ऐसे पनपी जहरीली जमात की जड़
सुरेंद्र चौधरी
हरियाणा के मेवात में जो हिंदू मुसलमान बने थे, वे बरसों तक हिंदू रीति-रिवाजों को मानते रहे। आर्य समाज ने उनकी घर वापसी के लिए अभियान चलाया,तो मौलाना इलियास ने उन्हें कट्टरवादी मुसलमान बनाने के लिए 1927में तब्लीगी जमात की शुरुआत की
देवबंदी विचारधारा ने कई संतानें पैदा कीं। राष्ट्रवाद का मुखौटा पहने जमीयत उलेमा-ए-हिंद हो या युवकों को उग्रवादी बनाने वाली सिमी हो अथवा जैश-ए-मुहम्मद जैसा आतंकवादी संगठन हो, सभी देवबंदी विचारधारा की संतानें हैं। इसी श्रृंखला का एक विशेष देवबंदी आंदोलन है तब्लीगी जमात।
जमात की शुरुआत
यह आंदोलन दिल्ली के पास मेवात में कुछ दर्जन अनुयायियों की सहायता से देवबंदी मौलवी मुहम्मद इलियास (1885-1944) ने शुरू किया। यह मौलाना 18वीं शताब्दी में अहमदशाह अब्दाली को भारत पर आक्रमण हेतु आमंत्रित करने वाले प्रसिद्ध सूफी शाह वलिउल्लाह का वंशज तथा अनुयायी था और दारूल-उलूम, देवबंद के पास वाले सहारनपुर के मजहर अल-उलूम मदरसे में शिक्षक था। किन्तु मदरसे की उपयुक्तता सीमित महसूस होने पर वहां से त्यागपत्र दे दिया था। 1925 में यह अपनी दूसरी हज यात्रा करके वापस लौटा। इस्लाम के प्रचार-प्रसार का काम करने हेतु वह दिल्ली के निजामुद्दीन में रहा। निजामुद्दीन औलिया (1238-1325) नामक सूफी की कब्र वाली बस्ती निजामुद्दीन सुल्तान बल्बन (1266-1286) के जमाने से जिहाद संगठित करने का केंद्र रहा है। मौलाना इलियास ने 1927 में इसी इलाके में तब्लीगी जमात की औपचारिक शुरुआत की। दिल्ली के ‘इस्लामिक सेंटर’ के प्रमुख मौलाना वहीदुद्दीन खान, जो उदारवादी मुस्लिम विचारक माने जाते हैं, ने लिखा है, ‘‘जरूरतमंद छात्रों को बिना मूल्य शिक्षा देने के लिए उनके (इलियास के) पिता ने बस्ती हजरत निजामुद्दीन में छोटा-सा मदरसा प्रारंभ किया। यहीं पर उनका (इलियास का) मेवातियों से संपर्क हुआ। उनकी मजहबी दरिद्रता से दुखी होकर मजहबी शिक्षा द्वारा उनमें सुधार लाने की इन्होंने शुरुआत की।’’
वे आगे लिखते हैं, ‘‘प्रसिद्ध सूफी हजरत निजामुद्दीन औलिया तथा उनके वंशजों के प्रयासों के कारण अज्ञानी लोगों का इस्लाम में बड़ी मात्रा में कन्वर्जन किया गया था, लेकिन दैनिक जीवन में वे इस्लाम से दूर ही थे। वे अपने नाहर सिंह, भूप सिंह जैसे हिंदू नाम रखते थे। हिंदुओं की तरह अपने चिकने सिर पर शिखा रखते थे। मूर्ति पूजा करते, हिंदू त्योहार मनाते तथा देवी-देवताओं के सामने बलि चढ़ाते। उन्हें ‘कलमा’ भी कहना नहीं आता था। नमाज पढ़ाना तो दूर उसके तरीके से भी इतने अपरिचित थे कि कोई नमाज पढ़ रहा हो तो वह बार-बार घुटने तथा माथा टेकता है, यानी वह या तो पागल या बीमार होगा, इस भावना से इकट्ठे होकर उसका मजा लूटते थे। भारतीय मुस्लिमों को अपने पूर्वजों के धर्म में लाने का निश्चय आर्य समाज के प्रचारकों ने किया जिससे 1921 में नई समस्याओं की शुरुआत हुई।’’
