‘विभूति शब्द की व्याख्या’ : राही तू आनंद लोक का
जयो अस्मि-विजय प्रत्येक प्राणी को प्रिय लगती है। विजय की यह विशेषता भगवान की है। इसलिए विजय को भगवान ने अपनी विभूति बताया है। अत: अपने मन के अनुसार अपनी विजय होने से जो सुख होता है, उसका उपयोग न करके उसमें भगवदबुद्घि करनी चाहिए कि विजय रूप में भगवान आए हैं। भगवद भजन-भगवान की तरफ चलने का जो निश्चय है, उसको भी भगवान ने अपनी विभूति बताया है। पृष्ठ 709 श्लोक 37 वृष्णीनां वासुदेवो अस्मि-वृष्णिवंशियों में मैं कृष्ण हूं। पाण्डवानां धनंजय-पाण्डवों में, मैं अर्जुन हूं। मुनिनानष्यहं व्यास-मुनियों में मैं व्यास मुनि हूं। कविनामुश्ना कवि:-शास्त्रों को ठीक तरह से जानने वाले जितने भी विलक्षण प्रतिभा के धनी पंडित हैं, उनमें मैं कवि हूं। मौनं चैवास्मि गुह्यानाम-गुप्त रखने योग्य जितने भाव है-उन सबमें मौन (वाणी का संयम अर्थात चुप रहना) मुख्य है, क्योंकि चुप रहने वाले के भावों को हरेक व्यक्ति नही जान सकता। इसलिए भगवान ने मौन को अपनी विभूति बताया है। नान्तो अस्ति मम दिव्यानां विभूतिनाम-दिव्य शब्द अलौकिकता, विलक्षणता का द्योतक है। अंत में भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं-हे पार्थ! मेरी दिव्य विभूतियों का कोई अंत नही है। कारण कि भगवान अनंत हैं तो उनकी गुण लीलाएं और विभूतियां भी अनंत हैं। इसीलिए रामचरित मानस में कहा गया है-हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहु बिधि सब संता।। सब कुछ पाकै परेशान क्यूं? स्व से रहा है अनजान क्यूं? तेरा, पंगु रहा रे विज्ञान, रे मत भटकै प्राणी……..15 आज सब कुछ पाकर भी मनुष्य अतृप्त है, बेचैन है, उसे शुकून नही है, अर्थात मन की शांति नही है। सब कुछ जानकर भी मनुष्य अपने को नही जान पाया है, वह स्व से अर्थात आत्मा के चेतन स्वरूप से, आत्मज्ञान से इतना बौद्घिक विकास (विज्ञान का चर्मोत्कर्ष पर पहुंचाना) होने के बावजूद भी आत्मज्ञान से अनभिज्ञ है। यूनान का प्रसिद्घ विचारक सुकरात रास्ता चलते लोगों को रोक कर चीख चीख कर कहता था-तुम्हारा सारा ध्यान, धन और पद प्रतिष्ठा पर टिका है, अपनी आत्मा को जानो, अपने स्वरूप को पहचानो-Know Thyself। एटमबम के जनक आइंसटाइन से किसी संवाददाता ने पूछा था-क्या यह एटमबम संसार का कल्याण कर सकेगा? क्या यह मनुष्य के मन को शांति देगा? दुखी हृदय से आंखों में आंसू लिए हुए आइंसटाइन ने कहा था-संसार का कल्याण तो सत्पुरूर्षो के द्वारा ही होगा। यह एटमबम मन को तो शांति नही दे सकेगा किंतु संसार को शमशान घाट जैसी शांति अवश्य देगा। आज यह विज्ञान का विकास लंगड़ा पंगु विकास है। संसार का समान रूप से विकास हो इसके लिए हृदय और मस्तिष्क समान रूप से विकसित होने चाहिए, तभी मनुष्य के मन को चैन मिल सकता है, शुकून मिल सकता है। गीता के छठे अध्याय पृष्ठ 414 पर इसे परमशक्ति कहा गया है, नैष्ठिकी शांति भी कहा गया है। मानस मैं मोती लाया भेंट में। भूला रे मैं की चपेट में।। तुझसा, प्राणी नही धनवान, रे मत भटकै प्राणी…..16 हे मनुष्य! जरा सोच, जब तू ब्रह्मलोक से चला था तो परमात्मा ने तुझे उपहार स्वरूप दैवीय संपत्ति अर्थात अपने गुणों के मोतियों (दयालुता, उदारता, क्षमाशीलता, न्यायप्रियता, दानशीलता, सत्य, प्रेम और त्याग, सखाभाव और बंधुता, सरलता, एकता, मार्दवता अर्थात हृदय की कोमलता, श्रद्घा, स्नेह, ममता और वात्सल्य, धैर्य, साहस, पराक्रम, उत्साह इत्यादि) से तेरे हृदय रूपी खजाने को लबलबा भरकर भेजा था, किंतु इस संसार के