आओ समझें: हिन्दी अक्षरों का वैज्ञानिक स्वरूप-भाग 2

Hindiव्यंजन अक्षर

अभी तक हमने हिंदी वर्णमाला के स्वर कहे जाने वाले अक्षरों के विषय में कुछ समझने का प्रयास किया है। अब हम व्यंजनों के विषय में चर्चा करते हैं। जिन वर्णों को बोलते समय स्वरों की सहायता लेनी पड़े उन्हें व्यंजन कहते हैं। इनकी संख्या 33 है। ये स्वरों की सहायता से बोले जाते हैं इसलिए उन्हें और भी चटकारेदार (व्यंजक) बना देते हैं। हमारी भाषा व्यंजनों के बिना कोई आकार नही ले सकती थी। यदि व्यंजन ना होते और केवल स्वर ही होते तो हम अं….आ…..ई….आदि की गूंगों की सी भाषा बोलते। अत: व्यंजनों की खोज करना और उन्हें पहचानना हमारे भाषा वैज्ञानिकों की बहुत बड़ी देन है हमारे लिए।

संस्कृत को देवभाषा कहा जाता है क्योंकि यह ईश्वरीय वाणी है, जो कि सृष्टि प्रारंभ में अग्नि, वायु, आदित्य और अंगीरा नामक ऋषियों के अंत:करण में ईश्वर की ओर से वेदवाणी के माध्यम से प्रकट हुई। उस समय कोई उस भाषा को पढ़ाने या लिखने वाला नही था ईश्वर स्वयं उन ऋषियों के गुरू थे और वही अपनी सविता शक्ति अर्थात प्रेरक शक्ति के द्वारा ज्ञान को आदि ऋषियों के अंत:करण में डाल रहे थे, उन ऋषियों से वह ज्ञान धारा आगे बढ़ी और अगली पीढिय़ों में वह ज्ञान मौखिक रूप से श्रवण के माध्यम से आगे बढ़ा। सुन सुनकर वेदज्ञान को पीढिय़ां आगे बढ़ाने लगीं। इसीलिए वेद का एक नाम श्रुति भी है। श्रुति के माध्यम से ऋषि संतानों में ज्ञान का प्रचार प्रसार होता रहा। परंतु  कालांतर में जनसंख्या के बढऩे पर आचार्यों को श्रुति के माध्यम से ज्ञान का प्रचार प्रसार करने में कठिनाई अनुभव होने लगी। तब लाखों करोड़ों वर्ष के पश्चात लिपि की खोज की गयी। सृष्टि के प्रारंभ से इतने वर्ष पश्चात लिपि की खोज मानवीय खोज है। मानव की भाषा देववाणी संस्कृत ईश्वर प्रदत्त है, लेकिन उसकी लिपि मानवकृत है। मानव ने लिपि खोजने में सचमुच वैज्ञानिक बुद्घि का प्रयोग किया और बड़ी समझदारी और सावधानी से एक एक अक्षर का बोध किया। कौन सा अक्षर किस प्रकार बोला जाता है, तालु आदि के किन किन केन्द्रों के सहयोग और संपर्क से अक्षरों का निर्माण होता है या वे एक आकार लेते हैं-ये बात स्पष्ट करनी बड़ी कठिन है। सचमुच बुद्घि का खेल है। यह हमारे लिए गौरव की बात है कि हम उन ऋषि पूर्वजों की संतानें हैं जिन्होंने करोड़ों वर्ष पूर्व बुद्घि के वो खेल खेले कि जिन्हें समझकर आधुनिक विज्ञान भी आश्चर्य में है। आज के भौतिक विज्ञान  को हमारे ऋषि पूर्वजों के आध्यात्मिक और ब्रह्मज्ञान को समझने में अभी भी कठिनाई आ रही है, और हो सकता है कि उसे उस ज्ञान को समझने में अभी युगों लग जायें।

अब अपने विषय पर आते हैं। व्यंजनों में पहला अक्षर ‘क’ है। अकार के मूल स्तंभ पर एक आड़ी रेखा डाली जाए और उसे दायीं ओर घुण्डी में शून्य के आकार का बना दिया जाए और बांयी ओर उसकी घुण्डी को नीचे की ओर खुला छोड़ दिया जाए तो इस अक्षर की आकृति बन जाती है।

