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किस ओर ले जाएगा देश को सरकारी स्तर पर अंग्रेजी के प्रति लगाव

afffविकास कुमार गुप्ता
हमारा देश 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ। लेकिन हमारी जनता आजाद गुलाम की मानिंद जिन्दगी बसर करने पर मजबूर है, और यह सब हमारी सरकार की कुनीतियों एवं अनदेखी का परिणाम है। हमारे थाने अंग्रेजों के समय के थानों से भी खतरनाक हैं वो इसलिए क्योंकि अंग्रेजों की लाठी खाने पर कम से कम अपने लोगों की सहानुभूति और मदद तो मिलती थी। लेकिन वर्तमान में तो हमारे थानों में हमारे ही लोग हैं जो हुबहू अंग्रेजों जैसी ही लाठियां भांजते नजर आते है। क्योंकि इंडियन पुलिस एक्ट अभी भी वहीं का वहीं है। अगर कोई शासनतंत्र गुलामों पर शासन करने के लिये कोई कानून का निर्माण करता है तो हूबहू वहीं कानून आजाद लोगों पर कैसे लागू किया जा सकता है? सर्वविदित है कि नौकर और गुलाम के लिए कपड़े, खाने से लेकर हर विषय-वस्तु में फर्क होता है लेकिन हमारे बुद्धिजीवी नेताओं को आजादी मिलने पर यह बात समझ में नहीं आई बेफिजूल के हजारों कानून देश में अभी भी लागू है, किसलिए पता नहीं। किसी ने सही ही कहा था कि भारतीय अभी सत्ता संभालने के योग्य नही है। एक तो भारतीयों को इन तमाम यूरोपीय टाइप के कानूनों की आदत नहीं थी। और इस पर अंग्रेजी की नासमझी थी। पूर्व में हमारे यहां 565 जिले हुआ करते थे और वे सभी जिले एक राज्य के रूप में थे। इन जिलों का एक राजा होता था। राजा ही अपने जिले का प्रधानमंत्री, जज, डीएम सब होता था। जजमेन्ट भी मिनटों में हो जाता था। और भ्रष्टाचार और घोटाला होने का प्रश्न ही नहीं था क्योंकि राजा ही सर्वेसर्वा होता था। शिक्षा और अन्य सभी मुलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति राजा द्वारा की जाती थी। लेकिन सब राजा एक दूसरे के शत्रु हुआ करते थे, और यही शत्रुता का लाभ अंग्रेजों ने उठाया। जब टॉमस रो और जहांगीर के बीच पहली संधी 1608 में हुयी तब से लेकर 1857 तक अंग्रेज यहां के राजाओं से संधि करते गये। 1857 के सैनिक विद्रोह के बाद यहां सीधे ब्रिटिश संसद का शासन हो गया। उसके बाद अंग्रेजों ने आयरिश पीनल कोड को उठाकर यहां हूबहू लागू कर दिया। फिर डीएम, एसपी, और थाने बनाये गये। और फिर अंग्रेजों ने अपने यहां चल रहे संसदीय लोकतंत्र प्रणाली जिसे महात्मा गांधी बाझ और वेश्या कहते थे को लागू कर दिया। और फिर मार-काट लूट का चक्र चलता रहा। जोकि 1947 तक चली। अंग्रेजों ने भारत में उपलब्ध सोने का 95 फीसदी हिस्सा जब लूट लिया और जब उनको लगा की यहां अब कुछ लूटने को बचा नहीं तक अंग्रेज से चले गये। विचारणीय है कि हमारा देश सोने का चिडिय़ा हुआ करता था। सारे रोमन और समूचा विश्व हमारे यहां का बना कपड़ा, लोहा और अनेको वस्तुएं खरीदकर प्रयोग करता था। और बदले में यहां के व्यापारियों को सोना मिलता था। क्योंकि उस समय सोना का सिक्का ही मुद्रा हुआ करता था। हमारे पड़ोसी देश नेपाल को भी अंग्रेज गुलाम बना सकते थे लेकिन नेपाल में सिर्फ राजा के पास ही सोना था और जनता गरीब थी। लेकिन की जनता के पास सोने के विशाल भंडार हुआ करते थे। अंग्रेजों के जाने बाद होना तो ये चाहिये था कि हम अंग्रेजों के सभी तंत्र को समाप्त कर अपना नया तंत्र बनाते। नये कानून बनाते। लेकिन जैसे अंग्रेज छोड़कर गये थे। उस शासन व्यवस्था पर हमारे काले अंग्रेजों ने शासन शुरू कर दी। जोकि अभी तक चल रही है। थानो से लेकर कार्यालय तक लूट मची हुई है। जिसको जहां मौका मिल रहा वहीं लूट का अध्याय शुरू हो जाता है। अंग्रेजी की समझ बहुत कम भारतीयों को है। उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय से लेकर उच्च स्तर पर सभी कार्य अंग्रेजी में हो रहे है। देश आजाद तो हुआ 1947 में लेकिन कानून 1860 के ही चल रहे है। और हमारी सरकारे कहती है कानून अंग्रेजों का है तो क्या हुआ शासन तो भारतीयों का है। अगर शासन भारतीयों का है तो फिर भारतीयों को उनके अधिकार क्यों नहीं दिये जा रहे। हम मनमोहन, प्रणब मुखर्जी और अपने देश के सरकार के हर उस शख्स से पूछना चाहते है कि बताओं इंटरनेट पर सभी सरकारी वेबसाइटे, देश के सभी कानून, देश की सभी व्यवस्था हिन्दी, तमिल, तेलुगु बोलने वाले के लिए है या 6 करोड़ की जनंसख्या वाले ब्रिटेन के लिए। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति से लेकर सभी की वेबसाइटे पहले अंग्रेजी में क्यो खुलती है? और उसमें उपलब्ध दो तिहाई सामग्रियां आखिर हमारे देश की आठवीं अनुसूची में उपलब्ध भाषाओं में आखिर क्यों नहीं है। क्या सरकार सिर्फ अंग्रेजी भाषियों के लिए है या अन्यों के लिए भी। सैकड़ों प्रकार के टैक्स और शुल्क हिन्दी और अन्य आठवी अनुसूची भाषी देते है तो फिर सबके साथ ये अन्याय क्यो?