मैल-राग, द्वेष, ईष्र्या, मोह, काम, क्रोध और अहंकार के वशीभूत हो तूने इस अपरिमित शक्ति के खजाने का ढक्कन खोलकर नही देखा। प्राय: मनुष्य इस प्रभु प्रदत्त दौलत को ऐसे छोड़कर चला जाता है जैसे किसी के घर में सोने चांदी, हीरे, मोती, जवाहरात, नीलम, पन्ने के आभूषण धरती में दबे हों और गृहस्वामी को पता होने पर भी वह उसे दूसरी पीढ़ी के लिए छोड़ जाए और आप स्वयं आजीवन दरिद्रता का जीवन जीयें तो ऐसे व्यक्ति के लिए लोग क्या कहेंगे? आप स्वयं ही संज्ञा दीजिए। ठीक यही स्थिति आज के मानव की है। आवश्यकता है तो आसुरी शक्तियों को छोडऩे तथा दैवीय शक्तियों को जोडऩे की है। इन्हीं दैवीय शक्तियों को जोडऩे की है। इन्हीं दैवीय शक्तियों के कारण हे मनुष्य! तू सभी प्राणियों में श्रेष्ठ है, धनवान है अर्थात सामथ्र्यवान है। इसी संदर्भ में भगवान कृष्ण गीता में अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं-हे कौन्तेय!तेरे हाथ केवल तेरा ही काम करने के लिए मैंने तुझे नही दिये अपितु मेरा भी काम तुझे इन हाथों से करना है, अर्थात परोपकार के भी कार्य इन हाथों से करने चाहिए। जो अन्याय और अधर्म के कारण त्राहि-त्राहि कर रहे हैं उनकी रक्षा करना भी तेरे इन हाथों का काम है। तू क्या समझता है कि मैंने ये आंखें तुझे केवल रूप देखने के लिए दी हैं? नही…..कदापि नही….। मैंने ये आंखें तुझे पाप और पुण्य को भी देखने के लिए दी हैं, धर्म और अधर्म को देखने के लिए भी दी हैं। इसलिए तू साधुओं की अर्थात भले पुरूषों की रक्षा कर और दुष्टों का दमन कर। इसके अतिरिक्त तेरे ये कान मैंने तुझे मधुर संगीत अथवा आत्मप्रशंसा सुनने के लिए ही नही दिये, अपितु जो जुल्मों के कारण आर्तनाद कर रहे हैं, उनकी वेदना भी सुन, और उनकी रक्षा कर। तू क्या सोचता है कि तेरे हृदय का कार्य केवल धमनियों में रक्त संचार करना है, नही…कदापि नही….। तेरा हृदय मेरे गुणों का खजाना है, आगार है। इसी के गर्भ में दैवीय शक्तियां सोयी हुई हैं। हे पार्थ! जब मनुष्य इन गुणों को, दैवी शक्तियों को पहचान लेता है तो पशुता को लांघ कर मनुष्यता में जीने लगता है। इतना ही नही, मेरे इन दिव्य गुणों के कारण देवत्व और देवत्व से भगवत्ता को प्राप्त हो जाता है अर्थात उसे मेरा सामीप्य प्राप्त हो जाता है, मेरी शरणागति प्राप्त हो जाती है, मोक्ष प्राप्त होता है। जब कभी मैं शांति और एकांत होता हूं, तो सोचा करता हूं कि उस सृष्टा ने, जिसने यह सृष्टिï रचायी है कितनी प्यारी और वैज्ञानिक ढंग से बनायी है? अपनी रहमत भी इस कदर लुटायी है कि मनुष्य की झोली छोटी पड़ जाती है किंतु उसकी रहमत की वर्षा अनवरत रूप से नित्य मैं अपने नयनों से निखरता हूं। हतप्रभ रह जाता हूं और चिंतन करता हूं कि वास्तव में, प्रभु की लीला अपरमपार है। वह नेति-नेति है। उसने हमें बहुमूल्य जीवन दिया है। ये मानव शरीर दिया। शरीर में हृदय दिया जिसे शिवपुराण में मानवरोवर कहा गया है। इस मानव के मानसरोवार में सुकोमल भावों के मोती परमाणु बम से भी अधिक शक्तिशाली दिये। परमाणु बम से भी शक्तिशाली सुकोमल भाव इसलिए हैं-जब तक हृदय में सुकोमल भाव रहते हैं तो परमाणु बम मिट्टी के ढेले की तरह पड़ा रहता है किंतु क्रोध और घृणा आते ही उसका बटन दबाता है, भयानक विस्फोट होता है, जन धन की अकल्पनीय हानि होती है। इससे सिद्घ होता है कि हृदय में सुकोमल भाव-शांति और प्रेम जब तक जिंदा है तो परमाणु बम से भी अधिक शक्तिशाली है, क्योंकि वे उसे नियंत्रण में रखते हैं। इसलिए ये मानव के मोती अपरिमित शक्ति के भंडार हैं। क्रमश: