बिगड़ता पर्यावरण संतुलन और यज्ञ
आर्थिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए ही नही अपितु सामाजिक व्यवस्था को भी सही प्रकार से चलाये रखने के लिए ‘ले और दे’ का सिद्घांत बड़ा ही कारगर माना जाता है। भारतीय संस्कृति में तो इसे और भी अधिक श्रद्घा और आस्था का प्रतीक बनाकर धार्मिक व्यवस्था के साथ जोड़ दिया गया। यदि नदी हम को शीतल जल दे रही हैं तो हम उन्हें माता कहकर उनकी पूजा करते हैं, (पूजा का अर्थ गुणों का सम्मान है और गुणों का सम्मान इसी में है कि हम नदियों को प्रदूषण मुक्त रखेंगे, क्योंकि वे हमें जीवन दे रही हैं)। तुलसी, पीपल आदि की पूजा का विधान भी यही है। कालांतर में इन पूजा पाठों में रूढि़वादिता की जंग लगी और ये हमारे लिए बोझ बन गये। यह अलग विषय है।
हमारा कहने का अभिप्राय ये है कि हमारी संस्कृति में ‘ले और दे’ का सिद्घांत श्रद्घा और आस्था से जुड़ा होने के कारण उसमें स्वार्थहीनता है। माना ये जाता था कि जो कोई आपको कुछ दे रहा है तो उसे सवा गुना करके लौटाओ। जगत का सिद्घांत भी यही है। प्रकृति तो हमें हमारे द्वारा दिये गये का कई गुणा करके लौटाती है। किसान थोड़ा सा बीज खेत में डालता है परंतु उत्पादन कई गुणा होकर आता है। खेत का किसान से कोई लालच नही है। पुराने समय में किसान का भी खेत से कोई लालच नही होता था बल्कि किसान अपने खेत से एक आत्मीय संबंध बनाकर रखता था। खेत को अपनी मां कहता था। यह श्रद्घा और आस्था की ही अभिव्यक्ति होती थी। अत: लिए हुए का सवा गुना करके लौटाना कारोबार और व्यापार की दृष्टि से और सामाजिकता की दृष्टिï से उचित ही है। पर आज क्या हो रहा है?
आज की शिक्षा व्यक्ति को जीविकोपार्जन का ढंग बता रही है। परंतु जीवन जीने की कला का एक पूरा दर्शन इस शिक्षा के पास नही है। यह सर्वमान्य सत्य है कि जीविकोपार्जन की कला सीखने वाला मानव या मानव समाज स्वार्थी हो जाता है और जीवन जीने की कला सीखने वाला मानव या मानव समाज परमार्थी हो जाता है। पुराने समय में हम जीवन जीने की कला सीखते थे और आज जीविकोपार्जन की कला सीख रहे हैं। बस, यही हमारे दु:खों का कारण है। आज मानव और मानव समाज पूर्णत: स्वार्थी है, इसीलिए यज्ञीय भावना इसके भीतर से समाप्त है। पुराने समय में भारत में प्रत्येक घर से प्रात:काल यज्ञ हवन की खशबू आया करती थी। चौबीस घंटों में जो गंदगी व्यक्ति करता था उसे स्वयं ही साफ किया करता था। 23 घंटे प्रकृति से लेना और सुबह सुबह एक घंटे प्रकृति को कुछ देना इससे प्रकृति और मानव की दोस्ती मजबूत होती थी। मनुष्य अंतरावलोकन करता था कि जिस जिसने मेरे निर्माण में अहम भूमिका निभाई है, उस उसको मैं क्या दे सकता हूं? इसलिए यज्ञीय भावना के अनुरूप समाज के बड़े बुजुर्गों के प्रति सम्मान बराबर वालों के प्रति समानता का व्यवहार और छोटों के प्रति पे्रेमपूर्ण उपकार का भाव समाज में, घर में और राष्ट्र में मिला करता था। इससे घर-संसार की सृष्टि होती थी। तब घर ही संसार बन जाता था और संसार घर बन जाता था इसी भावना का नाम था ‘वसुधैव कुटुम्बकम।’
