुभव करती है। इस बात को समझा जाए।