वेद, महर्षि दयानंद और भारतीय संविधान-49

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में : राजधर्म और भारतीय संविधान
महाभारत को नीति और राजनीति के दृष्टिकोण से विद्वानों ने पांचवां वेद माना है। महाभारत आदि पर्व में कहा गया है-
धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ।
यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत क्वचित।।
हे भरत श्रेष्ठ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के संबंध में जो बात इस ग्रंथ में है, वही अन्यत्र भी है, जो इसमें नही है, वह कहीं भी नही है। भारतीय परंपरा के अनुसार इतिहास की परिभाषा है-
धर्मार्थकाममोक्षाणामुपदेश समन्वितम।
पूर्ववृत्त कथा युक्त मिह्हिासं प्रचक्षते।।
अर्थात जिसमें पूर्ववृत्त प्राचीनकाल में घटित घटनाओं का वर्णन धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के उपदेश सहित कथन किया गया हो, उसे इतिहास कहते हैं जैसा कि हमने पूर्व अध्याय में स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि महर्षि दयानंद सरस्वती जी महाराज का इतिहास के अध्ययन और लेखन के विषय में दृष्टिकोण इसी प्रकार का था। महाभारत राजनीति का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। उस समय राजनीति के एक से बढ़कर एक धुरंधर विद्यमान थे। भीष्म पितामह, योगीराज कृष्ण, आचार्य कृप, आचार्य द्रोण, महामनीषी विदुर, महाराज धृतराष्ट्र आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय है। महाभारत युद्घ के समापनोपरांत महाराज युधिष्ठर को भीष्म ने राजधर्म का उपदेश दिया था। यह उपदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि उस समय था। भारतीय राजनीति और भारतीय राजनीतिज्ञ इस उपदेश से आज भी लाभान्वित हो सकते हैं। यद्यपि हमारे संविधान में राजधर्म से संबंधित कोई अध्याय या अनुच्छेद नही है, परंतु यदि महर्षि दयानंद संविधान निर्मात्री सभा में होते तो वह राजधर्म विहीन किसी संविधान का निर्माण कदापि न होने देते।
महाभारत के शांति पर्व के बीसवें अध्याय में राजा को उभयलोक में सुख शांति प्राप्ति कराने वाले गुणों का वर्णन आता है। इन गुणों को आज भी भारतीय राजनीति में राजधर्म घोषित किया जाए तो आशातीत परिणाम प्राप्त हो सकते हैं।
युधिष्ठर को समझाते हुए भीष्म पितामह कहते हैं-राजन जिन गुणों को आचरण में लाकर राजा उत्कर्ष लाभ करता है, वे गुण छत्तीस हैं। राजा को चाहिए कि वह इन गुणों (जो आजकल के हमारे जन प्रतिनिधियों और शासक वर्ग के लिए आदर्श आचार संहिता के रूप में वर्णित किये जाने चाहिए) से युक्त होने का प्रयास करें। ये गुण निम्नवत हैं।
1. राजा स्वधर्मों का (राजकीय कार्यों के संपादन हेतु नियत कत्र्तव्यों और दायित्वों का न्यायपूर्वक निर्वाह) आचरण करे, परंतु जीवन में कटुता न आने दें।
2. आस्तिक रहते हुए दूसरे के साथ प्रेम का व्यवहार न छोड़ें।
3. क्रूरता का व्यवहार न करते हुए प्रजा से अर्थ संग्रह करे।
4. मर्यादा का उल्लंघन न करते हुए प्रजा से अर्थ संग्रह करे।
5. दीनता न दिखाते हुए ही प्रिय भाषण करे।