क अक्षर अ के मूल स्तंभ में एक गांठ सी बनाकर फंदा की आकृति से आरंभ होता है और अपना पूर्ण आकार प्राप्त करता है। इसलिए पंडित रघुनंदन शर्मा इस अक्षर को बांधना, बलवान, बड़ा, प्रभावशाली और सुख जैसे अर्थों का वाचक बताते हैं। कुछ अन्य विद्वानों ने इस अक्षर को अग्नि, वायु यम, ब्रह्मा, विष्णु, कामदेव, सूर्य, आत्मा, राजकुमार पक्षियों का राजा, मन, मोर, समय, शरीर, बादल, शब्द, बालक इत्यादि का वाचक वर्ण भी स्वीकार किया है।

वैसे यदि देखा जाए तो अग्नि (अग्रणी-आगे रहने वाला- अग्नि सदा ऊपर की ओर ही अपनी लपटों को रखता है और वह झाड़ झंखाड़ को जलाकर नई सृष्टि कराने में सहायक होता है) वायु (प्राणवायु से बिना संसार की गति ही समाप्त हो जाएगी) यम (मृत्यु का देवता है ये, जब शरीर जर्जर हो जाए, इंद्रियां साथ छोड़ जायें तो उस समय मृत्यु भी जीवन का अर्थात नये सृजन का पर्याय बन जाती है) ब्रह्मा और विष्णु (ईश्वर की जगदुत्पादक और जगतपालक शक्तियां) कामदेव (सृष्टि की उत्पादक शक्ति) सूर्य और आत्मा, राजा या राजकुमार ये सभी संसार को सृष्टि नियमों में बांधकर चलाने वाली शक्तियां हैं, इसलिए ये सभी बलवान हैं, प्रभावशाली हैं और सुख प्रदाता है। मन, मोर, समय, शरीर इत्यादि भी हमें सुख देते हैं। इसलिए ककार से प्रारंभ होने वाले अधिकांश शब्द इन्हीं अर्थों के वाचक हैं।

बात कष्ट और क्लेश जैसे शब्दों की आती है। इनमें लगेगा कि ये शब्द तो सुख नही देते। बात भी सही है। जिसमें कष्ट ही कष्ट हो, क्लेश ही क्लेश हो, उसमें सुख कहां है? कहीं भी तो नही। परंतु अभी हमें इस ककार वर्ण की आकृति पर और भी विचार करना है। इसमें अकार को एक ओर की घुण्डी ने बांधा है तो दूसरी ओर की घुण्डी ने खोला है। अकार मर्यादा स्तंभ के रूप में खड़ा है। इसका अभिप्राय है कि यह वर्ण संसार के द्वंद्वों के मध्य खड़़े रहना चाहता है, उसी में सुख है। इसलिए कष्ट और क्लेश के लिए इसने तप-द्वंद्वों को सहन करने की शक्ति और उनका सामना होने पर उनसे पार निकलने (दूसरी ओर खुल जाने की अवस्था अर्थात उन पर पार पा लेने की अवस्था) की विवेकपूर्ण नीति ही सुखदायी होती है। यह चिंतन हमें बांधता है जीवन की सच्चाई से और अंत में सुख देता है।

अब आप देखें काम, कामना, काया (शरीर) केशव (विष्णु) काल (समय) कपोत, कोकिला (पक्षी) इत्यादि उपरोक्त अर्थों को प्रकट करने वाला शब्द हैं। लेकिन कहां, कब, कैसे, क्यों, क्या? इत्यादि बांधने वाले (अब दूसरे अर्थ में) रोकने वाले शब्द है। शब्द आया लालकिला, आप बोलने लगे। परंतु दूसरे ने रोक दिया-कहां है-कहकर। इस प्रकार ऐसे बांधने वाले सारे प्रश्नवाचक शब्दों को भी ककार ही बनाता है। कोमल सुकुमार, बालक, कुण्ठा-बाधित हो जाना, (इसी से कुट्टा शब्द रूढ़ हुआ है,=कुट्टी कर देना अर्थात-बोलचाल निषिद्घ कर देना।) कुतूहल-सुहावना, सुखदायी, कारि-शिल्पकार=इसी से शब्द कारीगर बना है, कारा-बंदीगृह निषिद्घ करना, बांधना। कापुरूष-नीच, नराधक व्यक्ति को कहा गया है। इसका अभिप्राय है कि आपको उसकी ओर बढऩे से रोक दिया गया है। इसीलिए यह ककार ‘कु’ के रूप में कई शब्दों से पहले लगकर उनकी अवस्था को परिवर्तित कर देता है और हमें उधर बढऩे से या उन स्थिति परिस्थितियों में किसी प्रकार से भी लिप्त होने से रोकता है। जैसे कुमार्ग, कुव्यवस्था, कुपोषण, कुरीति, कुवचन, कुकृत्य, कुकर्म इत्यादि। परंतु जहां शब्द कुमार के सामान्य अनुक्रम में सहज ही प्रारंभ होता है वहां यह सुख के रूप में आता है, जैसे कुसुम कुलीन, कुशल, कुरंग इत्यादि।

