शेष नारायण सिंह
आरएसएस और बीजेपी से सहानुभूति रखने वाले टीवी चैनलों ने मीटिंग की खबर को दिन भर इस तजऱ् में पेश किया कि जैसे उस मीटिंग के बाद देश का इतिहास बदल जायेगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मीटिंग में शामिल लोगों ने बताया कि बीजेपी के नेता आर एस एस-बीजेपी के सावरकरवादी हिंदुत्व के एजेंडे को 2014 के चुनावी उद्घोष के रूप में पेश करने से बच रहे हैं। इस बैठक में शामिल बीजेपी नेताओं ने कहा कि जब कांग्रेस शुद्ध रूप से राजनीतिक मुद्दों पर चुनाव के मैदान में जा आ रही है और बीजेपी को ऐलानियाँ एक साम्प्रदायिक पार्टी की छवि में लपेट रही है तो सावरकरवादी हिंदुत्व को राजनीतिक आधार बनाकर चुनाव में जाने की गलती नहीं की जानी चाहिए। बीजेपी और आरएसएस के बीच 2014 के लोकसभा चुनावों के मुद्दों के बारे में भारी विवाद है। आरएसएस की कोशिश है कि इस बार का चुनाव शुद्ध रूप से धार्मिक ध्रुवीकरण को मुद्दा बनाकर लड़ा जाए। शायद इसीलिये सबसे ज़्यादा लोकसभा सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश में किसी सीट से नरेंद्र मोदी को उम्मीदवार बनाने की बात शुरू कर दी गयी है। उत्तर प्रदेश में मौजूदा सरकार में मुसलमानों के समर्थन के माहौल के चलते मुस्लिम बिरादरी में उत्साह है। उम्मीद की जा रही है कि राज्य सरकार के ऊपर बीजेपी वाले बहुत आसानी से मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप चस्पा कर देगें और मुसलमानों के खिलाफ नरेंद्र मोदी की इमेज का फायदा उठाकर हिंदुओं को एकजुट कर लेगें। राज्य में कुछ इलाकों में समाजविरोधी तत्वों ने कानून व्यवस्था के सामने खासी चुनातियाँ पेश कर रखी हैं। इन समाज विरोधी तत्वों में अगर कोई मुसलमान हुआ तो आरएसएस के सहयोग वाले मुकामी अखबार उसको भारी मुद्दा बना देते हैं और मुसलमानों को राष्ट्र के दुश्मन की तरह पेश करके यह सन्देश देने की कोशिश करते हैं कि अगर मोदी की तरह की राजनीति उत्तर प्रदेश में भी चल गयी तो मुसलमान बहुत कमज़ोर हो जायेगें और उनका वही हाल होगा जो 2002 में गुजरात के मुसलमानों का हुआ था।इस तर्कपद्धति में केवल एक दोष यह है कि आर एस एस और उसके सहयोगी मीडिया की पूरी कोशिश के बावजूद मुसलमानों से साफ़ बता दिया है कि अब चुनाव वास्तविक मुद्दों पर ही लड़ा जाएगा ,धार्मिक ध्रुवीकरण की कोशिश करने से कोई लाभ नहीं होने वाला है। 12 फरवरी की बैठक में आर एस एस वालों ने बीजेपी नेताओं को साफ़ हिदायत दी कि उनको हिंदुओं की पक्षधर पार्टी के रूप में चुनाव मैदान में जाने की ज़रूरत है ।जबकि बीजेपी का कहना है कि अब सरस्वती शिशु मंदिर से पढकर आये कुछ पत्रकारों के अलावा कोई भी सावरकरवादी हिंदुत्व को गंभीरता से नहीं लेता। बीजेपी वालों का आग्रह है कि ऐसे मुद्दे आने चाहिए जिसमें उनकी पार्टी देश के नौजवानों की समस्याओं को संबोधित कर सके।इस बैठक से जब बीजेपी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह बाहर आये तो उन्होंने बताया कि अपनी पार्टी की भावी रणनीति के बारे में विस्तार से चर्चा हुई ।