समाज के जागरूक लोग आगे आयें
वेदोअखिलोधर्ममूलम् (मनु. 2.6) अर्थात धर्म का आधार वेद है। यह मनुमहाराज ने कहा है। आगे मनु ने धर्म के लक्षण बताते हुए कहा-
वेद:स्मृति सदाचार: स्वस्य च प्रियमात्मन:।
एतच्चतुर्विधं प्राहु: साक्षात धर्मस्य लक्षणम्।। (मनु 2.12)
अर्थात वेद, स्मृति, सदाचार और अपनी आत्मा के ज्ञान के अनुकूल आचरण ये चार धर्म के लक्षण हैं। तात्पर्य हुआ कि एक सदाचारी और आत्मानुशासित व्यक्ति को ही धार्मिक कहा जा सकता है। यदि ये दो गुण व्यक्ति में नही हैं तो चाहे वह कितना ही बड़ा ज्ञानी क्यों न हो, धार्मिक नही कहा जा सकता।
धर्म को मानव के बाहर की दिखावटी और बाजारू वस्तु बना दिया इसे अपने अंतर्जगत की वस्तु रहने ही नही दिया। धर्म मनुष्य को भीतर से साधता है, मर्यादित करता है। काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, ईष्र्या घृणा और द्वेष के विकारों से सावधान करता है और हमारा आत्मिक व बौद्घिक परिमार्जन भी करता रहता है। भीतर बैठकर हमें मानव से देवत्व की साधना कराता रहता है। संसार के दोषों से और विकारों से हटाता रहता है और मानव को पतन से रोकता रहता है।
संप्रदायों ने धर्म की फजीहत कर दी। संप्रदाय मानव का बाहरी आवरण है। जिससे व्यक्ति हिंदू बनता है, मुसलमान बनता है, ईसाई बनता है या कुछ और बनता है। मजहब सचमुच एक अफीम है जो व्यक्ति को उन्माद के नशे में रखता है। संप्रदाय मानव को दानवता की ओर ले जाता है। उसकी देवत्व की साधना को भंग करता है। दुर्भाग्य से इस संप्रदाय को मानव समाज ने धर्म का स्थानापन्न मान लिया और धर्म से कई लोगों ने घृणा का प्रदर्शन करना आरंभ कर दिया। पूजनीय (धर्म) का अपमान और अपूजनीय (सम्प्रदाय) का सम्मान संसार में बढ़ गया है। फलस्वरूप सारे संसार में ही पहले से अधिक भुखमरी, शोषण, अत्याचार और अनाचार का बोलबाला बढ़ा है। चारों ओर दुर्भिक्ष, मरण और भय का साम्राज्य है। संसार ये भूल गया-
यत्र अपूज्य पूज्यते तत्र दुर्भिक्ष मरणम् भयम्।
अर्थात जहां अपूज्यों का पूजन होता है वहां दुर्भिक्ष मरण और भय का साम्राज्य होता है। संप्रदाय की इसी घातक सोच और परिणति पर चिंतन करते हुए नीत्शे ने कहा था-बाइबिल को बंद करो और मनुशास्त्र को उठाओ।
मनु को बाहरी लोगों ने इसी सम्मान भाव से देखा लेकिन हमने उसके साथ न्याय नही किया। अमेरिका ने भी उसे आदि संविधान निर्माता का सम्मान देकर उसकी मूर्ति अपने यहां राजधानी वाशिंगटन में स्थापित की परंतु हमने उसे जाति व्यवस्था का जनक मानकर विवाद और कई लोगों के लिए तो घृणा का पात्र तक बना दिया। जबकि मनु जाति व्यवस्था के जनक नही थे।
ऋषि गौतम ने कहा है कि समान प्रसवात्मकता जाति: (न्यायदर्शन 2.2.70) अर्थात जिनके जन्म लेने की विधि एवं प्रसव एक समान हों वे सब एक जाति के हैं।
आचार्य महाप्रज्ञ जी ने इसी बात को आधार बनाकर लिखा कि जाति सामाजिक व्यवस्था है। वह तात्विक वस्तु नही है। शूद्र और ब्राह्मण में रंग का और आकृति का भेद नही जान पड़ता। दोनों की गर्भाधान विधि और जन्म पद्घति भी एक है। गाय और भैंस में जैसे जातिकृत भेद है वैसे शूद्र और ब्राह्मण में नही। इसलिए मनुष्य मनुष्य के बीच जो जातिकृत भेद है, वह परिकल्पित हैं। अत: संसार में जितने संप्रदाय वर्ग या जातियां हैं वे सभी मनुष्य ने अपने स्वार्थों को साधने के लिए बनायी हैं। किसी भी कार्य