खान उदारवादी माने जाते हैं, लेकिन उनकी इन बातों से उनकी पहचान पर अंगुली उठाई जा सकती है। वे कहते हैं,‘‘शुद्धि आंदोलन के मूर्धन्य नेता स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या करने वाला अब्दुल रशीद तब्लीगी था। मेवातियों में हिंदू नामों को अपनाना, शिखा रखना, मूर्ति पूजा करना, हिंदू त्योहार मनाना मजहबी दरिद्रता का लक्षण है।’’
खान लिखते हैं, ‘‘आर्य समाज के प्रचारकों की गतिविधियों को बड़ा यश मिला। उन्हें (मेवातियों को) मजहबी शिक्षा देना यही इस समस्या का समाधान था। अपने बच्चों को मदरसों में भेजने के लिए मेवातियों को तैयार करना बहुत कठिन था। अंतत: इलियास की प्रबल इच्छाशक्ति के आगे उन्हें झुकना पड़ा। कुरान की तालीम के अलावा प्राथमिक दीनी तालीम देने वाले कई मदरसे शुरू करने में उन्हें (इलियास को) यश मिला… यह सब करते हुए उनके काम को नई दिशा मिलने वाली घटना हुई। मेवात के प्रवास के समय एक बार मौलाना की पहचान उनके मदरसे से हाल ही में शिक्षा प्राप्त हुए युवक से हुई। उसकी चिकनी दाढ़ी के कारण उसके बाह्य स्वरूप में उन्हें इस्लाम का कोई चिन्ह भी नहीं दिखाई दिया। उन्हें अपयश का अहसास हुआ। उनका उद्देश्य सफल नहीं हुआ था। मदरसा छोड़ने के बाद ऐसे युवक और युवकों में मिल जाते और मदरसे का प्रभाव समाप्त हो जाता। आसपास के वातावरण से उन्हें अलग करना, यही एक उपाय मौलाना को सूझा तथा अनिष्ट प्रभाव से अलग करने के लिए कुछ समय के लिए उनके गुट बनाने तथा मस्जिद अथवा मजहबी संस्थाओं में एकत्रित करने की योजना बनाई। यह तंत्र उपयुक्त साबित हुआ। कुछ समय तक उन्हें 24 घंटे मजहबी कामों में उलझा कर रखने से उनमें बदलाव आया। पूरे मेवात का रूप बदल गया। जहां पहले बहुत कम मस्जिदें थीं, वहां हरेक बस्ती में मस्जिद एवं मदरसे बनने लगे। उन्होंने (लोगों ने) अपना वेश बदला, दाढ़ियां बढ़ार्इं तथा एक-एक करके सारी इस्लाम पूर्व प्रथाएं झटक दीं। उनमें स्वयं में बदलाव हुआ ही, साथ में वे पहले जैसे रह रहे लोगों में ‘अल्लाह का संदेश’ पहुंचाने की प्रेरणा भी देने लगे हिंदू पद्धति के वस्त्रों से घृणा उत्पन्न कराई गई तथा लोग शरीयत के अनुरूप वेश करने लगे। हाथ से चूड़ियां तथा पुरुषों के कानों से कर्णाभूषण निकलवाए गए। 1941 में बस्ती निजामुद्दीन में जमात की पहली परिषद् हुई। उसमें 25,000 लोग जमा हुए। 1944 में इलियास की मृत्यु के बाद उनके बेटे मुहम्मद यूसुफ ने जमात के कार्य का विस्तार किया।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तब्लीगी जमात का जाल बिछ गया। इस कार्य में अरबिस्तान के उलेमाओं ने रुचि दिखाई। लोगों को संबोधित करने के लिए अरब के उलेमा निजामुद्दीन तथा देवबंद में आने लगे। 