कवि की ये पंक्ति बिल्कुल वैसी ही हैं जैसा किसी पंजाबी संत ने मन को सांसारिक विषयों से उठाकर प्रभु के चरणों लगाने की बात को स्पष्ट करते हुए कहा था कि यह भी कोई बड़ी बात है? उत्थे ठाओ और इत्थे लाओ अर्थात उधर (सांसारिक विषयों) से हटाओ और इत्थे अर्थात (प्रभु चरणों में) लाओ। जैसे धान की पौध को पौधशाला से उठाया जाता है और खेत में रोप दिया जाता है। ऐसे ही मन को संसार से उठाओ और प्रभु चरणों में लगा दो।
दोनों बातें संतों के लिए सरल सी हैं, लेकिन सांसारिक व्यक्तियों के लिए बड़ी कठिन हैं-पहाड़ की चढ़ाई से भी दुष्कर। इन पंक्तियों को पढ़कर प्रथम दृष्टया तो ऐसा लगता है कि जैसे भजन की भी कोई आवश्यकता नही है। मन पे अधिकार कर लेना ही पर्याप्त है। किंतु ऐसी व्याख्या अर्थ का अनर्थ कर देती है। कवि का आशय यह नही। क्योंकि मन पर अधिकार भजन के बिना नही हो सकता और भजन अभ्यास और वैराग्य अर्थात नाम का निरंतर जप और संसार से निरंतर विरक्ति के बिना संभव नही है। इसलिए पवित्र मन ही भजन का घर बन सकता है और मन पवित्र बनता है भजन से। इसलिए भजन और मन दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। मन की पवित्रता के लिए महर्षि पतंजलि ने योगदर्शन की रचना की। हमें पवित्र मन से पवित्र जीवन जीने के लिए पूरा एक साधना पथ ही प्रदान कर दिया और उस साधना पथ का नाम दिया-अष्टांग योग। योग के आठ अंग बताये-
(1) यम-शौच संतोष, तप स्वाध्याय, ईश्वर-प्रणिधान, (2) नियम-सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मïचर्य, इंद्रियनिग्रह। (3) आसन (4) प्राणायाम (5) प्रत्याहार (6) धारणा (7) ध्यान (8) समाधि। इन आठ अंगों को धारकर चलने से पूर्ण समाधि (भजन की उच्चतम अवस्था) प्राप्त होगी। इन सबके बीच से अपने आपको साधकर निकालने वाले साधक को स्वयं ही पता चल जाएगा कि साधना क्या है? तीर्थ क्या है? मन की पवित्रता क्या है? और वास्तविक प्रार्थना क्या है? साधना ढोंग बन जाती है जब व्यक्ति कानों का कच्चा होता है किसी ने आपको आकर कहा कि फलां व्यक्ति आपके लिए ऐसा कह रहा था, वैसा कह रहा था और आप उत्तेजित हो गये? तुरंत आपने प्रतिकार किया और उस व्यक्ति तक अपने दुर्भाव को अति रंजित करके पहुंचा दिया। आपको स्वयं को ही पता नही चला कि आपकी साधना (अभ्यास और वैराग्य) को कितनी क्षति पहुंच गयी है या आप अपने लिए स्वयं ही कितने बड़े शत्रु बन चुके हों। सामान्यत: अपने विरोधियों की और अपने आप से ईष्र्या भाव रखने वालों की हम निंदा करते हैं और हमारे ऐसे विचारों को सुनने वालों से हम अपेक्षा करते हैं कि वो उस व्यक्ति से हमारी बात को नही कहेंगे। सचमुच यही हमारी नादानी है। अरे! मन मूरख, जिसने उस व्यक्ति की कटु बातों को आप तक पहुंचा दिया वह आपकी बातों को उस तक नही पहुंचाएगा ये कैसे हो सकता है? निश्चित ही पहुंचाएगा और दो की चार कहकर पहुंचाएगा। तब अच्छा यही होगा कि आप अपने निंदक की भी आलोचना ना करें उसे अपने कार्य से और अपने व्यवहार के संतुलन से सही रास्ते पर लाने का प्रयास करें। यह मन की साधना है यह भजन का एक प्रकार है, या ये भी कहिए कि भजन की सत्संग की रंगत तुम्हें ऐसी शक्ति देगी कि तुम शांत अपने पथ पर आगे बढ़ते जाओगे और विरोधी स्वयं ही पराजित हो जायेंगे। कानों को मजबूत रखो, आंखों को लक्ष्य पर रखो, मन को शांत रखो, हृदय को प्रभु का आवास बना लो आत्मा के आलोक में जो आनंद के स्वर गूंजें उन्हें ही अपने भजन और तपे हुए जीवन की उच्चतम अवस्था मानो और जानो, अपने आपको पहचानो कि मैं कौन सी साधना करता हूं? क्या मेरी साधना में या मेरे भजन में कभी हृदय के तार बज सके हैं? क्या कभी उस प्यारे प्रभु के दर्शन इस हृदय मंदिर में हुए हैं? यदि हां तो उस आनंदानुभूति को पुन: पुन: लाने के लिए सक्रिय और सतत प्रयासरत रहो, और यदि नही तो समझो कि अभी जीवन निरर्थक है, इसे सार्थक बनाने के लिए संसार की झाडिय़ों से बचाने के लिए अभी तो बहुत कुछ करना है।
समय रहते जागो। जिधर चलना है, उधर की ओर चलो। समय निकल रहा है। बड़ी तेजी से समय की रेत हाथ से निकलती जा रही है। काल नदी तेजी से प्रवाहमान है। मन और भजन को एक रस कर दो। साधना सफल हो जाएगी, प्रार्थना फलीभूत हो जाएगी और जीवन धन्य हो जाएगा। प्यारे प्रभु से बस एक ही प्रार्थना करो कि दुखों को सहन करने की अदभुत शक्ति दो, रो-रोकर दुख सहन करना तो सब सीख लेते हैं, पर मैं तुझसे तेरे नाम के आनंद रस की अनुभूति के साथ कष्टï सहन करने की प्रार्थना कर रहा हूं। मेरी इस प्रार्थना को सुनो और तृप्त कर दो मुझे अपने प्यार की बौछारों से। ऐसी प्रार्थना के साथ यदि हम नियम से प्रभु के दरबार में बैठते हैं और हमें प्रभु के प्रेम की वर्षा की फुहारों अनुभूति होती है तो समझ लो…हो गया भजन।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।