1947 के हैदराबाद से 2013 के हैदराबाद तक देश तरस रहा है पटेल के अवतार के लिए

patelराकेश कुमार आर्य
बात 1947 की है। देश का बंटवारा हो चुका था, देश के सामने देशी रियासतों को भारत के साथ मिलाने की सबसे बड़ी चुनौती थी। क्योंकि अंग्रेजों ने सभी रियासतों को खुली छूट दे दी थी कि वे चाहें तो भारत के साथ अपना मिलाप कर लें, चाहें तो पाकिस्तान के साथ चली जायें और चाहें तो स्वतंत्र रह लें। ब्रिटिश शासकों की यह घोषणा भारत में एक नही अनेक पाकिस्तान बनाने की घोषणा थी। इससे घोर अराजकता फैलना स्वाभाविक था। तब जिन रियासतों ने भारत से अलग रहने की इच्छा जाहिर की उनमें प्रमुख रूप से हैदराबाद और जूनागढ़ की रियासतें थीं आज हम हैदराबाद की चर्चा करेंगे।
हैदराबाद के निजाम के पास तब दिल्ली से एक प्रतिनिधिमंडल भेजा गया। इस प्रतिनिधिमंडल का काम निजाम को एक साल का समय देकर कुछ शर्तों पर भारत के साथ लाना था। निजाम ने अपने मंत्रिमंडल की बैठक में केंन्द्र का प्रस्ताव रखा। प्रस्ताव पर चर्चा आरंभ करते हुए सदस्य मि. आयंगर ने कहा कि आप (निजाम) जो चाहते हैं वही हमारा निर्णय होगा। इस पर निजाम ने कहा कि ‘स्पष्ट विचार दो।’
तब आयंगर ने पूरी सभा से कहा कि-क्या हैदराबाद कभी चीन और रूस की तरह स्वतंत्र देश रहा है? सबने कहा ‘कभी नही’। आयंगर ने दूसरा सवाल दागा-‘हम भारत के साथ लड़ाई कितने समय तक झेल सकते हैं?’ आवाज आयी-‘चार दिन भी नही।’ आवाज को काटते हुए निजाम ने कहा- ‘दो दिन भी नही।’
तब भारत के पक्ष में निर्णय ले चुके निजाम को रजवी ने इस कार्य से रोके रखा। रजवी साम्प्रदायिकता फैला रहा था और उसे बेकार का भ्रम पैदा हो गया था कि हम भारत को लड़ाई में हरा देंगे। इसलिए वह एक अलग पाकिस्तान का सपना संजो रहा था। यद्यपि जिन्ना ने भारत के विरूद्घ लड़ाई में निजाम को सहायता देने से स्पष्ट मना कर दिया था। उन परिस्थितियों में रजवी की मुलाकात सरदार पटेल से हुई। रजवी ने कहा-‘आप हैदराबाद को आजाद क्यों नही रहने देना चाहते?’
‘मैं सभी सीमाएं लांघ चुका हूं। हैदराबाद के लिए मैं जितना कुछ स्वीकार कर चुका हूं, उतना किसी और रियासत के लिए मैंने नही स्वीकारा।’सरदार पटेल ने कहा। ‘पर मैं चाहता हूं कि आप हैदराबाद की मुश्किलों को समझें।’रजवी ने फिर कहा।
सरदार पटेल ने कहा मुझे कोई मुश्किल नही दीख रही, बशर्तें तुमने पाकिस्तान से कोई समझौता न कर रखा हो। रजवी ने कहा-‘अगर आप हमारी मुश्किलों को नही समझेंगे तो हम झुकेंगे नही, हम हैदराबाद के लिए आखिरी दम तक लड़ेंगे-मरेंगे।’ सरदार ने बड़ा सधा सधाया उत्तर दिया-‘अगर तुम आत्महत्या करना ही चाहते हो तो मैं तुम्हें कैसे रोक सकता हूं?’