6. शूरवीर बने परंतु बढ़ चढ़कर बातें न करे। इसका अर्थ है कि राजा को मितभाषी और शूरवीर होना चाहिए।
7. दानशील हो, परंतु यह ध्यान रखे कि दान अपात्रों को न मिले।
8. राजा साहसी हो, परंतु उसका साहस निष्ठुर न होने पाए।
9. दुष्टï लोगों के साथ कभी मेल मिलाप न करे, अर्थात राष्ट्रद्रोही व समाजद्रोही लोगों को कभी संरक्षण न दे।
10. बंधु बांधवों के साथ कभी लड़ाई झगड़ा न करे।
11. जो राजभक्त न हों ऐसे भ्रष्ट और निकृष्ट लोगों से कभी भी गुप्तचरी का कार्य न कराये।
12. किसी को पीड़ा पहुंचाए बिना ही अपना काम करता रहे।
13. दुष्टों (आतंकी लोगों से) अपना अभीष्ट कार्य न कहें, अर्थात उन्हें अपनी गुप्त योजनाओं की जानकारी कभी न दें।
14. अपने गुणों का स्वयं ही बखान न करे। (आजकल देश प्रदेश की सरकारें अपने कार्यों का वर्णन समाचार पत्रों में करोड़ों विज्ञापन देकर करती हैं, निश्चय ही यह जनहित के और राजधर्म के विपरीत आचरण है, क्योंकि जनता का धन जनता के कार्यों पर व्यय होना चाहिए। उस पर जनता का अधिकार है ना कि किसी सरकार का।)
15. श्रेष्ठ पुरूषो (किसानों) से उनका धन (भूमि) न छीने।
16. नीच पुरूषों का आश्रय न ले, अर्थात अपने मनोरथ की पूर्ति के लिए कभी नीच लोगों का सहारा न लें, (इससे स्पष्ट होता है कि राजनीति में सब कुछ चलता है, यह कहना गलत है) अन्यथा देर सबेर उनके उपकार का प्रतिकार अपने सिद्घांतों की बलि चढ़ाकर देना पड़ सकता है।
17. उचित जांच पड़ताल किये बिना (क्षणिक आवेश में आकर) किसी व्यक्ति को कभी भी दंडित न करे।
18. अपने लोगों से हुई अपनी गुप्त मंत्रणा को कभी भी प्रकट न करे।
19. लोभियों को धन न दे।
20. जिन्होंने कभी अपकार किया हो, उन पर कभी विश्वास न करें।
21. ईष्र्यारहित होकर अपनी स्त्री की सदा रक्षा करे।
22. राजा शुद्घ रहे, परंतु किसी से घृणा न करे।
23. स्त्रियों का अधिक सेवक न करे। आत्मसंयमी रहे।
24. शुद्घ और स्वादिष्ट भोजन करे, परंतु अहितकार भोजन कभी न करे।
25. उद्दण्डता छोड़कर विनीत भाव से मानवीय पुरूषो का सदा सम्मान करे।
26. निष्कपट भाव से गुरूजनों की सेवा करे।
27. दम्भहीन होकर विद्वानों का सत्कार करे, अर्थात विद्वानों को अपने राज्य का गौरव माने।
28. ईमानदारी से (उत्कोचादि भ्रष्ट साधनों से नही) धन पाने की इच्छा करे।
29. हठ छोड़कर सदा ही प्रीति का पालन करे।
30. कार्यकुशल हो परंतु अवसर के ज्ञान से शून्य न हो।
31. केवल पिण्ड छुड़ाने के लिए किसी को सांवना या भरोसा न दे, अपितु दिये गये विश्वास पर खरा उतरने वाला हो।
32. किसी पर कृपा करते समय उस पर कोई आक्षेप न करे।
33. बिना जाने किसी पर कोई प्रहार न करे।
34. शत्रुओं को मारकर किसी प्रकार का शोक न करे।
35. बिना सोचे समझे अकस्मात किसी पर क्रोध न करे।
36. कोमल हो, परंतु तुम अपकार करने वालों के लिए नहीं।
आगे 21वें अध्याय में भीष्म पितामह युधिष्ठर को यह भी बताते हैं कि तुम लोभी और मूर्ख मनुष्यों को काम और अर्थ के साधनों में मत लगाओ।

क्रमश:

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