निर्मल रानी
हमारे देश में जैसे-जैसे जनसंख्या में तेज़ी से वृद्धि होती जा रही है उसी अनुपात में देश में होने वाले तमाम साधारण व ऐतिहासिक आयोजनों, यातायात के सभी साधनों, बाज़ारों,बस्तियों, रेलवे स्टेशन,बस अड्डे, हवाई अड्डे, स्कूल-कॉलेज, मनोरंजन स्थल गोया प्रत्येक जगह पर भीड़ की सं या में वृद्धि होती जा रही है। नतीजतन आम लोगों से जुड़ी तमाम व्यवस्थाएं बुरी तरह प्रावित हो रही हैं। उसका दूसरा नतीजा यह भी देखा जा रहा है कि इस बढ़ती भीड़ को नियंत्रित करने में प्रशासन भी कहीं-कहीं पूरी तरह असमर्थ दिखाई देता है। अब यह एक अलग बहस का विषय है कि इन हालात का जि़ मेदार है कौन? भारी भीड़ को नियंत्रित,व्यवस्थित एवं सुसंचालित न कर पाने वाला तमाम अलग-अलग संस्थानों से जुड़ा प्रशासन,सरकारें या फिर आज़ाद देश के वे गैरजि़ मेदार नागरिक जो सरकार की जनसंख्या नियंत्रण की अपील की अनसुनी व अनदेखी करते हुए जनसं या में वृद्धि किए जा रहे हैं। बहरहाल,बक़ौल शायर -दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा।
अपनी ज़िम्मेदारियों व कर्तव्यों से विमुख आम आदमी बहरहाल शासन व प्रशासन से यही उम्मीद रखता है उसे हर जगह सुरक्षित,नियंत्रित, साफ़-सुथरा तथा निर्भय हो कर जीने वाला एक अच्छा वातावरण मिले। परंतु विशेष या अति विशेष आयोजनों की तो बात ही क्या करनी। रोज़ाना की ज़िन्दगी में इस्तेमाल में आने वाली मानव की ज़रूरतों को पूरा करने वाली बस व रेलगाड़ी जैसी सुविधाएं आम लोगों को पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर पा रही हैं। दशकों से हम यह देखते आ रहे हैं कि हमारे देश के यातायात के संसाधनों में कमी के चलते प्रतिदिन लाखों लोग बसों व ट्रेनों की छतों पर चढ़कर,दरवाज़ों पर लटककर तथा एक-दूसरे से धक्का-मुक्की करते हुए अपनी मंजि़ल तक पहुंचते हैं। इन्हीं परिस्थितियों में तमाम लोग हादसों का शिकार होकर अपनी जानें तक गंवा बैठते हैं। ज़ाहिर है ऐसा इसीलिए है कि यात्रियों की संख्या अधिक है तथा संसाधनों की सं या कम। आम आदमी यहां भी अपने कर्तव्यों की ओर देखने की बजाए सरकार की व प्रशासन की कमियों की ओर ही उंगली उठाना उचित समझता है। इसी प्रकार स्कूल-कॉलेज,अस्पताल, कोर्ट-कचहरी, स्टेशन आदि प्रत्येक जगहों पर भारी भीड़ का आलम देखने को मिलता है। और इसका खामियाज़ा भी असुविधा के रूप में आम लोगों को ही भुगतना पड़ता है। अब सवाल यह है कि जब दैनिक जीवन में सरकार या प्रशासन आम लोगों को सुख-सुविधा प्रदान नहीं कर पाता, आम लोगों की इस भीड़ को नियंत्रित नहीं कर पाता या उसे हर जगह पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध नहीं करा पाता, ऐसे में विशेष या अति विशेष आयोजनों को नियंत्रित कर पाने की बात आिखर कैसे सोची जा सकती है? और प्रशासन के इसी असहाय होने के परिणामस्वरूप ही कहीं भगदढ़ मचने के समाचार सुनाई देते हैं तो कहीं व्यवस्था काबू के बाहर हो जाती है। और ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण हालात का खामियाज़ा जान व माल के नुकसान के रूप में आखऱिकार आम लोगों को ही भुगतना पड़ता है।
गत् दस फरवरी को इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर ऐसा ही दर्दनाक हादसा उस समय पेश आया जबकि हज़ारों लागों की बेकाबू भीड़ भगदड़ व प्रशासनिक दुव्र्यवस्था का शिकार हुई। जिसके नतीजे में 37 लोगों की मृत्यु हो गई। इलाहाबाद में आयोजित महाकुंभ में मौनी अमावस्या के दिन होने वाले शाही स्नान में शरीक होने के लिए भारी सं या में भक्तजन इलाहाबाद पहुंचे थे। गत् चार दशकों से मेरी भी कुंभ मेलों पर पूरी नजऱ है। यह देखा जा रहा है कि खासतौर पर इलाहाबाद में आयोजित होने वाले कुंभ, अर्धकुम्भ तथा महाकुंभ के मेलों में शामिल होने वाले श्रद्धालुओं के आंकड़े देश की बढ़ती जनसं या के अनुपात से भी कई गुणा तेज़ी से बढ़ते जा रहे हैं। और इस बार यह आंकड़े सबसे अधिक सुनाई दिए।