उन्होंने साफ़ कहा कि प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के मामले पर कोई चर्चा नहीं हुई। हालांकि राजनाथ सिंह ने तो इस मुद्दे पर कुछ नहीं कहा लेकिन अन्य सूत्रों से पता चला है कि आतंकवादी घटनाओं में शामिल आरएसएस वालों के भविष्य के बारे में चर्चा विस्तार से हुई। आरएसएस को डर है कि अगर एन आई ए ने प्रज्ञा ठाकुर, असीमानंद आदि को आतंकवाद के आरोपों में सज़ा करवा दिया तो मुसलमानों को आतंकवादी साबित करने की उनकी सारी मंशा रसातल में चली जायेगी। जब तक आर एस एस से सम्बंधित लोगों को कई आतंकवादी घटनाओं के सिलसिले में पकड़ा नहीं गया था तब तक बीजेपी वाले कहते पाए जाते थे कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान होता है। जब आर एस एस के बड़े नेता इन्द्रेश कुमार सहित बहुत सारे अन्य लोगों एक खिलाफ भी आतंकवाद में शामिल होने की जांच शुरू हो गयी तो बीजेपी वालों के सामने मुश्किल आ गयी। कांग्रेस में साम्प्रदायिकता विरोधी राजनीति के मुख्य रणनीतिकार दिग्विजय सिंह ने भी बीजेपी की मुश्किले बढ़ा दीं जब उन्होने संघी आतंकवाद को बाकी हर तरह के आतंकवाद की तरह का ही साबित कर दिया। हालांकि जयपुर में संघी आतंकवाद को भगवा आतंकवाद कहकर गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने बीजेपी वालों को कुछ उम्मीद दिखा दी थी और बीजेपी वाले कहते फिर रहे थे कि सुशील कुमार शिंदे ने हिंदू आतंकवाद कहा था। यह सच नहीं है । मैं उस वक़्त हाल में मौजूद था और शिंदे के भाषण को सुना था। उन्होंने हिन्दू आतंकवाद शब्द का प्रयोग नहीं किया था। लेकिन बीजपी उन्हें हिंदू विरोधी साबित करने पर आमादा थी और ऐलान कर दिया था कि वह संसद के बजट सत्र के दौरान शिंदे का बहिष्कार करेगी ।लेकिन इस बीच शिंदे ने बीजेपी से सबसे प्रिय विषय को उनके हाथ से छीन लिया है। पिछले कई वर्षों से बीजेपी वाले अफजल गुरू को फांसी दो के नारे लगाते रहे हैं लेकिन शिंदे के विभाग की तत्परता के कारण अफजल गुरू को फांसी दी जा चुकी है। यहाँ अफजल गुरू को दी गयी फांसी के गुणदोष पर विचार करने का इरादा नहीं है लेकिन यह साफ़ है कि बीजेपी के लिए अब अफजल गुरू के नाम के मुद्दे की जगह कोई और नाम लाना पडेगा ।इसके साथ ही सुशील कुमार शिंदे का बहिष्कार कर पाना बहुत मुश्किल होगा। लेकिन बीजेपी को एक डर और भी है कि अगर 2014 के लोकसभा के चुनाव के पहले समझौता एक्सप्रेस, मक्का मसजिद, अजमेर धमाके आदि के अभियुक्त आर एस एस वालों को सज़ा हो गयी तो मुसलमानों को आतंकवाद का समानार्थी साबित करने की आर एस एस की कोशिश हमेशा के लिए दफन हो जायेगी। अफजल गुरू को फांसी देने की बीजेपी की मांग से माहौल को धार्मिक ध्रुवीकरण के रंग में रंगने की आर एस एस की कोशिश बेकार साबित हो चुकी है। जिस तरह से भारत के मुसलमानों ने अफजल गुरू के फांसी के मुद्दे को बीजेपी की मंशा के हिसाब से नहीं ढलने दिया वह अपनी लोकशाही की परिपक्वता का परिचायक है। अफजल गुरू की फांसी की राजनीति पर सोशल मीडिया और अन्य मंचों पर जो बहसें चल रही हैं उसमें भी भारतीय हिंदू ही बढ़ चढ़कर हिसा ले रहे हैं। मुसलमानों ने आम तौर पर इस मुद्दे पर बीजेपी की मनपसंद टिप्पणी कहीं नहीं की। इस सन्दर्भ में उर्दू अखबारों का रुख भी ऐसा रहा जिसको जि़म्मेदार माना जाएगा। बीजेपी ने जब 1986 के बाद से सावरकरवादी हिंदुत्व को चुनावी रणनीति का हिस्सा बनाया उसके बाद से ही उनको उम्मीद रहती थी कि जैसे ही किसी ऐसे मुद्दे पर चर्चा की जायेगी जिसमें इतिहास के किसी मुकाम पर हिंदू-मुस्लिम विवाद रहा हो तो माहौल गरम हो जाएगा।
अयोध्या की बाबरी मसजिद को राम जन्म भूमि बताना इसी रणनीति का हिस्सा था।
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