भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परम्परा
सतीश तलवाड़
भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य की परम्परा का विशेष महत्व है। जितनी भौतिक विद्याएँ है उतने ही गुरु हो सकते हैं। भौतिक वस्तुआकृ के विषय में ज्ञान प्रदाता को शिक्षा-गुरु भी कहा जाता है जो शिष्य को आत्मानुभूति की ओर नहए ले जा सकता। सत्य की अनुभूति के लिये दीक्षा-गुरु की आवश्यकता होती है। सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, निराकार ब्रह्म का, जिज्ञासा मात्र प्रकट करने पर तत्काल ही ज्ञान प्रदान करके अनुभूति कराने वाले को दिक्षा गुरु व सद्गुरु कहते हैं। सद्गुरु ही सत्य की अनुभूति करा सकता है। ”पूरे गुरु का सुन उपदेश, पारब्रह्म निकट कर पेख – आदिग्रन्थ।
पूर्ण शिष्य का सद्गुरु के प्रति दृढ़ विश्वास होता है। वह जानता है कि उसका गुरु हर समय उसकी सहायता करेगा। गुरु की उपस्थिति में शिष्य उसी तरह निश्चिंत रहता है जैसे माता-पिता की उपस्थिति में बालक। एक बार एक समुद्री जहाज समुद्र में डूबने लगा। सभी लोग शीघ्रता से बचाने वाली नावों में उतरने लगे। अचानक कैप्टेन की दृष्टि एक तीन चार वर्ष की बालिका पर पड़ी जो अपनी गुडिय़ा के साथ निश्चिंत खेल रही थी। कैप्टेन ने बालिका से पूछा-जहाज डूब रहा है क्या तुम्हें डर नहए लग रहा? बालिका ने सहज भाव से उत्तर दिया मेरे माता-पिता मेरे साथ हैं। शिष्य का गुरु के प्रति ऐसा ही विश्वास होता है।
गुरु शब्द में ‘गु’ का अर्थ अन्धकार है और ‘रु’ का प्रकाश। जो अज्ञानता रूपी अन्धकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाये उसे गुरु कहते हैं। ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त मानव अन्धकार से प्रकाश की ओर, असत्य से सत्य की ओर तथा दानवता से मानवता की ओर बढ़ता है। मन से वैर, ईष्र्या, घृणा, क्रोध और अभिमान उसी प्रकार समाप्त हो जाते हैं जिस प्रकार सूर्य के उदय होने पर अंधकार लुप्त हो जाता है। सभी महान आत्माओं ने सद्गुरु से ही ज्ञान प्राप्त किया। मर्यादा परुषोत्तम राम के गुरु वशिष्ठ, भगवान श्रीकृष्ण के गुरु सन्दीपन, राजा जनक के अष्टावक्र, कबीर के गुरु स्वामी रामानन्द हुए हैं। इतिहास में ऐसे उदाहरण कम ही मिलते हैं जहां गुरु के बिना किसी को ज्ञान की प्राप्ति हुई हो।
सद्गुरु ब्रह्मज्ञान प्रदान करता है। वह भक्ति के मार्ग पर शिष्य का मार्गदर्शन करता है। सद्गुरु की ऐसी कृपा के कारण ही श्रदालुभक्त सद्गुरु की तुलना ईश्वर से करते है, उसे केवल ईश्वर ही नहीं मानते बल्कि ईश्वर से भी अधिक मानते हैं। कहा जाता है कि जब संसार में ईष्र्या, घृणा, हिंसा, अत्याचार, पाप तथा अधर्म अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाते हैं तब स्वयं ईश्वर मानव शरीर धारण करके सद्गुरु के रूप में प्रकट होते हैं। ”यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिनभवति भारत: अभ्युत्थानंधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्”। (गीता 4/7)। क्या सद्गुरु ईश्वर है? इसका उत्तर प्राप्त करने के लिए हमें ईश्वर की