हमारा मानना है कि विश्व की एकमात्र भाषा संस्कृत है। शेष अन्य भाषाएं भाषा न होकर केवल बोलियां हैं। इन बोलियों को किन्हीं संप्रदायों ने अपनाया और अपनी भाषा के रूप में लोगों पर और अपने मानने वालों पर उन्हें बलात थोपा, जिससे कालांतर में ये बोलियां भाषा का रूप ले गयीं और हमें उसी प्रकार छलने लगीं जिस प्रकार धर्म के स्थान पर संप्रदाय (मजहब) ने हमें छला और ठगा है। इन सारी साम्प्रदायिक बोलियों या कथित भाषाओं में संस्कृत के मूल शब्द विकृत होकर हमें मिलते हैं। उनके रूप अलग हो सकते हैं, उन्हें लिखने की लिपि अलग हो सकती है, लेकिन मूल शब्द कहीं न कहीं संस्कृत से लिया हुआ सिद्घ हो जाता है, इस पर हम आगे चर्चा करेंगे।

‘ख’

हिंदी अक्षर खकार आकाश, ज्ञानेन्द्रिय, स्वर्ग, एक नगर, खेत, शून्य, एक बिंदु, अनुस्वार, गहवर, शरीर के नौ द्वार, घाव, प्रसन्नता, आनंद, अभ्रक, कर्म, ज्ञान, ब्रह्मा आदि के अर्थों का वाचक है। ककार में हकार (क में ह) के मेल से ये शब्द भारी होकर ‘ख’ बनता है। इसका अभिप्राय है कि इसमें क के साथ ह छिपा है। अंग्रेजी में इसीलिए ख को Kha से बनाया जाता है। इंग्लिश ने भी हिंदी को समझ कर ही इसे Kha के रूप में लिखा है। इसका अर्थ भी यही हुआ कि ककार, हकार और अकार की संधि से खकार बना है। पंडित रघुनंदन शर्मा ने इसका अर्थ आकाश, पोल, खुला, छिद्र जैसे शब्दों से किया है। बंधन का विपरीतार्थक शब्द खुलना है। अत: यदि ककार बंधन का पर्यायवाची था तो खकार उसके सर्वथा विपरीत खुलने का प्रतीक है। भाषाविदों का मानना है कि ककार के विपरीतार्थक अर्थ देने में मूल कारण खकार में हकार का लगा होना है। आकाश से उत्तम बंधन सहित कोई भी वस्तु नही है।

जब हम प्राणायाम के मंत्र ओउम् भू:पुनातु शिरसि…से लेकर ओउम् खं ब्रहम तक का उच्चारण करते हैं तो इसमें शरीर के विभिन्न अंगों की पवित्रता की कामना की भावना रखते हुए अंत में ईश्वर से खं ब्रहम पुनातु सर्वत्र: कहकर अपने चारों ओर, सर्वत्र पवित्रता की उपस्थिति की प्रार्थना करते हैं। यहां खं आकाश के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। सुख और दुख का अर्थ करते हुए हमें बताया जाता है कि सु-अच्छा, ख-इंद्रियां इसी प्रकार दु:-बुरा और ख-इंद्रियां अर्थात किसी वस्तु के प्राप्त करने या किसी भी स्थिति परिस्थिति के आने पर हमारी इंद्रियों को जो अच्छा लगे वह सुख और जो बुरा लगे वह दुख है। विषय भोग हमारी इंद्रियों को सुख प्रदान करते हैं इसलिए ये उन्हीं में डूबे रहना चाहती हैं। हमारे भाषाविद ऋषियों ने इन अर्थों को प्रकट करने वाला अक्षर खकार के रूप में निरूपित किया। शब्द खण्डन लीजिए। इसका अभिप्राय तोडऩा है, जिसका अर्थ खोलना ही है। खदान, खनन, खनक, खट (ऊपर को खुला हुआ अंधा कुंआ) खडग् (आघात करके घाव खोल देने वाली तलवार ) खदिका= खील (भुनने के बाद जब धान का मुंह खुल जाता है-बंधन मुक्त हो जाता है, तब उसे खील कहते हैं) ख्याति=(जब व्यक्ति सीमाओं को लांघकर-खोलकर प्रसिद्घि पाने लगे) खेल-एक सीमा में न रहकर एक स्थान पर बैठे न रहकर, हिलना, डुलना, इधर उधर, आना-जाना, भागना, दौडऩा। खाट-गले की सफाई (खोलने की क्रिया) के समय सुनाई देने वाला शब्द। खल्लिका-कढ़ाई खजिन, खाता आदि शब्द खकार के उपरोक्त अर्थों को ही प्रकट करते हैं।

