मानव शरीर में कुल 8 चक्र होते हैं । जिनका प्राणायाम से भी बड़ा गहरा संबंध है । इस अध्याय में हम यही स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे कि प्राणायाम के करने से चक्रों को कैसे सकारात्मक ऊर्जा और शक्ति प्राप्त होती है ?अथर्ववेद का यह मंत्र है :-अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या,
तस्यां हिरण्यमय: कोश स्वर्गोज्योतिषावृता।।
(अथर्व 10/2/32)यहां पर आठ चक्रों और नवद्वारों वाली इस मानवदेह को एक ऐसी पुरी की संज्ञा दी गयी है जो कि ‘अवध’ है, अर्थात जिसमें मानसिक, वाचिक या कायिक किसी भी प्रकार की हिंसा नही होती है।
मानव शरीर की महिमा अलग ही है इसमें बताए गए ये आठ चक्र इस प्रकार हैं :-मूलाधार चक्र- यह गुदामूल में है।
स्वधिष्ठान चक्र- मूलाधार से कुछ ऊपर है।
मणिपूरक चक्र- इसका स्थान नाभि है।
अनाहत चक्र- हृदय स्थान में है।
विशुद्धि चक्र- इसका स्थान कण्ठमूल है।
ललना चक्र- जिह्वामूल में है।
आज्ञा चक्र- यह दोनों भ्रुवों के मध्य में है।
सहस्रार चक्र- मस्तिष्क में है।मूलाधार चक्रअथर्ववेद के इस मंत्र के अनुसार मानव शरीर में कुल 8 चक्र होते हैं । पहला चक्र मूलाधार चक्र है । जिसका निवासस्थान गुदा के पास है ।इसमें उत्तेजना प्राप्त कर वीर्य स्थिर और अभ्यासी ऊर्ध्व रेत्ता बनता है अर्थात जीवनी शक्ति वीर्य जब ऊपर को मस्तिष्क की तरफ चलता है , जिससे माथे की चमक बढ़ती है। इससे वीरता, साहस, शौर्य ,पराक्रम और विशाल ललाट प्राप्त होता है। बहुत ही प्रयत्न से इस जीवनी शक्ति की सुरक्षा और संरक्षा करने का संकेत बार-बार हमारे ऋषि , मुनि , संत महात्मा देते रहे हैं ।उसका कारण यही है कि इसी जीवनी शक्ति पर हमारे जीवन का आधार टिका है।स्वाधिष्ठान चक्रदूसरा स्वाधिष्ठान चक्र मूलाधार चक्र से चार अंगुल ऊपर की ओर स्थित होता है। जिसमें प्राणायाम के माध्यम से ऊर्जा और शक्ति पहुंचने से प्रेम और अहिंसा के भाव जागृत होते हैं । शरीर के रोग और थकावट दूर होकर स्वस्थता का लाभ होता है।
अगर आपकी ऊर्जा स्वाधिष्ठान में सक्रिय है, तो आपके जीवन में आमोद प्रमोद की प्रधानता होगी। आप भौतिक सुखों का भरपूर मजा लेने की फिराक में रहेंगे। आप जीवन में हर चीज का आनन्द उठाएंगे।
स्वाधिष्ठान चक्र में योगी की चेतना के जागरण से अच्छी भूख लगने लगती है और अच्छी नींद भी आने लगती है।मणिपूरक चक्रतीसरा चक्र मणिपूरक चक्र होता है । जो मनुष्य की नाभि में स्थित होता है , इसके ऊर्जान्वित होने से शारीरिक और मानसिक दु:ख कम हो जाते हैं । मन स्थिर होने लगता है और आत्मा अपने को शरीर से पृथक अनुभव करने लगती है । जिससे प्रत्याहार की स्थिति में अभ्यासी पहुंचने लगता है । प्रत्याहार का शब्दार्थ है पीछे खींच लेना या पीछे हटा लेना । यहां पर योग में इसका प्रयोग इंद्रियों के दमन आदि से है, अर्थात इंद्रियों से अपव्यय होती हुई उर्जा को, शक्ति को पीछे हटा लेना ही प्रत्याहार है। मणिपूरक चक्र के जागरण से व्यक्ति की कर्मशीलता जागृत होती है।अनाहत चक्रचौथा चक्र अनाहत चक्र है । यह चक्र पेट के ऊपर हृदय के धड़कने के स्थान के ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी के दोनों और रहता है ।इसका अधिकार भीतरी सभी अवयवों पर है ।प्राणमय कोश इसी चक्र में रहता है। इस पर चोट लगने से मनुष्य तत्काल मर जाता है। पहलवान कुश्ती के समय इसी पर चोट मारकर प्रतिद्वंदी को बलहीन कर देता है ।मस्तिष्क प्राण के लिए इसी चक्र का आश्रय लेता है। यह चक्र पेट का मस्तिष्क भी कहा जाता है। अनाहत चक्र में पहुंचे व्यक्ति की सृजनशीलता जागृत हो उठती है।विशुद्धि चक्रपांचवा चक्र विशुद्धि चक्र होता है। जो गले में आवाज से कुछ ऊपर स्थित होता है । प्राणायाम करते समय कुंभक से इसको ऊर्जा मिलती है। तार्किक मनन शक्ति और बौद्धिक शक्ति का विकास होता है। साधक की साधना ज्यों – ज्यों बढ़ती जाती है , त्यों – त्यों उसकी प्राण शक्ति बढ़ती जाती है । प्राणशक्ति के बढ़ने से प्रत्येक चक्र ऊर्जावन्त और शक्तिमान हो उठता है। विशुद्धि चक्र में पहुंचकर योगी शारीरिक शक्ति का जागरण कर जाता है।