परिभाषा को जानना पड़ेगा। ईश्वर वह सत्य है जो समय और स्थान के साथ परिवर्तित नहीं होता; सदा एकरस रहता है; अनादि है; अनन्त है। सृष्टि के निर्माण से पहले भी था, सृष्टि के साथ भी है और सृष्टि की समाप्ति पर भी रहेगा। इसका न आरम्भ है और न ही अंत। यह जड़ भी है और चेतन भी। यह इतना सूक्ष्म कि कण कण में है। यह सब प्राणियों का जन्मदाता, पालनकत्र्ता तथा संहारकत्र्ता है। सम्पूर्ण सृष्टि का आधार है परन्तु स्वयं निराधार है। इसको शस्त्र काट नहीं सकता, अग्नि जला नहीं सकती और पानी भिगो नहीं सकता। ”नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: न चैनं केल्दियन्त्यापो न शोषयति मारूत:”। सद्गुरु को हरिजन अर्थात ईश्वर का अपना जन भी कहा गया है। मानव को हरिजन से ही प्रेम करने के लिए कहा गया है। ”हरि से जन तू हेत कर करि हरिजन से स्यों हेत, माल मुलक हरि देत है हरिजन हरि ही देत” अर्थात हे मानव तू हरि की अपेक्षा सद्गुरु से प्रेम कर क्योंकि हरि तो केवल धन-दौलत ही देते हैं जबकि सद्गुरु तो हरि ही दे देता है।
निराकार प्रभु एक शक्ति है जो प्रत्येक वस्तु को कर्म करने योग्य बनाती है। अध्यापक में विद्यमान यह शक्ति अध्यापन कार्य करती है, मजदूर में यह मज़दूरी करती है। जैसे शरीर में यह शक्ति होती है वैसा ही यह कार्य करती है। जब यह शक्ति सद्गुरु के शरीर में विद्यमान होती है तो यह निराकार ईश्वर का कार्य यानी मानव कल्याण करती है। इसलिये सद्गुरु को ईश्वर कहा जाता है।
जो भक्त सद्गुरु को ईश्वर कहते हैं वे वास्तव में आस्था, विश्वास अथवा प्रेमवश करते हैं, उसी तरह जैसे पत्नि के लिये पति परमेश्वर होता है। यद्यपि पत्नी भली भांति जानती है कि उसका पति एक मानव है जबकि ईश्वर निरंकार। सद्गुरु तथा ईश्वर की विभिन्नता के कारण ही कबीर जी ने दोनों की तुलना करते हुए सद्गुरु को ईश्वर से अधिक महत्वपूर्ण मानते हुये कहा- ”गुरु गोविन्द दौऊ खड़े काके लागूँ पायॅं, बलिहारी गुरु आपने जिन गोबिन्द दियो मिलायॅं।
ईश्वर और सद्गुरु में कई गुण समान होते हुये भी सद्गुरु में अधिक गुण हैं जैसे ईश्वर न्यायकारी होता है जबकि सद्गुरु क्षमाशील होता है। ईश्वर का शरीर नहीं होता जबकि सद्गुरु सशरीर होता है परन्तु ईश्वर की तरह सद्गुरु भी विशाल, दयावान, कृपानिधान, शान्त, एक रस, दु:ख-सुख से परे, गुणों से ऊपर होता है परन्तु फिर भी वह ईश्वर की तरह अनादि, अनन्त, निराकार, नहीं होता, उत्पति नही कर सकता।
सद्गुरु ज्ञान भी नहीं होता बल्कि ज्ञान प्रदाता होता है।
जिस प्रकार वस्तु और वस्तु को देने वाला दोनों भिन्न होते हैं उसी तरह सदगुरु और ज्ञान दोनों भिन्न हैं। अत: सद्गुरु और ईश्वर दोनों विभिन्न व्यक्तित्व हैं, सत्ता हैं, अस्तित्व हैं, निराकार भी है और साकार भी। ईश्वर का साकार रूप सद्गुरू है और निराकार स्वरूप परब्रह्म। ब्रह्मा, विष्णु और महेश साकार हैं और परब्रह्म निराकार।
इसी कारण ब्रह्मज्ञानी भक्त कहते हैं – ”गुरुब्र्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर: गुरु साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवै नम:”।