अफज़ल की फांसी पर मचा बवाल
तनवीर जाफऱी
भारतीय संसद पर हमले के मुख्य आरोपी व साजि़शकर्ता मोहम्मद अफज़़ल गुरु को तख्त-ए-दार पर चढ़ाया जा चुका है। गत् 6 वर्षों तक अफज़़ल गुरु को लेकर तथा उसे सुनाई गई फांसी की सज़ा के पक्ष और विपक्ष में देश में एक लंबी बहस चली। इस फैसले के पक्ष और विपक्ष में तमाम दलीलें पेश की गईं। कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगाकर देश के हिंदू मतों को अपनी ओर आकर्षित करने के एकमात्र एजेंडे पर अपनी राजनीति चलाने वाली भारतीय जनता पार्टी अफज़ल गुरु को फांसी न दिए जाने के लिए 6 वर्षों तक कांग्रेस पार्टी को सीधे जि़म्मेदार ठहराती रही। भाजपा नेताओं ने तो अफज़ल गुरु को बचाने का कांग्रेस पर न सिर्फ़ आरोप लगाया बल्कि भाजपा के कई नेताओं ने उसे कांग्रेस का दामाद तक कहने से गुरेज़ नहीं किया। और अब जबकि सरकार द्वारा अफज़ल को फांसी दे दी गई है तब यही भाजपाई ‘फांसी देने में देरी क्यो’ जैसे बेबुनियाद सवाल खड़े कर रहे हैं। हालांकि इन्हें यह भलीभांति मालूम है कि संसद पर हमले से पहले के राजीव गांधी व बेअंत सिंह की नृशंस हत्याओं के दोषियों को अभी भी फांसी नहीं दी गई है।
बहरहाल, अफज़़ल की फांसी के बाद अब भारत सरकार के समक्ष दूसरी बड़ी चुनौती कश्मीर में आतंकवाद फैलने की आहट को लेकर सामने आ गई है। न केवल कश्मीर बल्कि सीमा पार पाकिस्तान में अफज़ल गुरु की फांसी का जमकर विरोध किया जा रहा है। पाकिस्तान में अफज़़ल समर्थक दिखाई देने वाले लोग कश्मीर की अवाम से हमदर्दी जताने का ढोंग करते नजऱ आ रहे हैं तथा अफज़ल की फांसी के विरोध की आड़ में आज़ादी-ए-कश्मीर की तहरीक को हवा देने का प्रयास कर रहे हैं। इन शक्तियों का आरोप है कि अफज़़ल बेगुनाह था तथा उसे अपना पक्ष रखने का मौक़ा नहीं दिया गया। अफज़़ल गुरु को फांसी दिए जाने के बाद मेरे बीबीसी के एक पाकिस्तानी पत्रकार मित्र ने अफज़ल की फांसी के बारे में मेरे विचार जानने चाहे। मैंने उन्हें बताया कि मेरे विचार इस विषय पर वही हैं जोकि भारत सरकार तथा भारतीय न्यायालय के हैं। उन्हें भारतीय न्याय व्यवस्था के प्रति आश्वस्त करते हुए मैंने यह दलील भी दी कि हमारे देश की कानून व्यवस्था में यह कथन प्रचलित है कि भले ही सौ गुनहगार रिहा क्यों न हो जाएं परंतु किसी एक बेगुनाह व्यक्ति को सज़ा नहीं मिलनी चाहिए’। गोया भारतीय कानून किसी भी अपराधी को बरी होने के तमाम अवसर मुहैया कराता है। सैशन कोर्ट के फैसले,फिर उच्च न्यायालय में अपील,उसके बाद सुप्रीम कोर्ट के द्वार पर दस्तक और इन रास्तों में रिवीजऩ की संभावनाएं, अदालत के प्रति संतुष्ट न होने पर अदालत बदले जाने की भी व्यवसथा आदि। और अंत में राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका। मैंने उन्हें यह भी बताया कि देश का लचीला संविधान व उदार कानून होने की वजह से ही आज हमारे देश में बड़ी संख्या में अपराधी लोग कानून की आंखों में धूल झोंककर या कानूनी दांवपेच का लाभ उठाकर अदालतों से बरी होकर सडक़ों पर घूमते-फिरते देखे जा सकते हैं। लिहाज़ा इस बात पर विश्वास करना चाहिए कि अ$फज़ल के साथ न्याय हुआ है। मैंने अपने उस पत्रकार मित्र से यह