बाद में हैदराबाद के खिलाफ सरदार ने कार्रवाई की और निजाम घुटनों के बल सरदार के सामने आ पड़ा। बोला मैं आपको कहना चाहता हूं कि जब तक देश की विघटनकारी शक्तियों के विरूद्घ आप अपना वर्तमान कड़ा रूख बनाये रखेंगे एवं राज्यों के ही मित्र बने रहेंगे, जैसे आप हैं, मैं आपका निष्ठावान एवं विश्वस्त साथी बना रहूंगा। आज हैदराबाद में फिर रजवी की साम्प्रदायिकता का नंगा नाच हुआ है। शेष 
22 फरवरी को इस शहर को आतंकियों ने अपनी आतंकी घटना से दहला दिया है। अफजल गुरू को जब फांसी दी गयी थी तो उसी समय 13 जनवरी को पाकिस्तान में यूनाइटेड जेहादी काउंसिल की बैठक हुई। जिसमें भारत में आतंकी कार्रवाई तेज करने का फैसला किया गया था। यह काउंसिल आतंकी संगठनों की शीर्ष संस्था है और इसमें लश्कर-ए-तैय्यबा, जैश ए मौहम्मद, जमातउद दावा सहित लगभग बीस आतंकी संगठन सम्मिलित हैं। आतंकियों ने निर्णय लिया और भारत के हैदराबाद में आकर उसे मूत्र्तरूप भी दे गये। लेकिन किसी ने उनसे सरदार पटेल की सी स्पष्टता और उनका सा साहस नही दिखाया। इसका कारण यही है कि इस समय देश में सरदार की कुर्सी पर प्यादे बैठे हैं। जिनसे कुर्सी सुशोभित नही हो रही अपितु वे स्वयं ही कुर्सी से सुशोभित हो रहे हैं। सारा देश सरदार पटेल के अवतार की बाट जोह रहा है और हमें बार बार शिवराज पाटिल, चिदंबरम और शिंदे मिल जाते हैं। जो लोग चौथी पंक्ति में बैठने लायक हैं उन्हें पहली पंक्ति में बैठना पड़ रहा है ये उनका सौभाग्य हो सकता है पर देश का तो ये दुर्भाग्य ही है।
वोट के लोकतंत्र और वोट की राजनीति ने देश को प्रतिभाहीन कर दिया है, योग्यों में से योग्यतम के चयन की लोकतांत्रिक प्रक्रिया कहीं कुण्ठित और लुण्ठित कर दी गयी है और अयोग्यों में से योग्य को छांटने की बासी थाली हमारे सामने रख दी गयी है। नेहरू जी ने टण्डन की चुनाव सभा में लोगों को संबोधित करते हुए कहा था-”यदि जनतंत्र का अर्थ अपने विवेक का भीड़ के समक्ष समर्पण है तो भाड़ में जाये ऐसा जनतंत्र। जहां भी ये प्रवृत्ति सिर उठाएगी, मैं उसका प्रतिरोध करूंगा। फिर भी जनतंत्र मुझसे प्रधानमंत्री पद छोडऩे के लिए कह सकता है। मैं इस आदेश का पालन करूंगा। यदि कांग्रेसी आगामी चुनावों में कुछ वोटों के लिए अपने आदर्शों को छोडऩे की बात सोचते हैं तो कांग्रेस मुर्दा बन जाएगी। मुझे ऐसी लाश की जरूरत नही।”
आज कांग्रेस के लिए आम धारणा बन चुकी है कि ये पार्टी आदर्शों की हत्या कर चुकी है। तब नेहरू के वर्तमान उत्तराधिकारी राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेसी क्या ढो रहे हैं? यह वही जानते हैं।
आज देश का गृहमंत्री हैदराबाद के दहलने पर कहता है कि हमने तो राज्यों को पहले ही एलर्ट कर दिया था। बात साफ है कि आतंकवादियों की बारूद पर रोक लगाने की बजाए और उनकी बारूद से उन्हीं को भूनने की बजाए हमारा गृहमंत्री परमाणु बम बना रहे पाक को रसगुल्ले फेंक फेंककर जवाब देने में ही बहादुरी समझता है। सचमुच यह प्यादों का राज है। यहां देश के गौरव को बढ़ाने वाले नेताओं का अकाल पड़ गया है। एक एक दिन में नही अपितु दो दो घंटे में तीन तीन बार कपड़े बदलने वाले आलसी, प्रमादी और विलासी लोगों के हाथों में देश चला गया है। अब वो दिन नही रहे जब मोटी खादी वाले किसान के वेश में रहकर देश पर शासन करने वाले सरदार पटेल जैसे लोग हुआ करते थे। डॉ राजेन्द्र प्रसाद राष्ट्रपति भवन में बैठकर सचमुच देश का प्रतिनिधित्व किया करते थे। 
ननी ए. पालकीवाला ने 27 नवंबर 1979 को नई दिल्ली में भाई परमानंद स्मृति व्याख्यान में भाषण देते हुए कहा था-‘समूचे राजनीतिक परिदृश्य पर एक नैतिक संकट छाया हुआ है, पचास के दशक में सार्वजनिक जीवन में ऐसे बहुत से लोग थे जो सिर से पैर तक भद्र पुरूष थे। साठ के दशक में ऐसे बहुत से नेता थे जो इससे कुछ कम भद्र थे, दुर्भाग्यवश सत्तर वाले दशक में हमारे राजनेता एक इंच भी भद्र पुरूष नही थे और ऐसे नेताओं की संख्या इतनी है कि विश्वास नही होता। हमारी राजधानियों में सत्ताधारियों, सत्तालोलुपों और सत्ता के दलालों ने हमारे संविधान को तुच्छ बना दिया है। चुनाव लडऩे वाले राजनेताओं ने चुनावों को घुड़दौड़ में बदल दिया है। अंतर मात्र इतना है कि घोड़े प्रशिक्षित होते हैं।’
अटल जी ने प्रधानमंत्री रहते अपनी सरकार के बहुमत सिद्घ करने पर हो रही बहस में बोलते हुए उन सांसदों की ओर इशारा करते हुए कहा था जो उन्हें अपनी कीमत लेकर वोट देने को तैयार थे, कि बाजार में घोड़े (सांसद) तो बिकाऊ थे, लेकिन कोई खरीदार नही था। पर पालकी वाला ने तो इन घोड़ों को वास्तविक घोड़ों से भी गया गुजरा बता दिया क्योंकि वास्तविक घोड़े प्रशिक्षित होते हैं। वो अपने सवार को गिरने नही देते हैं और आने वाली आपदा को भी समझ लेते हैं।
सचमुच देश नेतृत्व के संकट से गुजर रहा है। अब तो यही कहा जा सकता है-
अब वो दिन हवा हुए जब पसीना गुलाब था,
अब तो इत्र भी सूंघते हैं तो खुशबू नही आती।
क्योंकि इत्र बनावटी है। दूसरे की कुर्सी पर अपात्र बैठे हैं। ऐसे में सरदार पटेल की याद में देश का व्याकुल होना स्वाभाविक है।

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