मौनी अमावस्या के दिन अर्थात् 10 फरवरी को तीन करोड़ से लेकर चार करोड़ या साढ़े चार करोड़ लोगों के संगम के तट पर स्नान करने की खबरें सुनाई दीं। पता नहीं कि प्रशासन के पास श्रद्धालुओं की गिनती किए जाने की क्या व्यवस्था है? यह आंकड़े सही भी होते हैं या नहीं? एक सवाल इन आंकड़ों को लेकर यह भी है कि कहीं सरकार व प्रशासन इतने लंबे-चौड़े व अविश्वसनीय से आंकड़े बताकर अपनी पीठ स्वयं थपथपाने की कोशिश तो नहीं करता? परंतु जो भी हो संगम स्थल व गंगा-यमुना के तट पर देखने से निश्चित रूप से ज़रूर प्रतीत होता है कि श्रद्धालुओं की सं या प्रत्येक चार वर्षों बाद बढ़ती ही जा रही है।
श्रद्धालुओं की यही बढ़ती संख्या अब प्रशासन के लिए खासतौर पर यातायात व्यवस्था के लिए एक बड़ी चुनौती बन चुकी है। यहां तक कि रेलमंत्री ने इस बार तो साफतौर पर कह दिया है कि कुंभ में प्रत्येक दस मिनट पर ट्रेन चला पाना संभव नहीं है। निश्चित रूप से ऐसा कतई संभव नहीं है कि देश की दैनिक ज़रूरतों को छोड़कर पूरी व्यवस्था का ध्यान किसी एक आयोजन की ओर केंद्रित कर दिया जाए। ऐसे में देश के नागरिकों,आम लोगों व श्रद्धालुओं को स्वयं इस बात पर नजऱ रखनी चाहिए कि वे अपनी सुरक्षा,सुविधा आदि को मद्देनजऱ रखते हुए किसी भीड़भाड़ वाले आयोजन की ओर प्रस्थान करें। ऐसी जगहों पर बुज़ुर्गों, बच्चों व महिलाओं को बहुत ज़रूरी होने पर ही ले जाने की कोशिश करनी चाहिए। दूसरी ओर प्रशासन को भी आम लोगों को किसी ऐसे आयोजन स्थल पर आमंत्रित करने से पूर्व उससे संबंधित सभी प्रकार की व्यवस्था का पूरा जायज़ा लेना चाहिए। राज्य व केंद्र सरकार की अलग-अलग मशीनरी के मध्य पूरा तालमेल व एकाग्रता भी होनी चाहिए। केंद्र व राज्य में किसी प्रकार का अंतर्विरोध, एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप या प्रशासनिक कमियों के लिए एक-दूसरे को ज़िम्मेदार ठहराने की प्रवृति से बाज़ आना चाहिए। आयोजन में लगे जि़ मेदार अधिकारियों को अपनी जान पर खेलकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए। और पूरी जवाबदेही के साथ अपने फजऱ् को अंजाम देना चाहिए। किसी बड़े हादसे की नौबत आने से पहले ही प्रशासन को हालात पर काबू पाने की युक्ति तलाश करनी चाहिए तथा हादसा टालने में अपनी योग्यता का पूरा प्रदर्शन करना चाहिए।
जहां तक खासतौर पर इलाहाबाद स्टेशन पर हुए दुर्भाग्यपूर्ण हादसे का प्रश्र है तो इस संबंध में सरकार द्वारा जांच कराई जा रही है जो एक माह के भीतर अपनी रिपोर्ट देगी। परंतु हादसे के जो कारणफि़लहाल सुनाई दे रहे हैं उनमें अत्यधिक भीड़ का प्लेटफार्म पर मौजूद रहना तो है ही साथ-साथ यह खबर भी सुनने में आ रही है कि रेलवे द्वारा किए जाने वाले उदघोष में अचानक यात्रियों को किसी विशेष ट्रेन पर सवार होने हेतु प्लेटफार्म नंबर बदलने की घोषणा कर दी गई। जिसके कारण यात्रियों में अफरा-तफरी मच गई। पता नहीं यह आरोप सही है या गलत पंरतु रेल विभाग नि:संदेह ऐसी हरकतें आमतौर पर पहले भी करता रहता है। गोया पहले किसी रेलगाड़ी के आने की सूचना किसी प्लेटफार्म पर दी जाती है तो बाद में अचानक उसी रेलगाड़ी के किसी अन्य प्लेटफार्म पर आने की खबर प्रसारित कर दी जाती है। ऐसे में यात्रियों में अफरा-तफरी का माहौल पैदा होना स्वाभाविक है।रेल प्रशासन को ऐसे हालात से बचने की कोशिश करनी चाहिए। पूर्व निर्धारित प्लेटफार्म पर ही ट्रेन को अने देना चाहिए। भले ही उसे कुछ समय के लिए स्टेशन से बाहर ही क्यों न रोकना पड़े। वैसे भी रेलवे का ही यह नारा है कि ‘दुर्घटना से देर भली’।
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