मनुष्य जो कुछ भी करता है सोच समझकर कर करता है, वह मंदिर जाता है, चोरी करता हो या किसी अनैतिक कार्य को करता हो वह सोच समझकर ही करता है। मंदिर जाने के पहले वह मंदिर आने का विचार करता है, तब मंदिर जाता है। अनैतिक कार्य करने के पहले भी वह विचार करता है, विचार करते समय उस कार्य के अच्छे बुरे प्रभाव को भी वह सोचता है लेकिन, जब उसके ऊपर बुरे विचार का प्रभाव अधिक रहता है तो वह अपने सभी अच्छे विचारों को अपने ही तर्क से ढक देता है और अपने बुरे विचारों के समर्थन में तर्क भी एकत्रित कर लेता है और वह अपने कार्यों के द्वारा यह मान लेता है कि वह जो भी गलत कार्य कर रहा है वह प्रत्येक गलत कार्य सही है। क्योंकि मनुष्य तार्किक व्यक्ति है। ऐसा होता भी है जो मनुष्य गलत कार्य करता है उसके पास अपने गलत कार्य के समर्थन में बहुत तर्क होते हैं शराब पीने वाला मनुष्य भी तर्क वितर्क करके अपनी बात को ही सही समझता है कि वह शराब सही पी रहा है। तर्क का जन्म विचार से होता है और मन से विचार का ग्रंथियों के स्पंदन से जो ऊर्जा बनती है उस ऊर्जा को अगर विवेकपूर्ण मार्ग में खर्च किया जाए तो उसका प्रभाव क्रियात्मक होता है यदि मनुष्य उसी ऊर्जा को गलत दिशा में खर्च करता जाए तो मानवता का नाश करने के लिए हिरोशिमा और नागासाकी जैसी घटनाएं घट जाती हैं। यह ऊर्जा का दुरुपयोग है ऊर्जा को गलत दिशा में बहने की प्रेरणा देता है। मनुष्य मूल रूप से न अच्छा होता है और न ही बुरा होता है, वह केवल मनुष्य होता है बाद में वह जिस परिवेश में पलता है जैसा वह विचार करता है वैसा बन जाता है। जिस प्रकार कोई व्यक्ति किसी मंदिर में जाता है, सत्संग इत्यादि स्थानों पर जाता है तो वह वहां जाकर वैसा ही व्यवहार व आचरण करने लगता है मंदिर में बैठकर वह किसी गलत आचरण की बात नहीं करता या सोचता है क्योंकि वहां गलत बात सोचने का वातावरण नहीं है, लेकिन वही मनुष्य जब किसी अनैतिक स्थान पर चला जाता है तो उसका विचार वहां के वातावरण से प्रभावित हो जाता है और वैसा ही सोचने लगता है। मनुष्य वही है लेकिन वातावरण के कारण उसकी सोच में अंतर आ गया है, उसी सोच के कारण वह वहां गलत आचरण करके फंस जाता है, और अपने चरित्र को धूमिल और दागदार बना लेता है। मंदिर में बैठे लोग ही अगर उस वातावरण में चले जाएं तो प्रभावित हुए बिना नहीं आ सकते क्योंकि विचार का संक्रमण उसे प्रभावित करता है।
प्रस्तुति : गौरव शर्मा (छांयसा)