को आप करें, यदि आप उसमें सामाजिक सामूहिक सहयोग चाहते हैं तो आपको उस समय संप्रदाय वर्ग या जाति या व्यवसायगत सहकर्मी लोगों का सहयोग जल्दी मिल जाता है। इसलिए व्यक्ति संप्रदाय वर्ग, जाति आदि को अपने हाथ में एक दबाब गुट का हथियार बनाकर रखता है। इसीलिए संसार में मानवता को कुचलने के लिए चिकित्सक संघ अधिवक्ता संघ, पत्रकार संघ, जातीय संगठन, साम्प्रदायिक संगठन बहुत बड़ी संख्या में बन चुके हैं। सामूहिक हित में और मानवीय हित में भी यदि कोई अच्छा निर्णय कभी शासन प्रशासन की ओर से लिया जाता है तो ये सारे संघ संगठन तुरंत अपने अपने जातीय या वर्गीय या सांप्रदायिक या व्यावसायिक हितों को लेकर सड़कों पर आ जाते हैं। विरोध होता है तोडफ़ोड़ होती है, हिंसा होती है और हम देखते हैं कि कई बार अच्छे निर्णय वापस ले लिये जाते हैं। इसीलिए समाज में दबाव गुट बना बनाकर अपने अपने स्वार्थों को साधने की अमानवीय प्रवृत्ति निरंतर बढ़ती जा रही है।
शासन का उद्देश्य होता है मनुष्य को संकीर्णताओं से ऊपर उठाकर प्राणिमात्र के विषय में सोचने के लिए प्रेरित करना और स्वार्थों को त्यागकर सामूहिक हित के सामने समर्पण करना। लेकिन यहां उल्टा हो रहा है। बस यही कारण है कि चारों ओर अराजकता का माहौल बना हुआ है। हम संकीर्णताओं को बढ़ावा दे रहे हैं और जो नही होना चाहिए उसे ही निरंतर करते जा रहे हैं। ऐसे ही स्वार्थी लोगों ने मनु को भारतवर्ष में जाति व्यवस्था का जनक कहा। यद्यपि डा. बी.आर. अंबेडकर ने लिखा है कि अकेला मनु न तो जाति व्यवस्था को बना सकता था और न लागू कर सकता था। उन्होंने यह भी लिखा है कि शूद्र राजाओं और ब्राह्मणों में बराबर झगड़ा रहा, जिसके कारण ब्राह्मणों पर बहुत अत्याचार हुआ। शूद्रों के कारण ब्राह्मण लोग उनसे घृणा करने लगे और उनका उपनयन करना बंद कर दिया। उपनयन न होने के कारण उनका पतन हुआ। वे वैश्यों से नीचे हो गये और उनका एक चौथा वर्ण बन गया। डा. अंबेडकर की ऐसी सोच के उपरांत भी कुछ लोग उन्हें भारतीयता का चिंतक न मानकर एक वर्ग विशेष तक घसीटने का प्रयास करते रहे हैं। यह प्रवृत्ति खतरनाक है। वास्तव में अपने गौरवपूर्ण अतीत को समझने और परखने की आवश्यकता है। मनु के चिंतन को समग्रता में समझने की आवश्यकता है। आज की राजनीति संप्रदाय , जाति और वर्ग जैसी व्याधियों से ग्रसित हैं। समाज को इन्ही आधारों पर बांटकर रखने से ही राजनीतिज्ञों को वोट मिलते हैं। इसलिए ये लोग समाज में इन बुरी भावनाओं को मिटने नही दे रहे हैं। चारों ओर इन्ही बुरी भावनाओं का आतंक है। अच्छी बात यही होगी कि राजनीति को सांप्रदायिकता, जातीयता और वर्गीय संघर्षों से मुक्त किया जाए। लोकतंत्र में इन चीजों के लिए कोई स्थान नही होता। लोकतंत्र में तो ये चीजें मिटाई जाती हैं। एक आदर्श समाज की स्थापना के लिए धार्मिकता के प्रचार और प्रसार के लिए, लेकिन जिस समाज में धर्म और धार्मिकता को ही गाली समझा जाता हो उसमें धर्म और धार्मिकता के प्रचार और प्रसार की संभावना कैसे मानी जाए? वहां तो अधर्म की बातें हो सकती हैं। लेकिन हमारा मानना है कि अब अधर्म की असंगत बातें समाप्त होनी चाहिए, और समाज के सामूहिक हित में धर्म संगत न्यायपूर्ण राज्य की स्थापना होनी चाहिए। इसके लिए समाज के जागरूक लोगों को आगे आना होगा।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।