आज सही 101 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं अमृतसर के जलियांवाला बाग के हत्याकाण्ड की घटना को । 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन ‘रौलट एक्ट’ के विरोध में अमृतसर में स्वर्ण मंदिर के निकट जलियांवाला बाग में हजारों लोग एकत्र हुए थे। जिससे नाराज होकर जनरल डायर ने अपने अंग्रेज सैनिकों को निहत्थे और अहिंसक आंदोलन में विश्वास रखने वाले देशभक्त भारतीयों पर गोली चलाने का आदेश दिया था ।
हमारे स्वतंत्रता आंदोलन में भाग ले रहे देशभक्तों के लिए यह एक अप्रत्याशित घटना थी । वे संवैधानिक रूप से शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर सभा का आयोजन करने के लिए वहां पर एकत्र हुए थे । उन्हें यह अनुमान नहीं था कि यहां पर अंग्रेज खून की होली खेलने की तैयारी कर चुके हैं। अचानक गोली चलती देखकर हमारे देशभक्त स्वतंत्रता प्रेमी लोग जान बचाने के लिए लोग कुआं के अंदर कूद गए थे। जिसमें से करीब 320 लोगों की बाद में लाश निकाली गई थी।
इसके अलावा जो गोलियों से मौके पर ही मर गए थे उनकी संख्या भी काफी थी ।जलियांवाला बाग में उन शहीदों की स्मृति में लगाई गई सूची के अनुसार 388 लोग इस हत्याकांड में शहीद हुए थे, जबकि कमिश्नर अमृतसर की सूची के अनुसार 488 लोग इस जलियांवाला बाग हत्याकांड में शहीद हुए थे। जो लोग घायल होकर किसी प्रकार वहां से भागने में सफल हो गए थे वह रास्ते में कहीं ना कहीं गिर पड़े और वहीं पर से सिसक सिसक कर प्राण दे दिए , क्योंकि घटना के तुरंत बाद सारे शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया था । कहीं पर भी किसी भी व्यक्ति को कोई भी परिजन जाकर देख नहीं सकता था और ना ही उठा सकता था , इसलिए इलाज के बारे में भी सोचना संभव नहीं था। अतः बिना इलाज के और बिना देखभाल के भी अनेकों लोग सड़कों पर इधर-उधर लावारिस की भांति मरने के लिए बाध्य हो गए थे।
इसके उपरांत भी गोरी सरकार के अधिकारियों और प्रशासकों को अपने किए पर कोई पश्चाताप नहीं था क्योंकि पूरी योजना के अंतर्गत और मन बनाकर इस घटना को अंग्रेज अधिकारियों ने अंजाम दिया था।
मौके पर जलियांवाला बाग को मैंने दो बार सपरिवार देखा है । वहां पर लगे हुए चित्रों को, दीवारों पर गोलियों के निशानों को देखकर के हृदय द्रवित हो जाता है और रोष आता है । अश्रुपूर्ण नेत्रों से अपने शहीदों को नमन करने के अतिरिक्त समय कुछ भी उचित नहीं लगता।
डॉक्टर सतपाल किचलू और उनके अन्य अनेकों साथियों के नेतृत्व में यह शांतिपूर्वक आंदोलन चल रहा था कि तभी डायर वहां पर प्रवेश द्वार की तरफ से घुसा और उसने गोली चलाने का आदेश दिया। उन जवानों के पत्थर की मूर्तियां पोजीशन लिए हुए सांकेतिक रूप में बनी हुई हैं जिन्होंने जिस स्थान से गोलियां चलाई थी।
उस समय एक 20 वर्ष का नवयुवक जलसे में आए लोगों को पानी पिलाने के लिए वालंटियर के रूप में कार्य कर रहा था । गोली चलते समय वह लाशों के ढेर में छुप करके बचा था। जो पुतलीघर अनाथालय में पढ़ा लिखा था क्योंकि उसके माता – पिता की मृत्यु बचपन में ही हो गई थी। उसने डायर को यह आदेश देते हुए और गोली चलते हुए सब कुछ दृश्य अपनी आंखों से देखा था। यह युवक उसी समय यह प्रण कर बैठा था कि मुझे गोली चलाने वाले व्यक्ति को जान से मारना है और इस घटना का बदला लेना है । भारत मां की शान को आप बढ़ाना है । इसीलिए 1941 में इंग्लैंड में जाकर एक जलसे के दौरान ही उन्होंने माइकल ओ डायर को गोली से उड़ा दिया था। क्योंकि जनरल डायर की मृत्यु पहले ही हो चुकी थी इसलिए जनरल डायर के दूसरे साथी माइकल ओ डायर को उसने मार कर के अपने देशभक्ति से भरे हुए राष्ट्रीय कर्तव्य की इतिश्री की थी व इस घटना का बदला लिया था ।
उस देशभक्त, बहादुर ,शूरवीर के पराक्रमी बलिदान को भी आज नमन करने का दिन है , जो 22 वर्ष तक प्रतिशोध की अग्नि में जलता रहा । वह घटना को नहीं भूला और इसका बदला लिया। वर्ष 1976 में उसकी अस्थियां इंग्लैंड ने भारत को लौटाई थीं ।आज उनकी आदम कद प्रतिमा जलियांवाला बाग के प्रवेश द्वार पर लगी हुई है ।मां भारती के अमर बलिदानी वे थे सरदार उधम सिंह जी।
इस हत्याकांड के विरोध में रविंद्र नाथ टैगोर ने अंग्रेजों के द्वारा दी गई उपाधि को वापस किया था और इस घटना की पूरे विश्व में एक स्वर से आलोचना हुई थी। मेरा उन सभी बलिदानियों के लिए श्रद्धा पूर्वक नमन।
देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत