दीनानाथ बत्रा
‘ऊँ’ में जादू है, प्रभाव है, ऐसा गुण है, जो उसका जाप करने वाले साधक का मन एकाग्र और वश में कर देता है। उसके गायन से हमारी भावनाएं, हमारे विचार एक सामंजस्य पूर्ण स्थिति में पहुंच जाते हैं, उसके द्वारा आत्मा को शांति और विश्रांति मिलती है, हृदय उस दशा में पहुंच जाता है, जहां ईश्वर के साथ तदात्मीयता होती है। वेदांत, हिंदुओं के सभी दर्शन शास्त्र केवल इसी महामंत्र ‘ऊँ’ की व्याख्या मात्र हैं।
प्रसिद्घ विज्ञान पत्रिका साइंस में प्रकाशित एक शोध में कहा गया है कि ऊँ एक ऐसा शब्द है जिसकी अलग अलग आवृत्तियों में जाप मस्तिष्क, पेट और रक्त से जुड़े कई रोगों की चमत्कारिक औषधि है। यह सेरिब्रल पैल्सी जैसे असाध्य रोग का उपचार है। इस पत्रिका में रिसर्च एण्ड एक्सपैरीमैंट इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरो साइंसेज के एक दल जिसके प्रमुख प्रोफेसर जे. मार्गन हैं, के द्वारा सात वर्ष तक हृदय और मस्तिष्क का उच्चारण एवं जाप नियमित रूप से अलग अलग आवृत्तियों एवं ध्वनियों में किया गया, जिससे पेट, सीना और मस्तिष्क में एक कंपन उत्पन्न हुआ। इससे शरीर में मृत कोशिकाओं का निर्माण भी हुआ। इसका प्रभाव फेफड़ों नाक एवं गले पर भी हुआ। तेज तरंग एवं कंपन के द्वारा संतुलन भी स्थापित हुआ। इस परिक्षण में 2500 पुरूष एवं 2000 महिलाएं सम्मिलित की गयीं। इनके द्वारा सुबह एक घंटे तक योग्य प्रशिक्षण की देखरेख में विभिन्न आवृत्तियों में ऊँ का जाप किया गया। इसमें 70 प्रतिशत पुरूष और 85 प्रतिशत महिलाओं को 60 प्रतिशत लाभ हुआ। कुछ रोगियों पर मात्र 10 प्रतिशत ही प्रभाव हुआ, क्योंकि उनका रोग आखिरी चरण में पहुंच चुका था।
इस शोध के विषय में रोग काउंसिल के विशेषज्ञ एसएन ठाकुर ने अपनी टिप्पणी दी है कि यह शोध हमारी आंखें खोलने वाला है, जबकि हम पहले से यह बात कहते आए हैं। योग का एक हिस्सा प्राणायाम है और प्राणायाम का एक हिस्सा ‘ऊँ’ का उच्चारण भी है। इस ध्वनियों से लाभ पहुंचता है।
एम्स न्यूरोलॉजी की विभागाध्यक्ष प्रो. मंजरी त्रिपाठी ने लिखा है, ‘ऊँ’ के उच्चारण से नाभि से लेकर मस्तिष्क तक धमनियां सामान्य होने लगती हैं। इससे रक्त प्रवाह सामान्य होता है। बीमारियों पर नियंत्रण आसान हो जाता है। ‘ऊँ’ का असर नकारा नही जा सकता। एम्स मेडिसिन के विभागाध्यक्ष डा. अनूप मिश्रा ने रिपोर्ट दी है, कि ‘ऊँ’ के उच्चारण से इंटरनल ओटोनोमिक नव्र्स पर असर पड़ता है और दोनों की गतिविधियां कम हो जाती हैं। इससे लोग शांति अनुभव करने लगते हैं। एंग्लाईटी, डिप्रेशन और रक्तचाप कम हो जाता है।
इस ‘ऊँ’ शब्द का प्रणव भी कहा जाता है। ‘ऊँ’ के संदर्भ में ऋषि मुनियों की निरंतर साधना का यह परिणाम निकला है कि प्रकृति के गर्भ में प्रतिक्षण प्रतिपल ‘ऊँ’ सदृश ध्वनि निकलती रहती है। हमें इस जीवनोपयोगी ‘ऊँ’ का निरंतर शुद्घ अभ्यास कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करके विशेष लाभ पहुंचाता है। यह प्रकृति को नियंत्रित करता हुआ हमारे अंदर हमारी सुषप्त मेधा को विकसित करके चमत्कार पूर्वक दीर्घायु में पहुंचाता है। ‘ऊँ’ ध्वनि का अभ्यास निम्नवत किया जाना चाहिए।
सर्वप्रथम रीढ़ की हड्डी सीधी रखते हुए कुचालक वस्तु के आसन पर सुखासन में बैठना होता है। योगशास्त्र के अनुसार ‘ऊँ’ का विधिवत जाप करने पर शरीर में संचरित प्राणऊर्जा नियमित हो उठती है। ‘ऊँ’ के शुद्घ उच्चारण से उत्पन्न ध्वनि ऊर्जा एवं शरीर ऊर्जा से एक दूसरे के विपरीत घूर्णन प्रारंभ होकर घर्षण विद्युत उत्पन्न होती है जो विद्युतधारा के रूप में शरीर को निरोग बनाती है। यही विद्युतधारा संपूर्ण शरीर में परिपथ सर्कि ट बनाती हुई मस्तिष्क की ओर प्रवाहित होती है और ज्ञानकोश को खोलती है।
‘ऊँ’ की ध्वनि के अभ्यास से दांई हथेली बांई हथेली पर रखते हुए सीधे बैठकर हाथों को गोद में रखा जाता है ताकि परिपथ पूर्ण हो। ध्यानमग्न होकर नेत्र बंद करके पूर्ण श्वास लेते हुए वायु को फेफड़ों में भरा जाता है जिससे पेट की मांसपेशियां अधिक न फूलें तथा पेट संकुचित ही रहे। मुख के ओठों को खोलकर ओ के उच्चारण के उपरांत धीरे धीर ‘म’ के उच्चारण की ओर बढ़ते हैं।
‘ओ’ के सामने प्लुप उ के अनुसार तीन गुना समय लेकर ‘म’ का समय अद्र्घ स्थिति में लघु हो जाता है। इस स्थिति में एकाग्रता के साथ मस्तिष्क में गुनगुनाहट का सुखद अनुभव होता है यह क्रिया इच्छानुसार समय तक संचालित करने पर आनंद की अनुभूति होती है तथा शरीर निरोग रहता है। प्राण ऊर्जा का नियमित संचरण होने के कारण उसमें उत्पन्न होने वाले अवरोध समाप्त हो जाते हैं। इन अवरोधों के कारण ही रोग उत्पन्न होते हैं। चिकित्सा का एक्यूपंक्चर विज्ञान विधि से शरीर में स्थित 700 बिंदुओं पर सुई चुभाकर दबाव डाला जाता है। उससे प्राणऊर्जा का अवरोध समाप्त हो जाता है। उससे प्राणऊर्जा का अवरोध समाप्त हो जाता है। इस क्रिया के लिए ‘ऊँ’ का विशुद्घ रूप से विधिवत उच्चारण अधिक उपयोग एवं आनंददायक होता है। चिकित्सीय क्रिया से ऊपर उठकर यह परमेश्वरीय एकाकार की आनंदानुभूति अनंत और असीम है।
यदि हम ‘ऊँ’ को जीवन का आधार बनाकर चलें तो जीवन सफल होगा तथा सर्वानंद की प्राप्ति होगी। मनुष्य ही नही संपूर्ण जीवन ईश्वर का अंश तो है किंतु हमें अपनी ओर से विशेष रूप से परमेश्वर से जुडऩा होगा तथा अपन त्रुटियों को त्यागना होगा।
अर्थात प्रभु ने स्वर्ग बनाया, लेकिन मनुष्य ने इसे नरक बना दिया। ईश्वर से जुड़कर स्थिति अवश्य संशय रहित होकर सुखमयी एवं आनंदमयी बनेगी। निम्नलिखित श्लोक में यह पूर्णत: स्पष्ट है-
सर्वाविधि विनिर्युक्तो धनधान्यसुतान्वित:।
मनुष्यो मत्प्रसादने भविष्यति न संशय:।
अत: हम ‘ऊँ’ अर्थात परमेश्वर (ब्रह्मा) को अपने हृदय में धारण कर एवं उसकी साधना करके सर्वसुख की प्राप्ति करें। उपनिषद अत्यंत प्राचीन है।
‘ऊँ’ की ध्वनि वैश्विक ध्वनि है तथा व्योम की ध्वनि है। यह ध्वनि संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है। यह पूर्ण मंत्र एवं बीजमंत्र है तथा अन्यान्य मंत्रों का उदगम है। सभी स्वरों की उत्पत्ति एवं लय ओउम से ही है। सभी भाषाओं के भाषी प्राय: किसी न किसी स्वर में ओउम का प्रयोग करते हैं। ओउम के विषय में किसी भी देश, राष्ट्र, धर्म, संप्रदाय अथवा भाषा का विवाद नही है। ओउम को ही अरबी लोग आमीन कहते हैं। फारसी में इसे आमेन कहा जाता है। ग्रीक में इसे ओमेन अथवा आम्नी कहते हैं। अत: ‘ऊँ’ की निरंतर साधना करके अपने मनुष्य जन्म को सार्थक निरामय एवं सफल करें तथा परमकल्याण की प्राप्ति करें।साभार
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