भी कहा कि संसद पर किया गया हमला किसी छोटे-मोटे और मामूली इरादों को लेकर किया गया हमला नहीं था। अफ़सोस की बात है कि अफज़़ल की फांसी का अलगाववादी विचारधारा रखने वालों द्वारा बखूबी इस्तेमाल किया जा रहा है। कई तरह के सवाल किए जा रहे हैं। फांसी क्यों दी गई? फांसी दी गई तो परिवार के लोगों को फांसी दिए जाने से पूर्व सूचित क्यों नहीं किया गया? फांसी से पहले अफज़ल के परिजनों को उससे मिलने व बात करने क्यों नहीं दिया गया? फांसी के बाद अफज़ल की लाश परिजनों के सुपुर्द क्यों नहीं की गई वगैरह? इस विषय पर सरकार की आलोचना करने वालों को यह बात बहुत बारीकी से समझ लेनी चाहिए कि अफज़ल की फांसी के मुद्दे पर सरकार को कठघरे में खड़ा करने वाला प्रत्येक वर्ग,संगठन अथवा नेता चाहे वह जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर उब्दुल्ला हों या फिर जेडीयू के नेता शरद यादव। इनके अफज़ल या उसके परिवार के प्रति सहानुभूति जताने वाले प्रत्येक बयान परोक्ष या अपरोक्ष रूप से कश्मीरी अलगाववादियों की सहायता ही कर रहे हैं। उदाहरण के तौर पर शरद यादव का मत है कि अफज़ल गुरु की लाश उनके परिवार वालों के सुपुर्द कर देनी चाहिए। शरद यादव कई बार केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं। शासन व प्रशासन के विषय में उनका बहुत अच्छा अनुभव भी है। उन्हें यह समझना चाहिए कि लाशों पर राजनीति करने वाले तथा आम लोगों की भावनाओं को भडक़ा कर अपनी लोकप्रियता बढ़ाने वाले नेता शवयात्रा का कैसा राजनैतिक दुरुपयोग करते हैं। कश्मीर में पहले भी कई बार शव यात्रा की भीड़ के साथ हिंसक घटनाएं घट चुकी हैं। यहां तक कि नमाज़-ए-जनाज़ा में भी आतंकी हमले हो चुके हैं।
2002 में पूरा गुजरात भी सांप्रदायिक दंगों की भेंट उसी समय चढ़ा था जबकि गोधरा ट्रेन हादसे में जलाए गए कार सेवकों की लाशों को सुनियोजित तरीके से उनके घरों को भेजा गया था। अफज़ल गुरु की लाश यदि उनके परिजनों के सुपुर्द कर दी जाती और कश्मीर में उस समय हालात बिगड़ जाते तब यही आलोचक यह कहते नजऱ आते कि सरकार को अफज़ल की लाश उनके परिजनों के हवाले नहीं करनी थी। लिहाज़ा इस मुद्दे पर सरकार की दूरदृष्टि का समर्थन करना चाहिए न कि विपक्ष की गैरजि़म्मेदाराना भूमिका अदा करते हुए सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश। रहा सवाल इस बात का कि अफज़ल गुरु संसद पर हमले का दोषी था या नहीं तो इस विषय पर न केवल सभी भारतीय अदालतें अपना निर्णय दे चुकी हैं बल्कि अपने साक्षात्कार में अफज़़ल गुरु ने भी अपना इकबाल-ए-जुर्म किया है और उसने बताया है कि वह किस तरह पाकिस्तान के इशारे पर संसद पर हमला करने के मुख्य योजनाकार ग़ाज़ी बाबा व पाकिस्तान के अन्य आतंकी सरगनाओं के संपर्क में था और स्वयं उसने इस संसद हमले में क्या अहम किरदार निभाया है। भारत की संसद विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का प्रतीक है और इसे निशाना बनाने या बंधक बनाने का दु:स्साहस करना और अपने इस दु:स्साहिक प्रयास में संसद के 9 रखवाले सुरक्षाकर्मियों को शहीद कर देना, रेयर आफ द रेयरेस्ट की इससे बड़ी परिभाषा और क्या हो सकती है? अफज़़ल गुरु के हमदर्दों को संसद की रक्षा करने वाले उन शहीद सुरक्षाकर्मियों के परिजनों की भी चिंता करनी चाहिए तथा उनके प्रति भी हमदर्दी जतानी चाहिए। आश्चर्य की बात है कि लोकतंत्र का मंदिर समझे जाने वाले संसद भवन की रक्षा के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर देने वाले शहीदों के विषय में तो कोई नेता अपनी आवाज़ नहीं उठाता जबकि अफज़ल गुरु जैसे आतंकी सरगना के साथ हमदर्दी जताने वाले लोग उसके जीते-जी भी बहस करते दिखाई दे रहे थे और उसकी फांसी के बाद भी सक्रिय नजऱ आ रहे हैं।
अफज़ल की फांसी के बाद केवल कश्मीर में ही नहीं बल्कि इस्लामाबाद में भी उसकी ग़ाएबाना (अदृश्य) नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ी गई। इसमें अफज़़ल गुरु से हमदर्दी जताने वालों में मुंबई हमलों का मास्टरमाईंड व जमात-उद-दावा प्रमुख हाफिज़ सईद भी था। खबरों के अनुसार अफज़ल गुरु की फांसी पर रोष व्यक्त करने के लिए उस दिन पाकिस्तान में एक दिन में दस से अधिक सभाएं आयोजित की गईं। इन सभी सभाओं में हाफिज़ सईद व जेकेएलएफ नेता यासीन मलिक की बराबर से शिरकत किए जाने की खबर है। हाफिज़ सईद का अफज़़ल गुरु के पक्ष में खड़ा होना तथा उससे हमदर्दी जताना अपने-आप में खुद इस बात का सुबूत है कि अफज़ल गुरु की कारगुज़ारी मुंबई हमलों से कहीं अधिक संगीन व गंभीर थी। अफज़ल गुरु का अपराध भी अजमल कसाब के अपराध से किसी भी सूरत में कम नहीं था। यासीन मलिक ने भी हाफिज़़ सईद के साथ मिलकर अफज़़ल की फांसी पर आंसू बहाकर यह साफ़ कर दिया है कि कश्मीर के अलगाववादी नेता पाकिस्तान में बैठकर भारत के विरुद्ध युद्ध छेडऩे की साजि़श रचने वाले हाफिज़ सईद जैसे मोस्ट वांटेड आतंकवादियों के साथ तालमेल बनाने या उनसे सहयोग लेने से कोई परहेज़ नहीं करते। यासीन मलिक खुद इस बात को स्वीकार करते हैं कि भारत सरकार ने उन्हें पासपोर्ट इस मकसद से दिया था कि वे पाकिस्तान जाकर राजनैतिक गतिविधियों में हिस्सा लें तथा कश्मीर पाकिस्तान व भारत के बीच कश्मीर विषय पर हो रही वार्ताओं में अपनी भूमिका निभाएं। मलिक के बयान से ही ज़ाहिर होता है कि सरकार ने उन्हें यह पासपोर्ट हाफिज़ सईद के साथ भारत विरोधी साजि़श रचने के लिए या देश के सबसे बड़े मोस्ट वांटे अपराधी के साथ एक मंच पर बैठकर भारत को कोसने के लिए हरगिज़ नहीं दिया था। हाफिज़़ सईद वह शख्स है जो न केवल मुंबई हमलों का मुख्य योजनाकार था बल्कि वह आए दिन पाकिस्तान में भारत विरोधी रैली व प्रदर्शन आयोजित कर बेखौफ होकर भारत को गालियाँ देता फिरता है,भारतीय झंडे को अपने पैरों तले रौंदता है तथा अपरोक्ष रूप से भारत के विरुद्ध युद्ध छेड़े जाने की कोशिश में हर वक्त लगा रहता है। ऐसे शख्स का दोस्त, सहयोगी या उसकी विचारधारा का समर्थन करने वाला कोई भी शख्स भारत का दोस्त कभी नहीं हो सकता। लिहाज़ा दुनिया के सबसे बड़े धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र भारतवर्ष की एकता और अखंडता के प्रत्येक पैरोकारों को अफज़ल गुरु की फांसी पर वावैला मचाने के बजाए इस संवेदनशील स्थिति में भारत सरकार की आलोचना या नुक्ताचीनी करने के बजाए भारत सरकार के फ़ैसलों का समर्थन करना चाहिए।