1947 में हुए विभाजन के कारण निजामुद्दीन के पास हुमायूं की कब्र, पुराना किला आदि बस्तियों में शरणार्थियों की छावनियों में अनेक मेवाती थे। यूसुफ ने इन छावनियों में तब्लीगी जमात के कार्यकर्ता भेजे। शरणार्थी अच्छे मुस्लिम नहीं होने से अल्लाह ने उन्हें भयानक सजा दी है, ऐसा उन्हें बताया गया।’’
इस्लामी विचारक वहीदुद्दीन खान कहते हैंं प्रसिद्ध सूफी हजरत निजामुद्दीन औलिया तथा उनके वंशजों के प्रयासों के कारण अज्ञानी लोगों का इस्लाम में बड़ी मात्रा में कन्वर्जन किया गया था, लेकिन दैनिक जीवन में वे इस्लाम से दूर ही थे। वे अपने नाहर सिंह, भूप सिंह जैसे हिंदू नाम रखते थे। हिंदुओं की तरह अपने मुंडन किए सिर पर शिखा रखते थे। ऐसे लोगों को पूर्ण रूप से मुसलमान बनाने के लिए मौलाना इलियास ने काम शुरू किया।
इस्लामी ब्रदरहुड
मौलाना मुहम्मद यूसुफ ने अपनी मृत्यु से तीन दिन पहले 30 मार्च, 1966 को पाकिस्तान के रावलपिंडी में इस्लामी ब्रदरहुड विषय पर भाषण दिया। भाषण का कुछ भाग इस प्रकार है, ‘‘उम्मत स्थापित करने के लिए हमारे साथियों ने बहुत कष्ट उठाए। परिवार, पक्ष, मुल्क, सूबा, भाषा आदि हित संबंधों का त्याग करके ही उम्मत की स्थापना हुई है। ध्यान रखो, मेरा मुल्क, मेरा सूबा, मेरे लोग… ये शब्द फूट को जन्म देते हैं और किसी भी बात की अपेक्षा अल्लाह को यह बात अमान्य है। किसी भी कीमत पर हमें एकत्रित रहने की जरूरत है। अन्य गुट अथवा मुल्कों पर इस्लाम की उम्मत का वर्चस्व होना चाहिए। मुस्लिम ब्रदरहुड अमल में लाना, यही इस्लाम का सर्वोच्च सामाजिक उद्देश्य है। यह उद्देश्य साध्य होने तक इस्लाम पूर्ण रूप से अस्तित्व में नहीं आएगा।’’
जमात की कार्यप्रणाली
तब्लीगी कार्यकलापों में सामान्य मुस्लिम भी सहयोग दे, ऐसा तब्लीगियों का आग्रह रहता है। व्यक्तिगत संपर्क को महत्वपूर्ण माना जाता है। सप्ताह में एक दिन, महीने के दो दिन, साल में 40 दिन तथा अंत में जीवन के 120 दिन तब्लीगी कार्य में तब्लीगी कार्यकर्ता अपना योगदान देें, ऐसी उनकी अपेक्षा होती है। महिला कार्यकर्ता भी काम करती हैं। सफर में किसी भी मस्जिद का उपयोग रहने के लिए किया जाता है तो भी धीरे- धीरे तब्लीगी मस्जिदें बनी।
तब्लीगी लोगों के छोटे-छोटे गुटों को ‘गश्त’ कहते हैं। जमात का प्रमुख ‘अमीर’ कहलाता है। बड़ी परिषदों का आयोजन भी कभी-कभी किया जाता है। भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश तथा अमेरिका एवं यूरोप में भी बहुत सी परिषदों का आयोजन हुआ है। 1988 में लाहौर के पास रायविंद में वार्षिक परिषद हुई जिसमें पूरे विश्व के 90 देशों से 10,00000 से अधिक लोग आए थे। हज के बाद यह मुस्लिमों का सबसे बड़ा था।