चूंकि, पालक-पोषक होने के कारण और कुछ पौराणिक आस्थाओं के कारण भी, भारत में पुरातन काल से ही नदियों को माँ का स्थान प्राप्त है । इसे देखते हुवे महाकुंभ के विषय में बहुतों विद्वानों का ऐसा भी मानना है कि प्राचीनकाल से निरंतर आयोजित हो रहे इस महाकुंभ का एक प्रमुख उद्देश्य नदी-संरक्षण भी है । और अगर हम स्वयं भी आस्था व अध्यात्म के दायरे से थोड़ा बाहर आकर तार्किकता से महाकुंभ के उद्देश्य पर विचार करें, तो विद्वानों का ये कथन काफी हद तक उचित व व्यवहारिक ही प्रतीत होता है । इसकी पूरी संभावना है कि पूर्वज ऋषि-मुनियों द्वारा नदियों के प्रति मातृगत आस्था का प्रतिस्थापन व उनमे स्नान को धर्म से जोडऩे का विधान, उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए ही किया गया होगा । पर इसे विडम्बना ही कहेंगे कि समय के साथ नदियों को मिला माँ का ये स्थान सिर्फ प्रतीकात्मकता तक सीमित रह गया है, यथार्थ के धरातल पर तस्वीर कुछ और ही है । स्थिति ये है कि आज औद्योगिक प्रगति के उत्साह में हम इतने मूढ़ होते जा रहे हैं कि उसके लिए अपनी नदियों की स्वच्छता तक से समझौता करने को तैयार हैं । औद्योगिक प्रगति की होड़ ने हमे इस कदर अंधा कर दिया है कि हम औद्योगिक प्रगति के प्रतीक बने तमाम औद्योगिक संस्थानों से निकसित दूषित तत्वों से अपनी नदियों को होने वाली हानि को भी नही देख पा रहे । इसके अतिरिक्त अबाध गति से बढ़ती जनसंख्या और उसके द्वारा किया जा रहा जल का अंधाधुंध इस्तेमाल भी नदियों के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह ही लगाता है । इन्ही सबके बीच, बेशक भारत सरकार द्वारा नदियों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना (एनआरसीपी) के तहत नदियों के पानी की गुणवत्ता में सुधार के लिए प्रदूषण हटाने सम्बन्धी कार्य किए जा रहे हैं, पर बावजूद इसके नदियों की दशा का अनुमान इसीसे लगाया जा सकता है कि देश में प्रतिदिन 26 लाख लीटर दूषित तत्वों का उत्सर्जन नदियों में जा रहा है । जिससे दिन-प्रतिदिन नदियों का रंग बदलता जा रहा है । दुग्धांगी गंगा का कालापन इसका सबसे सशक्त प्रमाण है । नदियों के प्रदूषित होने के कारण ही अब लोग कुम्भ, छठ या अन्य किसी भी नदी-स्नान सम्बन्धी पर्व में स्नान की औपचारिकता मात्र ही निभाने लगे हैं और पूर्व की उस सच्ची श्रद्धा और उस उत्साह की हर तरफ कमी नजऱ आने लगी है ।इन सभी तथ्यों को देखते हुवे कुछ प्रश्न बड़े ही मुखरित ढंग से हमारे सामने आते हैं कि क्या हमारा दायित्व नदियों को सिर्फ प्रतीकात्मक रूप से माँ मानने, मन-बेमन उनमे नहाने व उन्हें पूजने तक ही रह गया हैं ? क्या व्यवहारिकता में उनके लिए हमारा कोई दायित्व नही बनता ? क्या उनकी समस्याओं की कुल जवाबदेही सिर्फ सरकार पर है ? कहीं ऐसा तो नही कि ये समस्या सरकार पर थोपकर हम अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे हैं ? ये वो महत्वपूर्ण प्रश्न हैं जिनपर समय रहते अगर विचार नही किया गया तो हो सकता है कि आगे आने वाला समय ऐसा हो जब हमें कुम्भ या महाकुंभ के स्नान के लिए तो छोड़ो, पीने व सामान्य गृह स्नान के लिए भी शुद्ध व स्वच्छ जल न मिले । और वैसे वक्त के लिए हमारे पास न ही कोई भगीरथ है और न ही कोई गौतम । इसलिए आज जरुरत है कि हम खुद ही कुछ करें । जरूरत है कि हम जल की उपयोगिता को समझें और उसके दुरुपयोग से बचें । महाकुंभ में स्नान करने के साथ-साथ उसके सही उद्देश्य को भी समझें और अपनी नदियों के संरक्षण के लिए सरकार पर तो दबाव डालें ही, स्वयं भी प्रयास करें ।अगर हम ऐसा करते हैं तो ही हम सही मायने में महाकुंभ को जानने, समझने और मनाने वाले होंगे और तभी हमें ये अधिकार भी होगा कि हम नदियों को अपनी माँ कह सकें
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