क्यों जबरदस्ती हमारे देश के होनहारों पर अंग्रेजी थोपी जा रही है। अभी कुछ समय पहले एक आई.ए.एस से मेरी हिन्दी अंग्रेजी को लेकर चर्चा हो रही थी। ये आइएएस महोदय अंग्रेजी के तारिफों के पुल बांधे जा रहे थे। फिर मैंने अंग्रेजी की एक कविता उन्हें दी और कहा इसका अर्थ बताइयें फिर क्या था, वह आइ.ए.एस. महोदय बगले झांकने लगे। भाषा जानना और उसकी आत्मा को समझना दो अलग पहलु है। हिन्दी हमारी आत्मा में बसती है। लेकिन अंग्रेजी को हम अनुवाद करके ही समझते है। हां अगर 1 अरब 25 करोण में एक से डेढ़ करोण लोग अच्छी अंग्रेजी वाले है भी तो उनकी वजह से 1 अरब 24 करोण लोगों पर अंग्रेजी थोपना प्रजातंत्र के सिद्धान्त के अनुसार क्या न्यायोचित माना जायेगा? जब देश के सबसे कठिन परीक्षा पास करने वाले अधिकारियों का ये हाल है तो फिर आम जनता की स्थिति का आंकलन स्वत: किया जा सकता है। आज भी सरकारी कार्यालयों में इतने नियम है कि उन्हें समझने के लिए सालों लग जाते है। भाषा के चलते आ रहे समस्याओं के समाधान हेतु राजभाषा नियम 1976 बनाया गया था लेकिन इसका समुचित अनुपालन आज तक नहीं हो पा रहा। आज भी हमारी सरकार की सभी वेबसाइटे अंग्रेजी की शोभा बढ़ा रही है। आखिर आम जनता अंग्रेजी को क्यो पढ़े। भाषा की समस्या ही मुख्य समस्या है इस देश में। देश में क्या हो रहा है उसकी समझ आम जनता के परे है। सब रट्टा मार प्रतियोगिता करने में भागे जा रहे हैं। हमारे बगल में चाइना दिन-दूनी रात चैगूनी कर रहा है और वहां सभी कार्य उसके अपने भाषा में हो रहे है। जापान निरन्तर उन्नती कर रहा है और उसके यहां भी सभी कार्य उसके अपने भाषा में हो रहे है और भी अनेको देश है जो निज भाषा का प्रयोग कर उन्नती की अग्रसर है। लेकिन हमारी सरकार का अंग्रेजी मोह नहीं छुट रहा। हमारे देश के होनहार बच्चों को अंग्रेजी की चक्की में पीसा जा रहा है। एक तरफ संभ्रान्त, रसूखदार और ऊँचे तबके के लोग शुरू से ही अपने बच्चों को अंग्रेजी शिक्षा की चक्की का आंटा खिला रहे है तो दूसरी तरफ हमारी केन्द्र सरकार संविधान की दुहाई देकर प्राथमिक स्तर तक बच्चों को अंग्रेजी नहीं पढ़ा रही। क्योंकि हमारे संविधान का अनुच्छेद 350 (क) में प्राविधान है कि- “प्रत्येक राज्य और राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के बालको को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्थाा करने का प्रयास करेगा।”

संविधान के अनुच्छेद 351 में हिन्दी भाषा के विकास के लिए निदेश दिये गये है और कहा गया है कि “संघ का कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत से और गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।” लेकिन सीधा प्राविधान होने के बाद भी हमारी सरकारे आज तक अन्य भारतीय भाषाओं की उन्नति की जगह अंग्रेजी भाषा की उन्नती करती जा रही है। और ऐसा सिर्फ सरकारी मांग की वजह से हो रहा है। क्योंकि हमारी सरकार और उनके द्वारा बुलायी गयी हजारों बहुराष्ट्रीय कंपनीय अंग्रेजी के जानकारों को खोज रही है। अत: हमारी जनता भी अंग्रेजी के पीछे दीवाना हो चुकी है। अगर आजादी पश्चात् ही आठवी अनुसूची की भाषाओं में ही कार्य किया जाता तो ऐसी स्थिति नहीं उभरती। समूचे देश की एक भाषा अगर चुनना ही था तो हिन्दी चुन ली जाती। और अगर अन्य आठवी अनुसूची से सम्बन्धित भाषाओं का विवाद उत्पन्न होता तो तमिल को अंग्रेजी की जगह तमिल हिन्दी दी जाती। राज्यस्तर की भाषा का चयन राज्य की भाषा के अनुसार किया जाता तो कितना अच्छा रहता।
विकास कुमार गुप्ता

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