(ग)

गकार भी हिंदी वर्णमाला का बड़ा ही महत्वपूर्ण वर्ण है। इसकी आकृति अकार के मूल स्तंभ के साथ आगे की ओर मनुष्य के उठे हुए पैर का सा स्वरूप बनाकर पूर्ण होती है। ऐसे समझिए जैसे दोनों पैर काटकर एक साथ रखे हों और अगले वाला आगे उठाकर रखा जा रहा हो। गति को परिभाषित करने की (व्यंजनों में) इससे सुंदर कोई स्थिति या आकृति नही हो सकती। हम ग से गधा नही बनें बल्कि गतिशील बनें-यह चिंतन था हमारे महान ऋषियों का। आकाश को गगन भी कहते हैं। यहां दो बार गकार आ रहा है। इसका अभिप्राय है कि आकाश की ऊंचाई को मापने के लिए निरंतर गतिशील रहिए। वहां गति के बाद भी गति है। एक ग्रह को आपने खोज भी लिया तो भी आकाश का अंत नही हो जाता है-फिर गति करो। गंगा भी गंगा इसीलिए है कि उसकी गति में भी गति है अर्थात नैरन्तर्य है।

अत: गकार का अर्थ भाषाविदों ने जो जाता है, जाने वाला, गतिमान होने वाला, शेष रहने वाला, गंधर्व, गणेश (इसीलिए कभी हमारे यहां विद्यालयों में ‘ग’ से गणेश पढ़ाया जाता था) गुरू शब्द का संक्षिप्त रूप, इत्यादि रूपों में किया है। अंकों में शून्य से लेकर 8 तक निरंतर गति है, नौ के अंक पर गतिपूर्ण हो जाती है। इसलिए आठ के अंक को गज कहते हैं। जबकि गज लंबाई की माप करने को भी कहते हैं और गज हाथी को भी कहते हैं, जो कि कभी सर्वश्रेष्ठ सवारी (गति का साधन) था। पुराने भवनों के द्वार पर इसीलिए अधिकांशत: हमें हाथी की मूर्ति बनी मिलती हैं। जो कि गकार की विशेष अवस्था की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करती है।

गिनती, गणक, गण-गिनना, गणित, गत, गंत्री-बैलगाड़ी, गद्य-बोले जाने या उच्चारण (निरंतर बोलना) किये जाने योग्य, गदा (निरंतर घुमाई जाती है) गमनीय, गंभीर, गहरी आवाज, गर्जन, गरूड़, गर्दभ:=गधा (गर्द-शब्द करना, दहाडऩा के अर्थ में) (गरिष्ठ-गुरू शब्द की उत्तम अवस्था) गर्गर-पानी की भंवर, गर्भ (जहां बच्चे का निरंतर विकास होता है) गर्दन-ग्रीवा (गतिशील रहने के कारण ही घूमती है) गायत्री-गायन करने से हमारा त्राण करती है, आगे बढ़ाती है। गृहस्थ-चौबीसों घंटे गतिशील बनाये रखने वाला एक आश्रम, गुण, कर्म, स्वभाव इसमें नैरन्तर्य है। इत्यादि गति अर्थक शब्द हैं। जबकि गुहा, गुप्त, गुफा, गुह, गुह्य, गूढ़, गुह्यक (इसी से गुल्लक शब्द बना है) कोष के संरक्षक को कहते हैं इत्यादि शब्द शेष रहने वाले के अर्थों का प्रतिपादन करते हैं। ‘गो’ गाय भी गति अर्थक है। क्योंकि उससे हमारी भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति होती है। इसलिए गाय कभी भारत की आर्थिक समृद्घि और संपूर्ण अर्थव्यवस्था का आधार स्तंभ थी। इस प्रकार गकार से गतिशीलता प्रकट होती है, यह सिद्घ हो जाता है। उपरोक्त अर्थों से अलग गकार से कोई अन्य अर्थ निष्पन्न नही होता है। इस प्रकार गकार की आकृति कितनी सार्थक और वैज्ञानिक है। संसार की अन्य भाषाओं के अक्षरों में गकार को इस प्रकार की आकृति नही मिली, और यह इसीलिए नही मिल पाई कि अन्य भाषाओं का कोई वैज्ञानिक आधार नही है, उनके पीछे कोई वैज्ञानिक चिंतन नही है।

‘घ’

इस वर्ण को देखने से ही स्पष्ट हो जाता है कि जैसे अकार के मूल स्तंभ पर कोई बाहर से प्रहार कर रहा है। इसलिए इसका अर्थ प्रहार करने वाला, नाश करने वाला, मारने वाला इत्यादि किया गया है। जैसे क का विपरीतार्थक ख था, उसी प्रकार ग का विपरीतार्थक घ है। ग में यदि गति है तो यहां गति को किसी ने बाहरी प्रहार से रोक दिया है। यहां घटा है-जमाव है। घंटी, घटना, घेराव, घर ये सब फैलाव की सूचक गति के नही अपितु जमाव के सूचक हैं। सभी में संघनन की सी क्रिया है। घन, बादल, घाव, घास, घुटन, घात, घातक, घर्घटिका-घुंघरू, घृणा, घूर्णन, घोषणा-उच्च स्वर से बोलना इत्यादि शब्द भी ऐसा ही अर्थ निष्पन्न कर रहे हैं। इसलिए भाषाविदों ने घकार का अर्थ रूकावट, ठहराव और एकाग्रता आदि के रूप में माना है। अत: जहां-जहां घकार आ रहा है वहां वहां ऐसे ही अर्थ हमें मिलेंगे। यह वर्ण विस्तार को एकीभूत करता है, और विस्तार के एकीभूत की प्रक्रिया को जिस प्रकार घकार की आकृति दर्शाती है उससे सुंदर कोई आकृति हो नही सकती।

‘च’

हिंदी वर्णमाला के अक्षर च की आकृति घकार से भिन्न है। इसमें अकार के मूल स्तंभ में बाहर से अद्र्घचंद्राकार सी एक आकृति आकर जुड़ती है, जो ऊपर से अकार के मूल स्तंभ से थोड़ी दूरी बनाकर पीछे रहती है। अद्र्घचंद्राकार आकृति का ऊपरी भाग एक सीधे डंडे से आवृत्त है। इस आकृति को देखने से ही स्पष्ट हो जाता है कि घकार की भांति सब कुछ बंद नही हो गया है, अपितु अभी कुछ और भी आ सकता है इसलिए दरवाजा ऊपर से खुला है। यह खुलापन अभी ‘और और’ को प्रतिध्वनित कर रहा है। इसलिए च को चंद्रमा, कछुआ, चोर और, भी, तथा इसके अतिरिक्त शब्द या उक्तियों को जोडऩे वाले अर्थों में भी प्रयुक्त किया जाता है। इस अर्थ में यह उस प्रत्येक शब्द या कथन के साथ प्रयोग किया जाता है जिसे मिलाता है या इस प्रकार मिले हुए अंतिम शब्द या कथन के पश्चात रखा जाता है, परंतु यह वाक्य के आरंभ में कभी प्रयुक्त नही किया जाता है। अद्र्घचंद्र की आकृति च से चक्र, चक्रवत, चंद्र, चंद्रमा जैसे शब्दों का वाचक है। इसी से चकोर बनता है जो चंद्रमा की किरणों का आहार करता है। चकोर सदा ‘और और’ के लिए तरसता रहता है।

जो ‘कुछ और’ है उसे देखकर वर्णन करती हैं हमारी आंखें-जिन्हें चक्षु कहा जाता है। इसी चक्षु से चक्षुष्य प्रियदर्शन, मनोहर शब्द बना है-मनोहारी दृश्य में भी ‘और और’ की इच्छा छिपी रहती है। व्यक्ति अपने चित्त-चतुष्टय में अर्थात मन, बुद्घि, चित्त और अहंकार के घेरों में घुसे तो और का क्रम रूकने का नाम नही लेता। भौंरे की भांति अदभुत रस की अनुभूति करता हुआ मानव मन और भी गहराई में उतरता चला जाता है। उसे चित्त चतुष्टय में घुसने के पश्चात आनंद की अदभुत अनुभूति होती है और वह उस आनंदानुभूति की खोज में चकोर की भांति गहरे सागर में उतरता चला जाता है। यह केवल अनुभूति का विषय है, लेकिन इस अनुभूति के विषय को बड़ी सुंदर अनुभूति के साथ चकार हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है, जिसे कोई बिरला ही समझ सकता है, लेकिन जो समझ लेता है उसे चकार का रहस्य और चकार से बनने वाले चित्त चतुष्टय का ज्ञान भी स्वयं ही हो जाता है।

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