पर आज ऐसी भावना नही रही है। आजकल नदियां अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। आप देश की राजधानी दिल्ली के पास से गुजरने वाली यमुना को ही लें, इसमें इतना प्रदूषण हो गया है कि इसके पास से निकलना भी मुश्किल है। गंदे नालों ने नदियों को ही गंदा नाला बना दिया है। ‘सभ्य समाज’ के कथित सभ्य लोग देश की राजधानी में ही रहते हैं, और उन सभ्यों के असभ्याचरण का शिकार यमुना हो गयी है। यह तथ्य है कि यमुना को 60 प्रतिशत प्रदूषण दिल्ली से मिलता है। दिल्ली के बाद यमुना का पानी गंदे नाले का सा हो जाता है। पहले हम 23 घंटे प्रकृति से कुछ लेते थे तो एक घंटे प्रकृति को दिया करते थे और आज उससे लेना ही लेना है, देना कुछ नही है और जो दिया जा रहा है वह प्रकृति को अप्रसन्न करने के लिए दिया जा रहा है। इस भ्रष्टाचार को रोकने के लिए हमारे पास कौन सा जन लोकपाल आएगा? जनता की ओर से ये सवाल क्यों नही बन रहा? हिंडन (प्राचीन काल में हरनन्दी) नदी गाजियाबाद और गौतममुद्घ नगर से होकर बहती है। यह नदी भी पूरी तरह गंदा नाला बन चुकी है। लोगों ने नदी का गला घोंट कर रख दिया है। मुख्यधारा के एकदम किनारे तक लोगों ने मकान बना लिये हैं। शासन प्रशासन की उपेक्षा और मिलीभगत से नदी का स्वरूप ही बदल गया है। डूब क्षेत्र में मकान बनाना निषिद्घ है, लेकिन मकान धड़ाधड़ बन रहे हैं, किसकी मिलीभगत से बन रहे हैं, क्या कोई ‘जनलोकपाल’ इसका पता लगाएगा? यही स्थिति देश की अन्य नदियों की है।
कल क्या होगा
यह प्रश्न भी बड़ा ही मार्मिक है कि जब हम ‘ले और दे’ के सिद्घांत को भूल गये हैं और उसकी पवित्रता को विस्मृत कर चुके हैं तो उसका परिणाम आने वाले कल में क्या होगा? निश्चित रूप से हमारी शैतानी भरी प्रवृत्ति और स्वार्थपूर्ण सोच के कारण पर्यावरण प्रदूषण बढ़ा है। जिससे धरती गरमा रही है और गरमाती धरती आने वाले कल की भयानक तस्वीर पेश कर रही है। इससे वायुमंडल में ऑक्सीजन के तीन अणुओं से मिलकर बनने वाली ओजोन गैस की परत को सर्वाधिक खतरा बढ़ा है। यह ओजोन का क्षोभमंडल पृथ्वी की सतह से 10 से 50 किलोमीटर ऊपर होता है। गाडिय़ों के धुएं के प्रदूषण से यह ओजोन की परत प्रभावित हो रही है। जिससे श्वसन में जलन, खांसी, गले में खराश और छाती में कष्टप्रद परेशानी होने की व्याधियां बढ़ती जा रही हैं, इससे फेफड़ों की दीवारें भी क्षतिग्रस्त हो जाती हैं। इसी प्रकार के प्रदूषण के कारण सल्फर डाई ऑक्साइड के मिश्रण से बनने वाला कोहरा भी मनुष्य के जीवन के लिए खतरा बनता जा रहा है। प्रतिवर्ष कोहरे की चादर में वृद्घि होती जा रही है। भारत के बारे में वैज्ञानिक चिंतित हैं और उनका निष्कर्ष है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालय में मौजूद ग्लेशियर 50 फीट प्रतिवर्ष की दर से पीछे हट रहे हैं। यह स्थिति 1970 से बराबर बनी हुई है। 1998 में शेक्रियाली बर्नाक ग्लेशियर में 20.1 मीटर की कमी आयी जबकि उस वर्ष सर्दियां प्रचंड थीं। गंगोत्री ग्लेशियर 30 मीटर प्रतिवर्ष की दर से पीछे हट रहा है। बास्या ग्लेशियर से सर्दियों में निकलने वाले बहाब में 1966 से 75 प्रतिशत वृद्घि हुई है। साथ ही सर्दियों में स्थानीय तापमान बढ़ा है जो सर्दियों में ग्लेशिया के पिघलने में बढ़ोत्तरी को प्रदर्शित करता है। वैज्ञानिकों का मत है कि इस दर से पिघलने पर समस्त मध्य और पूर्वी हिमालयी ग्लेशियर 1935 तक समाप्त हो जाएंगे।