ललना चक्रछटा चक्र ललना चक्र होता है । जिसका स्थान जिह्वा के मूल में है । प्राणायाम के समय साधक की साधना जैसे-जैसे बढ़ती जाती है वैसे – वैसे ही उसकी चेतना के ये आठों चक्र क्रियाशील होने लगते हैं । जिससे शरीर में नई ऊर्जा अनुभव होने लगती है।आज्ञा चक्रसातवां चक्र आज्ञा चक्र है । यह चक्र हमारी दोनों भौहों के बीच में होता है। इस पर संयम करने से बाह्य की विस्मृति और आंतरिक कार्य का आरंभ होता है । इससे तारुण्य और उत्साह प्राप्त होता है । इससे शरीर पर प्रभुत्व नाड़ी और नसों में स्वाधीनता आती है। इसमें कोई भी साधक या योगी पहुंचकर अपनी बौद्धिक शक्तियों का जागरण कर लेता है। सुख-दुख , हानि लाभ , जीवन मरण , यश अपयश के द्वंद्वों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता अर्थात वह समता को प्राप्त कर लेता है।सहस्रार चक्रचक्र सहस्त्र चक्र होता है। इसका स्थान मस्तिष्क में होता है। कई योगियों ने इसका स्थान सिर के सबसे ऊपर के भाग में होना बताया है। इसलिए इस चक्र को ब्रह्मरंध्र भी कहा गया है । चोटी के पास इसकी अवस्था होने से योगी भी उत्कृष्ट तम आनंद की अवस्था को प्राप्त कर जाता है। इस पर चेतना के गुंजित होने से मस्तिष्क की शक्ति बढ़ती है । हमारी स्मरण शक्ति मजबूत होकर पुरानी से पुरानी घटनाएं हमें बहुत शीघ्रता से स्मरण हो आती हैं। इसके प्रबल होने से मानसिक थकान का व्यक्ति कौन हो नहीं होता।इन चक्रों के उर्जावन्त होने के लिए कुंडली के जागृत करने के अभ्यास किए जाते हैं। राजयोग से उनका कोई संबंध नहीं ।इसलिए कुछ लोग भ्रमित होकर के राजयोग में निर्मला माताजी के चक्कर में पड़ अपना बहुमूल्य जीवन व्यर्थ कर रहे हैं।यह सब संयम से प्राप्त हो सकता है। संयम का भी बहुत महत्वपूर्ण अर्थ है धारणा ,ध्यान और समाधि जो तीनों एक व्यक्ति मेंएक समय उपस्थित होते हैं तो उसको संयम कहते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि योग तो सहानुभूति का अनुभव कराता है मनुष्य के तमाम विचारों को और अपव्यय होती हुई शक्ति को एकाग्र कर भौतिक संसार से सूक्ष्म और सूक्ष्म से अति सूक्ष्म तक ले जाकर आत्मबोध कराने का नाम ही योग है । जब आदमी मौन हो जाता है , तभी ईश्वर से मिलन का रास्ता बनने लगता है । योग का संबंध और अंतःकरण दोनों से है । योग मानव को इस लोक और परलोक दोनों से पार करता है। यद्यपि योग शरीर की क्रिया अनुभव होती है। परंतु साथ ही साथ यह मन और इंद्रियों की क्रिया भी सिद्ध होती है। ऊपर के प्रस्तरों में भली-भांति विस्तृत रूप से समझाया जा चुका है कि मन को वश में करने और चित् की सभी वृत्तियों का निरोध करने में योग का एक महत्वपूर्ण स्थान है ।आसन जो शरीर द्वारा किए जाते हैं वह वास्तव में योग नहीं है। बल्कि योग की शरीर द्वारा की जा रही एक बहिर्मुखी क्रिया है जो शरीर को स्वस्थ रखने के लिए की जाती है। परंतु वर्तमान में बहुत लोगों ने आसन को योग समझ लिया है।
वास्तव में योग तो एक विज्ञान है ।योग जीवन जीने की एक विधि है। योग आत्मा व परमात्मा के मिलन का एक साधन है। वस्तुतः योग एक व्यवस्थित नियम को प्रतिपादित करता है।
योग शरीर को अनुशासित रखता है। शरीर में स्थित मन को उद्देश्यपूर्ण दिशा में चलने का बोध कराता है। योग पूर्ण रूप से शरीर के धर्म का प्रकृति के अनुकूल बोध कराता है ।
जो ब्रह्मांड में है वही पिंड में है और जो पिंड में वही ब्रहमांड में है , अर्थात मनुष्य के शरीर में संपूर्ण ब्रह्मांड का वैभव छुपा हुआ है। जिसके अभाव में मनुष्य सांसारिक वाटिका में मृगतृष्णा में भटकता रहता है। योग इन्हीं सब कमियों को दूर करके मनुष्य को सफलतम व्यक्ति बनाता है।उपनिषद की मान्यता है कि, ” यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे ” अर्थातजैसा ब्रह्मांड है …वैसा ही यह शरीर है, कहीं कोई भेद नहीं !जो तत्व एवं गुण ब्रह्मांड में व्याप्त हैं उनसे ही यह शरीर भी बना है, कोई अंतर ही नहीं !