मई 2002 की तपती गर्मियों में आंध्र प्रदेश में तापमान 48.9 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया, जिससे एक सप्ताह में सर्वाधिक मौतों का आंकड़ा दर्ज किया गया। इस गर्म लहर को संपूर्ण एशिया में लंबे समय से देखे जा रहे बढ़ते तापमान के संदर्भ में देखा जा रहा है। भारत में दक्षिण भारत सहित हर नदी में 0.6 डिग्री सेल्सियस की दर से तापवृद्घि का रूझान देखा जा रहा है। पश्चिम बंगाल में पिछले तीन दशकों में बढ़े समुद्री स्तर ने लगभग 7500 हेक्टेयर गसानी या कच्छ जंगलों को पानी में डुबो दिया है।
अब विद्वानों का यह भी मानना है कि भविष्य के युद्घ धर्म विचार या राष्ट्रीय गौरव के स्थान पर नही बल्कि जीवित रहने के मुद्दे पर लड़े जाएंगे। अगले 20 वर्षों में धरती द्वारा अपनी वर्तमान जनसंख्या को कायम रखने की क्षमता में महत्वपूर्ण कमी साफ दिखाई देने लगेगी। बांग्लादेश बढ़ते समुद्री स्तर के कारण पूरीतरह से वीरान हो जाएगा क्योंकि समुद्री पानी आंतरिक जलापूर्ति को दूषित कर देगा।
ऐसी भयावह परिस्थितियों में प्राणिमात्र का जीवन खतरों से घिर गया है। जीविकोपार्जन के लिए नये नये फार्मूले पेश करने वाले कथित बुद्घिजीवी अब मनुष्य को जीवन जीने की कला सिखायें। जीविकोपार्जन के गुर सिखाते सिखाते मनुष्य को प्रकृति का शत्रु बना दिया गया है और प्रकृति मानो नाग की सी फुंकार मारने के लिए उठ खड़ी हुई है। लेकिन अभी भी समय है। प्रकृति को मित्र बनाओ इसे अपना सहयोगी बनाओ। कोई भी रोग धीरे धीरे हमारे द्वारा बरती गयी असावधानियों का परिणाम होता है और शरीर के भीतर छिपी रोग निरोधक क्षमता उस रोग से लड़ते लड़ते जब थक जाती है तो शरीर में विकार उत्पन्न होता है और हमें बाहरी चिकित्सक की आवश्यकता होती है। शरीर में भीतरी चिकित्सक ने यदि रोग के सामने हथियार फेंक दिये तो यह उसके द्वारा हमको सचेत करना भी होता है कि सावधान हो जाओ नही तो परिणाम मौत के भी आ सकते हैं। आज प्रकृति भी हमें सचेत कर रही है। कह रही है कि सावधान हो जाओ यदि मैं बिगड़ गयी तो परिणाम मौत के भी आ सकते हैं। इसलिए बीमार धरती और बीमार व्यवस्था का उपचार आवश्यक है। अत: ‘ले और दे’ की नीति को सही स्वरूप में समझा जाना चाहिए। समाजिक और धार्मिक क्षेत्र में इस नीति को हम अपने पूर्वजों की भांति अपनाएं और यज्ञीय संस्कृति को प्रचारित प्रसारित करें, जिसके विषय में वैज्ञानिकों का मानना है कि यज्ञ से प्रदूषण बड़ी शीघ्रता से समाप्त होता है और मनुष्य को रोग व शोक से मुक्ति मिलती है। इस यज्ञ को घर घर में पहुंचाने का बीड़ा सरकारें नही उठाएंगी इसके लिए तो आंदोलन की भूमिका समाज के लोगों को ही तैयार करनी होगी। पर्यावरण प्रदूषण सबसे बड़ा भ्रष्टाचार है इसे समाप्त करने के लिए समाज में क्रांति की आवश्यकता है। आईए संकल्प लें कि अपने घर में प्रतिदिन यज्ञ हवन करेंगे और दूसरों को इसके लिए प्रेरित करेंगे। दीप से दीप जलाएंगे और बीमार धरती के उपचार में अपना सक्रिय सहयोग देंगे। धरती की संतान मानव अगर सचमुच मानव बनकर यज्ञीय भावना को जीवन का श्रंगार बना ले तो आने वाली आपदा को रोका जा सकता है।
-राकेश कुमार आर्य